ग्रामीण भारत में रोज़गार देने वाली सबसे प्रभावी योजना मनरेगा में केंद्र सरकार ने की सबसे बड़ी कटौती


मनरेगा के तहत वित्त वर्ष 2022-23 में जनवरी तक करीब 16000 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं किया गया है जो कि वित्त वर्ष के खत्म होने यानी मार्च तक 25 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है।


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गांवों में श्रमिकों का सबसे बड़ा सहारा बनने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) में न सिर्फ लगातार श्रमदिवस कम हो रहे हैं बल्कि औसतन 10 फीसदी लोगों को मांग के अनुरूप रोजगार और उनका भुगतान भी नहीं दिया जा रहा है।  01 फरवरी, 2023 को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आम बजट पेश किया।

इस बार यानी वित्त वर्ष 2023-24 के लिए मनरेगा के मद में कुल 60000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है यह बीते वित्त वर्ष के संशोधित बजट 89000 करोड़ रुपए से करीब 34 फीसदी कम है।

यह लगातार तीसरा वर्ष है जब मनरेगा के बजट में कटौती की गई है। इससे पहले वित्त वर्ष 2022-23 में 25.5 फीसदी और 2021-22 में 34 फीसदी कटौती की गई थी। बजट कम होने का सीधा मतलब श्रमदिवस के कम होने और रोजगार के अवसरों में कमी से भी है।

नरेगा संघर्ष मोर्चा के एक्टिविस्ट निखिल डे ने डाउन टू अर्थ से बताया कि मनेरगा के तहत भुगतान का पहाड़ बड़ा होता जा रहा है। निखिल डे के मुताबिक “मनरेगा के तहत वित्त वर्ष 2022-23 में जनवरी तक करीब 16000 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं किया गया है जो कि वित्त वर्ष के खत्म होने यानी मार्च तक 25 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है।”

वहीं, एक्सपर्ट्स का मानना है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने वाला एक प्रमुख औजार है। खासतौर से भूमिहीन श्रमिकों और सीमांत किसानों के लिए यह एक बड़ा सपोर्ट सिस्टम है। मांग के बावजूद इसके बजट में कटौती की गई है।

एक दिन पहले 31 जनवरी, 2023 को पेश आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया है कि मनरेगा के तहत 6 जनवरी, 2023 तक कुल 225.8 करोड़ श्रम दिवस पैदा किया गया जो कि वर्ष  2018-19 में  267.9 करोड़ श्रम दिवस के मुकाबले काफी कम है।

 

इससे पहले आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में भी यह स्वीकार किया गया था कि ऐसे राज्य जो प्रवासी श्रमिकों के श्रम का अस्थाई ठिकाना हैं 2021 में उन्हीं राज्यों में मनरेगा के तहत काम मांगने में बढोत्तरी हुई थी। इनमें पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु प्रमुख हैं। सिर्फ गांव ही नहीं काम के ठिकाने वाले शहरों में भी मनरेगा के तहत मांग में बढोत्तरी जारी है।

कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से जब करोड़ों की संख्या में प्रवासी अपने गांव-घर पहुंचे तो मनरेगा ने ही रोजमर्रा जीवन को चलाने में बड़ी भूमिका अदा की थी।

बीते वित्त वर्ष 2021-22 में जब 34 फीसदी बजट कम किया गया था तो रेगा संघर्ष मोर्चा के सदस्य देबामल्या नंदी ने डाउन टू अर्थ से कहा था कि बजट में कटौती का परिणाम आने वाले वर्षों में श्रम का भुगतान में भी हो सकता है, जो कि ताजा आर्थिक सर्वे रिपोर्ट में स्पष्ट है।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक बजट का प्रावधान सरकार के वास्तविक खर्च को प्रभावित नहीं करता है। यह मांग आधारित योजना है और सरकार ने 100 दिन रोजगार का कानूनी प्रावधान कर रखा है। यदि मांग बढ़ती है तो बजट में खर्च बढ़ाया जा सकता है। जैसे वित्त वर्ष 2021-22 में प्रावधान 73 हजार करोड़ रुपए का था जबकि संशोधित बजट में 25 हजार करोड़ रुपए बढ़ा दिए गए।

 

यह लेख डाउन टू अर्थ वेबसाइट से लिया गया है। इसे विवेक मिश्रा ने लिखा है। मूल लेख को इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है।


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