ब्राम्हणवाद की खिलाफ़त करने वाले डॉ. आंबेडकर को सुब्रमण्यम स्वामी ने बताया ब्राह्मण, हिंदी भाषी क्षेत्रों में पहुंचा दक्षिण से उठा विवाद


दक्षिण भारत की किताब मलयालम मेमोरियल के कवर फोटो पर डॉ आंबेडकर को ब्राम्हण वेशभूषा में दिखाया, बाबा साहेब के अनुयायियों ने इसे अंबेडकर की पहचान पर सवर्ण मानसिकता का आक्रमण बताया है।


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उनकी बात Updated On :

भोपाल। भाजपा डॉ बीआर आंबेडकर के करीब आने और उन्हें सवर्ण वर्ग के नज़दीक लाने की कोशिश लगातार कर रही है। पिछले कुछ समय में इस तरह की कोशिशों पर कई उदाहरण देखने को मिले हैं। अब राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी की एक टिप्पणी ने एक नया विवाद शुरू कर दिया है।

स्वामी ने अपनी एक ट्वीट में बाबासाहेब आंबेडकर को ब्राह्मण बताया है जिसके बाद आंबेडकरवादी इसे डॉ आंबेडकर की विरासत का अपमान बता रहे हैं। इस पूरे विषय को लेकर ट्विटर पर एक बड़ा कैंपेन चल पड़ा है और सुब्रमण्यम स्वामी से माफी मांगने की मांग की जा रही है।

 

सुब्रमण्यम स्वामी की एक टिप्पणी के कारण हिंदी भाषी क्षेत्रों में चर्चा में आए इस विवाद को छोटा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह डॉ आंबेडकर की पहचान से जुड़ा है। ऐसे में इस विषय पर देशव्यापी बहस होना लाज़मी है।

सुब्रमण्यम स्वामी एक लेख पर अपनी टिप्पणी दे रहे थे। उनकी बात दक्षिण भारत के एक लेखक की किताब पर आधारित थी। जिसके कवर पेज पर आंबेडकर को दक्षिण भारतीय संभ्रांत वेशभूषा में दिखाया गया था।

स्वामी ने यहां लिखा कि

‘सवर्ण मुंडू में आंबेडकर? बाबासाहेब के कपड़े क्यों मायने रखते हैं: ब्राह्मण वह है जो ज्ञानी, त्यागी और कहेें तो साहसी। तो बाबासाहेब एक ब्राह्मण थे।’

स्वामी ने आंबेडकर को एक सवर्ण मुंडू कहकर पुकारा। मुंडू दक्षिण भारत और विशेषकर केरल राज्य में एक विशिष्ट परिधान होता है और आमतौर पर इसे वहां के ऊंची जातियों के लोग पहनते हैं।

हालांकि लोगों ने स्वामी का समर्थन करते हुए यह भी कहा कि स्वामी ने विद्वान होने के नाते आंबेडकर ब्राह्मण कहा।

स्वामी के इस कथन के बाद उनके खिलाफ ट्विटर पर एक कैंपेन शुरू कर दिया गया है। #माफ़ीमांगोस्वामी पर अब तक हजारों ट्वीट हो चुके हैं हालांकि सुब्रमण्यम स्वामी ने इस पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

स्वामी की यह प्रतिक्रिया लेखक उन्नी आर की किताब ‘मलयाली मेमोरियल’ के कवर को लेकर प्रकाशित एक लेख पर आई थी। यह लेख इस किताब को लेकर उठ रहे विवादों पर है। आंबेडकर को एक सवर्ण ब्राह्मण के रूप में दिखाना उनकी बहुत से अनुयायियों को पसंद नहीं आया और उन्होंने कहा कि यह सवर्ण मानसिकता के द्वारा आंबेडकर की पहचान पर आक्रमण है।

26 अगस्त को वेब पोर्टल द प्रिंट की पत्रकार के कल्याणी की रिपोर्ट में इस मुद्दे पर विस्तार से बात की गई है। इस रिपोर्ट में सवाल उठाया गया है कि क्या इस तरह के प्रयोगों से ऐतिहासिक तथ्यों और लोक स्मृतियों को क्या बदला जा सकेगा!

इसी रिपोर्ट में लेखक और कार्यकर्ता सनी एम कपिकाडु के हवाले से कहा गया है कि यह चिंताजनक है। उन्होंने इसे स्वर्णों का आंबेडकर की छवि पर आक्रमण बताया।

सोशल मीडिया पर लोगों ने आंबेडकर के नीले रंग का सूट और टाई को भुलाने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास बताया।

इसके बाद से ही किताब के प्रकाशक भी सवालों में हैं। आरोप यह भी लगे कि प्रकाशकों ने किताब के कवर पेज को लेकर आए आलोचनात्मक कमेंट डिलीट कर दिए।

इस विषय पर इस तस्वीर को डिजाइन करने वाले कलाकार ने भी सफाई दी। द न्यूज मिनिट वेबसाइट के अनुसार कवर को डिजाइन करने वाले सैनुल आबिद ने एक समाचार संस्थान से बात करते हुए बताया है कि किताब का कवर पेज दर्शन किताब के अंदर मौजूद कहानियों का एक चित्रण हैं, ऐसे में तस्वीर उस लघु कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। यह कहानी एक जातिवादी समाज सुधारक की बताई जाती है जिसे लोग आंबेडकर कहकर पुकारते हैं लेकिन क्योंकि वह जातिवादी है इसलिए उसे यह ठीक नहीं लगता। ऐसे में किताब का कवर पेज पर उनके द्वारा बनाया गया चित्र उस किरदार के मानसिक द्वंद को दिखा रहा है।

हालांकि उत्तर भारतीय राज्यों में भी आंबेडकर को सामान्य वर्ग के करीब लाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। कई बार आंबेडकर को हिंदुत्व के भी करीब लाने की कोशिश की गई। वही मध्य प्रदेश सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए आंबेडकर कथा का आयोजन शुरू किया। इन कथाओं में विश्व हिंदू परिषद के नेता आंबेडकर के जीवन की कहानियां सुनाते हैं और बताते हैं कि कैसे सवर्ण समाज के लोगों ने आंबेडकर को अपने जीवन में उस बड़े मुकाम तक पहुंचाने में मदद की। ऐसा पहला आयोजन मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग ने डॉ आंबेडकर की जन्म भूमि महू में आंबेडकर सामाजिक विश्वविद्यालय के परिसर में ही कुछ महीनों पहले किया था।

 



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