अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश) में जवाहर गांव में बैठी ये महिलाएं स्लेट पर कुछ लिख रहीं हैं। इनमें पीले रंग की छींटदार साड़ी पहने इंद्रवती काले रंग की स्लेट पर खड़िया से अपना नाम लिखते हुए मुस्कुरा रहीं थीं।
“अब हम बैंक में अंगूठा नहीं लगाते, साइन करते हैं।” ये कहते हुए उनके चेहरे पर आत्मविश्वास साफ़ दिखाई पड़ रहा था. इंद्रवती ने बढ़ती उम्र के साथ कभी नहीं सोचा था कि वो इस उम्र में लिखना पढ़ना सीख सकती हैं। उनमें एक उत्साह था। कुछ सीखने का ज़ज्बा था। वो मुस्कुराते हुए बोलीं, “अब मैं अक्षर से अक्षर मिलाकर पढ़ने लगी हूँ। अक्षर पहचानने लगी हूँ. मिला-मिलाकर लिखने लगी हूँ।”
उन्होंने स्लेट को एक तरफ रखकर अपने हाथ में चौपतिया उठाई और जोर-जोर से पढ़ने लगीं।
मोटा, छोटा, तोता, गौरी, रेल, जेल, पैसा, मैना जैसे कई शब्द पढ़ते हुए उनके चेहरे पर जीत की एक झलक दिख रही थी जिस चीज की वो इच्छा छोड़ चुकी थीं वो उन्हें इस उम्र में मिल गयी यही उनके लिए बड़ा सुकून था।
इंद्रवती बताती हैं, “सुबह जल्दी उठकर फटाफट सारा काम खत्म करके खेत में काम चली करने जाती हूँ, मजदूरी भी करती हूँ लेकिन दिन का डेढ़ दो घंटा पढ़ने के लिए हर हाल में निकाल लेती हूँ। अंगूठा लगाने पर लोग अनपढ़ समझते हैं। बैंक में अब पूछते हैं कि अंगूठा लगाना की साइन करना। हम गर्व से कहते हैं साइन करेंगे।”
इंद्रवती जैसी उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ जिले की दर्जनों महिलाएं समूह में बैठकर लिखना-पढ़ना सीख रही हैं. लिखने पढ़ने की उम्मीद छोड़ चुकी इन महिलाओं को जैसे ही पढ़ने का एक मौका मिला तो इन्होंने हाथों में कॉपी-किताब उठा ली। ये घर का कामकाज निपटाकर खेतों में काम करतीं, कुछ दिहाड़ी मजदूरी करतीं इसके बावजूद दिन में अपने पढ़ने के लिए एक से दो घंटे का समय पढ़ने के लिए निकाल ही लेती हैं। अब ये महिलाएं अक्षर पहचान रही हैं, शब्द लिख रही हैं, पढ़ना सीख रही हैं, अपना नाम लिख रही हैं. अब ये अंगूठा लगाने की बजाए हस्ताक्षर करने लगी हैं। ये बदलते भारत की एक सुखद तस्वीर अलीगढ़ जिले की ये महिलाएं गढ़ रही हैं।
इंद्रवती के ठीक सामने बैठी सीमा बताने लगीं, “जब पांच साल की थी तब पापा की डेथ हो गयी। दो तीन साल बाद माँ भी खत्म हो गयी। मेरी दादी ने मुझे पाला-पोसा, मेरी शादी 12-13 साल की उम्र में कर दी गयी। स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला, जब अब यहाँ मौका मिला तो पढ़ने आने लगी। मैं इतना पढ़ना चाहती हूँ ताकि अपने बच्चों को पढ़ा सकूं।” ये कहते-कहते सपना के आँखों में आंसू आ गये।
साड़ी के आंचल से अपने आंसू पोछते हुए सपना बोलीं, “जो सपना बचपन में पूरा नहीं कर पायी वो अब पूरा हो रहा है तो मन ही मन बहुत खुश हूँ।”
इंद्रवती और सपना जैसी करीब एक दर्जन महिलाएं एक कमरे में गोलाई से बैठकर लिखना-पढ़ना सीख रही थीं ताकि वो अपने बच्चों का बेहतर भविष्य बना सकें। ये खूबसूसत नजारा अलीगढ़ जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर इगलास ब्लॉक के जवाहर गाँव का है। जहाँ करीब पाच महीने पहले यह केंद्र खुला है जिसमें 10-12 महिला रोजाना डेढ़ दो घंटे का समय निकालकर लिखना-पढ़ना सीख रही हैं। ये इगलास ब्लॉक का पहला केंद्र नहीं है, यहाँ की 12 ग्राम पंचायतों में 12 केंद्र एक गैर सरकारी संस्था विज्ञान फाउंडेशन के सहयोग से संचालित हो रहे हैं जिसमें 100 से ज्यादा महिलाएं लिखना और पढ़ना सीख रही हैं।
जवाहर गाँव में इस केंद्र पर महिलाओं को पढ़ाती सुनीता राजपूत बताती हैं, “इस सेंटर पर 25 से 40 साल उम्र की महिलाएं चूल्हा-चौका, मजदूरी सबकुछ निपटाकर पढ़ने आती हैं। ये वो महिलाएं जिन्हें किन्ही कारणवश बचपन में पढ़ने का मौका नहीं मिला। यहाँ ये महिलाएं केवल पढ़ने ही नहीं आतीं बल्कि इनके लिए यह जगह एक ऐसा ठिकाना है जहाँ पर यह अपने दुःख-सुख भी बांटती हैं।”
घरेलू और कामकाजी महिलाओं को इस केंद्र तक लाना क्या आपके लिए आसान था? इस सवाल के जवाब में सवित कहती हैं, “शुरुआत में काफी दिक्कत हुई थी। इनके घर के लोग कहते थे कि इस उम्र में पढ़कर ये कलेक्टर बनेंगी क्या? अब इनके बच्चे पढेंगे कि ये पढ़ेंगी? ऐसी तमाम बातें लोग कहते थे पर धीरे-धीरे ये महिलाएं घर से निकलने लगीं तो अब लोग कहते भी हैं तो इन्हें फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जो आत्मविश्वास इन्हें अपना नाम लिखने में अब मिल रहा है वो इनमें पहली बार आया है।”
ये महिलाएं एक-एक करके बोर्ड पर जोड़ घटाने के सवाल लगा रही थीं। अक्षर से सखर जोड़कर शब्द लिख रहीं थीं, शब्द से शब्द मिलाकर पढ़ रही थीं ये एक खूबसूरत नजारा था जिसे ग्रामीण महिलाओं ने बनाया था। इस उम्र में ससुराल में रहकर इनके लिए केंद्र तक आकर पढ़ना इतना आसान नहीं रहा होगा. पर इनकी ज़िद ने, जुनून ने, इनकी ललक ने इन्हें यहाँ तक आने की हिम्मत दी। कई बार ये अपनों से लड़ी होंगी, घर में ताने सुने होंगे पर लड़ते-जूझते ये यहाँ तक अगर पहुंची हैं तो इन्हें सैल्यूट कहना बनता है।
गोद में छोटी बच्ची लिए पूजा कहती हैं, “मैंने तो 11वीं तक पढ़ाई की है लेकिन फिर भी केंद्र पर आती हूँ क्योंकि मुझे यहाँ आकर अच्छा लगता है। ऐसा लगता है कि हमने अपने लिए कुछ समय निकाला है। सबको पढ़ते हुए देखती हूँ तो मेरा भी पढ़ने का मन करने लगता है। सबकी बातें सुनती हूँ अपने मन की भी कह लेती हूँ तो मन हल्का हो जाता है।”
यहाँ पढ़ने वाली सभी महिलाएं अब अपना नाम लिखने लगी हैं। पहले यही महिलाएं बैंक में पैसे निकालने के लिए अंगूठा लगाती थीं लेकिन अब ये अपना नाम लिखकर हस्ताक्षर करती हैं। कल तक ये बात करने में झिझक करती थीं अब लोगों से खुलकर बात करने लगी हैं। ये बदलाव की सुगबुगाहट है जिसके परिणाम भविष्य में और बेहतर देखने को मिलेंगे।
प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर गौरी पाराशर बताती हैं, “यहाँ पढ़ने वाली ज्यादातर महिलाएं दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। इनके लिए मजदूरी करके पढ़ने का समय निकालना काफी मुश्किल है पर इनमें से कुछ महिलाएं लंच के समय वक़्त निकालकर यहाँ पढ़ने आ जाती हैं ये बहुत बड़ी बात है. यहाँ हफ्ते में एक दिन साप्ताहिक बैठक भी होती है जिसमें करें 30 से 35 महिलाएं आती हैं तब इनके हक़ और अधिकारों की बात कर इन्हें जागरूक किया जाता है।”
गौरी आगे कहती हैं, “हमारी कोशिश है कि अच्छे से लिखना-पढ़ना सीख लें। हिसाब-किताब अच्छे से रखने लगें। धीरे-धीरे जैसे इनकी समझ बढ़ेगी हमलोग इन्हें किसी ओपन स्कूल के माध्यम से सर्टिफिकेट भी दिला सकें यह भी हमारी कोशिश रहेगी।”
लाल रंग की साड़ी पहने रेखा देवी बताती हैं, “मैं अपने बच्चों को भी संभालती हूँ, खेतों में भी काम करती हूँ फिर यहाँ पढ़ने आती हूँ. घर में कितना भी काम करो लोग यही कहते हैं करती ही क्या हो? हमारा काम किसी को दिखता ही नहीं. इसलिए हमने ठान लिया कि अब अपने लिए कुछ करना है। यहाँ आती हूँ मन से पढूंगी शायद आगे तक पहुंच जाऊं।”