भोपाल। पूंजीवाद ने विज्ञान के क्षेत्र में चमत्कार किया है लेकिन मुनाफ़े की भूख ने असमानता की गहरी खाईं पैदा कर दी है। जिसने भी इस दुनिया में जन्म लिया है उसे जीने का हक है। रहने को मकान, आत्मसम्मान की रोटी, काम कम ज्यादा फ़ुर्सत। अपराध को जन्म देने वाली व्यवस्था का नाश करना समाज की जिम्मेदारी है। इस तरह के क्रांतिकारी विचारों के साथ ही बेरोजगारी, शोषण, गरीबी, भुखमरी, असमानता, पूंजीवाद की क्रूरता जैसे ज्वलंत सवालों के साथ दर्शकों को झकझोरता “सोहो में मार्क्स”।
1999 में हावर्ड जिन के लिखे नाटक का पात्र मार्क्स की भूमिका में कहता है कि मेरे आलोचक कहते हैं कि मार्क्स मर चुका है। अब उसके विचारों की कोई जरूरत नहीं, लेकिन दुनिया का क्या हाल है? क्या दुनिया बदल गई। नहीं।डेढ़ सौ साल पहले जो समस्याएं थीं आज भी हैं। शोषकों और पूंजीपतियों के बीच संघर्ष जारी है। आमजन जीवन बचाने की जद्दोजहद में जूझ रहा है।
दर्शकों को आंदोलित करने वाला यह नाटक इतिहास के झरोखों में ले जाकर वर्तमान से जोड़ता है कि आज भी महज एक प्रतिशत पूंजीपति दुनिया की कुल संपत्ति के 90प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर काबिज़ हैं।
यह नाटक मार्क्स के जीवन व संघर्ष पर प्रकाश डालने के साथ ही सोचने पर विवश करता है कि दुनिया अंधेरे की तरफ़ बढ़ रही या रोशनी की तरफ़।
सोहो में मार्क्स एक वैचारिक व बौद्धिक नाटक है। दर्शकों से धैर्य व समझ की मांग करता है।
कबीर राजौरिया के निर्देशन में दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की यह प्रस्तुति सराहनीय रही। मार्क्स के पात्र में अनुपम तिवारी ने बेहतर काम किया है। उम्दा अभिनय और संवाद दर्शकों को बांधे रखता है। अंतिम क्षणों तक नाटक अपनी गति में एक लय के साथ बढ़ता है। कबीर के म्यूजिक ने इसमें ऊर्जा भरने का काम किया है। सौरभ झा ने लाईट का संयोजन किया है। यह नाटक की दसवीं प्रस्तुति थी।
रंगकर्मी बंसी कौल को श्रद्धांजलि अर्पित कर कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इस दौरान इप्टा अशोक नगर के साथी सौरभ झा, सत्यभामा राजौरिया और समीक्षा दुबे द्वारा क्रांतिकारी जनगीत प्रस्तुत किया गया।