मगन और गुजालिया, दोनों भाई आज जंगल की ओर गए हैं। आज उनकी ड्यूटी है जंगल संभालने की। दोनों भाइयों ने सुबह से जंगल में कई पेड़ों को देखा, छोटे पौधों के आसपास झाड़ी लगाई, पानी के गड्ढों के किनारे से गंदगी साफ की और ऊंची-नीची पहाड़ियों से होते हुए दोपहर बाद अपने घर को लौट आए। कल गांव का एक दूसरा परिवार ऐसा ही करेगा।
यह मध्य प्रदेश के अलीराजपुर गांव में ककराना गांव का जंगल है। ककराना के भील आदिवासी बारी-बारी से अपने जंगल की ख़ैर-खबर लेने रोज निकलते हैं। सामुदायिक वनाधिकार कानून तो आज आया है, लेकिन पिछले चार दशकों से यहां के लोग इसी तरह अपने जंगल बचाते आ रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि उनका जंगल सबसे पहले उनकी ही जिम्मेदारी है क्योंकि वे सदियों से इन्हीं जंगलों में रहते आए हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने 2021 से 2030 के दशक को पारिस्थितिक तंत्र के रिस्टोरेशन यानी बहाली का दशक घोषित किया है। दुनिया भर में इसके लिए काम हो रहा है। अलीराजपुर के आदिवासियों द्वारा अपने जंगलों के लिए किया जा रहा काम संयुक्त राष्ट्र के इस अभियान के लिए एक बेहतरीन उदाहरण हो सकता है।
ककराना गांव को वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) के तहत 2022 में पट्टा भी मिला है। जिले में अब कई गांवों में लोग इसी अधिकार के तहत अपने जंगलों को संवार रहे हैं। इनमें ककराना में हो रहा काम सबसे अच्छा माना जाता है। वन अधिकार कानून (FRA) यानी अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी आधिकारों की मान्यता से इंसान और जंगल के बीच का यह रिश्ता और मजबूत हुआ है।
2011 की जनगणना के मुताबिक अलीराजपुर देश में सबसे अधिक अशिक्षित जिला था। इसके बाद स्थितियां कुछ बेहतर हुईं हैं, लेकिन बहुत ज्यादा अंतर अब भी नहीं है। अशिक्षा के बावजूद यहां के आदिवासियों ने जंगलों के प्रति अपनी जिम्मेदारी और एफआरए को शानदार तरीके से अपनाया है और वे अपने सदियों पुराने जीवन जीने के तरीके और संस्कृति को फिर से अपना रहे हैं।
अलीराजपुर जिला पंचायत के सीईओ अभिषेक चौधरी बताते हैं कि जिले मेंएफआरए लागू होने के बाद से अब तक अलीराजपुर जिले में 326 सामुदायिक पट्टे और 10547 निजी पट्टे दिए जा चुके हैं। चौधरी के मुताबिक ज्यादातर मामलों में लोगों के द्वारा वनों का संरक्षण संतोषजनक दिखाई देता है। जानकार कहते हैं कि अगले एक से दो दशकों में यह स्थिति और भी सुधरेगी।
वन अधिकार कानून
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के तहत वन भूमि और वन्य संसाधनों का उपयोग करने के लिए अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के पात्र व्यक्तियों और समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जाती है। इसके तहत आने वाले व्यक्तिगत अधिकारों में वन भूमि पर स्व-खेती और निवास का अधिकार भी शामिल हैं। वहीं वन भूमि में जानवरों की चराई, वहां के जल स्रोतों तक पहुंच, उनमें मछली पकड़ना, पारंपरिक मौसमी संसाधनों तक पहुंच और इन संसाधनों के प्रबंधन आदि को इस कानून के तहत मिलने वाले सामुदायिक अधिकारों में शामिल किया गया है।
2009 में नोबल प्राइज ऑफ इकोनॉमिक्स इलिनर ऑस्टम को दिया गया था। इन्होंने बताया था कि कॉमन प्रापर्टी रिसोर्स को कैसे बचाया जाए। उन्होंने अपने सिद्धांत में कहा था कि इन संसाधनों को एक समुदाय ही बचा सकता है और जरूरी है कि वही समुदाय इसके नियम और सीमा तय करे।
भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समिति में विशेषज्ञ के तौर पर शामिल रहे सत्यम श्रीवास्तव वन अधिकारों को आसान भाषा में समझाते हैं।
उनके अनुसार इस कानून के तीन अंग हैं।
- पहला अंग है जंगल और मनुष्य को सहजीवी के तौर पर मानना, जो कि सदियों से होता रहा है। जंगल और मनुष्य एक दूसरे का साथ ही रहते आ रहे हैं। ऐसे में मनुष्य अपनी और अपने पशुओं की जरूरत जंगल में रहते और उसका खयाल रखते हुए उसी से पूरी करता है और उसकी रक्षा करता रहा है।
- दूसरा अंग है जंगल में रहने वाले लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना। इसका मतलब ये है कि जंगल में रहने वाले लोगों को उनका जंगल लौटाना यानी उनके जंगल को वन विभाग द्वारा मान्यता देना है जो कि अब तक पूरी तरह वन विभाग के अधीन होता था। इसका कानून दो सौ वर्ष पहले बनाया गया था।
- तीसरा अंग है वन प्रशासन का लोकतांत्रिकरण। वन अधिकार कानून के तहत ग्राम सभा को अधिकार दिए गए हैं। ग्राम सभा सबसे लोकतांत्रिक इकाई है जिसमें 18 वर्ष से ऊपर के सभी व्यक्ति समान हैं और समान रूप से जंगल की देखभाल के लिए जिम्मेदार हैं।
चालीस साल पहले शुरू हुआ प्रयास
अलीराजपुर का खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन अस्सी के दशक से कुछ ऐसे ही विचार पर काम करता आ रहा है। आदिवासी जो अपने जंगलों को खुद बचाना चाहते हैं उनमें निवास और उनके इतने उपयोग के अधिकार की उम्मीद रखते हैं जिससे पारिस्थितिकी तंत्र न बिगड़े।
इसके तहत इस संगठन ने 1983 में अट्ठा गांव से काम शुरु किया था। यहां पुरुषों और महिलाओं ने अपनी धास संस्कृति के अनुसार अपने जंगल के लिए पारंपरिक सामुदायिक श्रम पूलिंग सिस्टम बनाया और अपने जंगलों की रक्षा करने का फैसला किया। धास परंपरा के तहत सभी लोग बारी-बारी से श्रम दान देते हैं और इसी के तहत जंगल के प्रति अपने कर्तव्य को उन्होंने निभाया।
इस संगठन के सचिव और वयोवृद्ध कार्यकर्ता रूपसिंह पडियार बताते हैं, ‘’कुछ दशकों पहले वन विभाग के कई लोग शहरी ग्राहकों को बेचने के लिए हमारे जंगलों से लकड़ी काट लेते थे, लेकिन इसका आरोप स्थानीय आदिवासियों पर लगता था। इसलिए हमने अपनी ओर से जंगलों की कटाई बिल्कुल बंद कर दी और बाहरी लोगों से उनकी रक्षा करनी शुरू कर दी क्योंकि यही जंगल हमारे देवता हैं जो हमें भोजन और आजीविका देते हैं।‘’
बुजुर्ग कार्यकर्ता बताते हैं कि उस समय कुछ पढ़े-लिखे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोगों को समझाने में उनकी मदद की। इनमें सुभद्रा खार्पडे, राहुल बनर्जी, चितरुपा पलित जैसे कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम रही, जिन्होंने आदिवासियों की उनकी संस्कृति और वनों को संरक्षित करने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद से ही गांव की महिलाएं और पुरुष मिलकर जंगलों की रक्षा करने लगे।
इसी संगठन की एक अन्य अनुभवी सदस्य दहेलीबाई कहती हैं, “महिलाएं ज्यादातर समय जंगलों में जलाऊ लकड़ी, घास, फल, सब्जियां और जड़ी-बूटियां इकट्ठा करने में बिताती रही हैं। इसलिए हमने सोचा कि जंगल की हर तरह से रक्षा करना होगी क्योंकि अपने व अपने पशुओं के लिए अधिक पौष्टिक भोजन का इंतजाम भी इन्हीं जंगलों से होता है।“
संगठन के कार्यकर्ता शंकर तड़वाल बताते हैं कि जिले में ज्यादातर आदिवासी समाज जंगल में ही रहता है और इससे किसी भी तरह से अलग नहीं है। चार दशक पहले शहर या कस्बों में रहने वाले वनवासियों की संख्या और भी कम थी। उस समय जंगल रोको अभियान की शुरुआत की गई। इसका सीधा संदेश यह था कि अपना जंगल केवल वन विभाग के कर्मचारियों के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। तड़वाल बताते हैं कि उस समय वन विभाग के साथ उनके अच्छे अनुभव नहीं थे।
अपने अभियान के शुरुआती दिनों के बारे में शंकर बताते हैं कि तब एक परिवार जंगल की रखवाली करता था और फिर लौटते हुए एक निशान किसी अन्य परिवार के घर के बाहर रख देता था। इस तरह अब जंगल की चौकीदारी की जिम्मेदारी उस परिवार की हो जाती थी। यह प्रक्रिया लंबे समय तक जारी रही और अब यह ग्राम सभा के माध्यम से तय किया जाता है कि जंगल की देखभाल कौन करेगा।
तड़वाल बताते हैं कि उनके संगठन ने 2021 में संगठन ने वन अधिकार कानून 2006 के तहत सामुदायिक वन अधिकार पत्र की मांग की और पूरी कवायद के बाद 2022 में यह अधिकार हासिल किया।
जंगल गांव की जिम्मेदारी
ककराना गांव में यह प्रयास कुछ और भी शानदार दिखाई देते हैं। बारिश में यहां का जंगल खिल उठा है, लेकिन गर्मियों के दौरान भी यहां रौनक कम नहीं हुई थी।
गांव के जंगल की बीते 19 साल से चौकीदारी कर रहे डीलू जंगल में ही बने अपने छोटे से घर में परिवार के साथ रहते हैं। वे दिन भर एक डंडा लेकर जंगल में घूमते हैं। इसके बदले में गांव के लोग चंदा करके उन्हें करीब बीस हजार रुपया सालाना देते हैं। इसके अलावा वे अपनी छोटी सी जमीन पर ज्वार और बाजरे की खेती करते हैं।
वे बताते हैं कि पहले गांव का जंगल काटने बहुत से लोग आते थे। उस समय वे गांव वालों के साथ उन लोगों को डराकर भगा देते थे। अब कोई जंगल काटने नहीं आता।
सैटेलाइट मैप से देखने पर पता चलता है कि ककराना में 3.85 वर्ग किमी का इलाका हरा-भरा है। यहां गांव और जंगल दोनों का अस्तित्व है। इस तरह यहां करीब 400 हेक्टेयर का जंगल इन्होंने संरक्षित कर रखा है। यहां कोई पेड़ नहीं काटा जाता या किसी तरह से भी जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाया जाता है। यहां इंसान और जंगल अलग दिखाई नहीं देते।
गांव के लोग जंगल जाते हैं और वहां पड़ी हुई लकड़ियां, घास और थोड़े बहुत पत्ते या अन्य फल वगैरह ला सकते हैं और जरूरत के मुताबिक जंगल में अपने मवेशी चरा सकते हैं और वहां उपलब्ध पानी के संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। इसकी जानकारी भी ग्राम सभा को होती है, हालांकि पानी का उपयोग करने की जरूरत यहां नहीं होती क्योंकि ये नर्मदा नदी के बिल्कुल किनारे बसे हुए गांव हैं।
अट्ठा गांव से शुरू हुई जंगलों के बचाने की यह परंपरा अब अलीराजपुर के एक बड़े हिस्से में दिखाई देती है। लोग अपने-अपने तरीके से अपना जंगल बचा रहे हैं, हालांकि पट्टा हासिल करने के बाद कुछेक मामलों में यह प्रयोग बहुत सफल नहीं हैं लेकिन कहा जा सकता है कि जंगल बचाने वाले जागरूक आदिवासियों की संख्या बढ़ रही है।
जिले के झंगाना, सुगट, भानछेवरी, भितारा, सुगट, गेंदवार, झंगाना, भितारा, भानछेवरी, धनपुर, पुजारा चौकी, ककराना, सेमलानी, मेहरगांव में जंगलों को बचाने के अच्छे प्रयास हो रहे हैं।
इस इलाके में सक्रियता से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता राहुल बनर्जी बताते हैं कि जंगल बचाओ अभियान का महत्व आदिवासियों ने समझा और इसे बहुत गंभीरता से आगे बढ़ाया। यही वजह है कि यह अभियान अब जिले के 70 से अधिक गांवों में फैल चुका है। बनर्जी बताते हैं कि कई गांवों में सामुदायिक वन अधिकार के तहत पट्टा दिया गया है और इन सभी में ककराना का वन्य क्षेत्र सबसे अधिक है जहां ग्रामीणों ने अपने पट्टा क्षेत्र के आसपास का जंगल भी संरक्षित किया है।
“जंगल बचाओ अभियान का महत्व आदिवासियों ने समझा और इसे बहुत गंभीरता से आगे बढ़ाया। यही वजह है कि यह अभियान अब जिले के 70 से अधिक गांवों में फैल चुका है।”
- राहुल बनर्जी, सामाजिक कार्यकर्ता
जिले के एक अधिकारी नाम न प्रकाशित करने के आग्रह पर बताते हैं कि वन अधिकार कानून एक अच्छा कदम रहा है लेकिन इसके तहत पट्टे लेने वाले कुछ लोग ही अच्छा काम कर रहे हैं। वे बताते हैं कि बहुत से पट्टे राजनीतिक प्रभाव से हासिल किए जाते हैं। कई स्थानों पर ऐसा देखा जा सकता है कि जहां पहले जंगल थे अब वहां खेत हैं। ऐसे में सबसे पहले जरूरी है कि आदिवासियों को जंगल के प्रति उनकी जिम्मेदारी समझाई जाए।
एक अन्य स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता भंगुसिंह तोमर कहते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी समुदाय जंगलों को बचा रहा है लेकिन अब भी जागरूकता की जरुरत है ताकि भोजन की जरूरत पूरी करने के लिए जंगलों को काटकर उन्हें खेत में न बदला जाए।
ककराना के आसपास बसे गांव आंजनबारा, सोरवा आदि गांवों में भी सुंदर जंगल दिखाई दे रहे हैं। स्थानीय अधिकारी बताते हैं कि यही वन अधिकार की सफलता है। इन गांवों में आदिवासियों ने अपने जंगल को खुद ही बचाया है। दशकों से जारी इनके प्रयास और फिर वन अधिकार मिलने से नर्मदा किनारे बसे इन गांवों में जैव-विविधता बढ़ रही है। यहां अब पशु-पक्षियों की तादाद अच्छी है।
बचपन में सुनाई जाने वाली वे कहानियां गलत थीं जिनमें घने जंगल में जानवर, नदियां और पहाड़ ही होते थे। दरअसल उन जंगलों में इंसान भी होते थे और इंसान और जंगल में सहजीविता का यह रिश्ता बेहद पुराना है जिसे और मजबूत करने की जरूरत है।
— सत्यम श्रीवास्तव
अलीराजपुर जिले के डीएफओ मयंक सिंह गुर्जर बताते हैं कि जिले में वन्य क्षेत्र की स्थिति सुधरी है। सामुदायिक वन अधिकार के माध्यम से लोग जागरुक हुए हैं और अपनी वनस्पति बचा रहे हैं। वे कहते हैं कि इसका असर धीरे-धीरे देखने को मिलेगा।
ककराना गांव के इस उदाहरण को सत्यम श्रीवास्तव वन अधिकार कानून का एक बहुत अच्छा उदाहरण बताते हैं। ककराना गांव में जो हो रहा है वही वन अधिकार कानून 2006 की सफलता है और ये एक शानदार केस स्टडी है। उनके मुताबिक मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा आदिवासी हैं और सबसे ज्यादा जंगल भी। ऐसे में यहां वन अधिकार कानून के द्वारा जंगलों को बचाने पर जोर देना होगा।
सत्यम कहते हैं कि यह तो शुरुआत है, लेकिन वन विभाग को आदिवासियों का और भी अधिक सहयोग करना चाहिए और अपनी विशेषज्ञता से जंगल बचाने के इस काम में उनकी मदद करनी चाहिए।
आदित्य सिंह की यह स्टोरी देशगांव के सहयोगी संस्थान फॉलोअप स्टोरीज़ से साभार ली गई है।