
इंदौर जिला मुख्यालय से करीब पचास किमी दूर कालीकिराय पंचायत के कुछ आदिवासी तहसील के सरकारी अधिकारी के पास जाने की योजना बना रहे हैं। हालांकि उन्हें अच्छी तरह नहीं पता कि अपनी बात अधिकारी के सामने कैसे रखते हैं। उनका गांव प्रदेश के इस इलाके में सबसे व्यस्त आगरा मुंबई हाईवे के बिल्कुल किनारे बसा है। ये घाट सेक्शन यानी पहाड़ी इलाका है जहां से मालवा और निमाड़ इलाके अलग होना शुरू होते हैं।
यहां की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि एक ओर विंध्याचल पर्वत की उंची-उंची चोटियां और अगले ही कदम पर गहरी खाई। गांव वालों की परेशानी ये है कि उनके गांव में सुविधाजनक श्मशान नहीं है। उनका पारंपरिक श्मशान पहाड़ी के करीब डेढ़ किमी नीचे बह रही कारम नदी के पार बना हुआ है। यहां हर मौसम में दाह के लिए जाना कितना कठिन होता है जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

महू को डॉ. आंबेडकर की जन्मभूमि के रूप में भी जाना जाता है। आंबेडकर, जिन्होंने संविधान को बनाने में अहम भूमिका निभाई और संविधान जिसने लोगों को गरिमापूर्ण जीने का हक दिया। लेकिन कालिकिराय के ये आदिवासी बताते हैं कि जिंदगी की दुश्वारियों में अगर अपने गांव में गरिमा से जीने को मिल भी जाए तो मौत मिलना थोड़ा मुश्किल है।
गांव के बुजुर्ग देवकरण बताते हैं कि अगस्त (२०२४) में जब उनके गांव के एक ३७ साल के व्यक्ति जयराम की मौत बीमारी के चलते हो गई थी। वे बताते है कि उन्हें नहीं पता कि क्या बीमारी थी लेकिन बीते कुछ दिनों से उसकी तबियत ठीक नहीं रहती थी और फिर उसे लकवा लग गया। गांव के किशन डावर कहते हैं कि उसे इलाज अच्छा मिल जाता तो शायद बच जाता।
वे बताते हैं कि जयराम के अंतिम संस्कार के लिए फिसलन भरे पथरीले रास्ते से पहाड़ी के नीचे उतरना था, शव के साथ नीचे जाते हुए वे कई बार गिरे और जब अंततः नीचे पहुंचे थे जो नदी सामने थी। गांव वालों ने नदी किसी तरह पार की लेकिन इसके बाद श्मशान की हालत खराब थी वहां बना एक शेड पिछले दिनों नदी में आई पूर से बह गया था। किसी तरह ये लोग उस स्थान तक पहुंचे और अंतिम संस्कार शुरू किया लेकिन बारिश ने परेशान कर दिया। जलती चिता पर बारिश हो रही थी। लोग परेशान हो रहे थे कि आधी उम्र में दुनिया से चले गए एक नौजवान का शव भी ससम्मान अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पा रहा है।
ग्रामीण बताते हैं कि इस दौरान स्थानीय नेता भी आए लेकिन अफसोस जताकर चले गए। रामकरण उस दिन को याद करते हुए बताते हैं कि बारिश से चिता की आग बुझ रही थी ऐसे में परिवार और गांव के लोग हड़बड़ाकर यहां वहां से लकड़ियां इकट्ठा कर रहे थे, फिर कुछ लोगों से पुराने बेकार टायर मंगवाए गए और किसी तरह चिता चल पाई।
सखा राम बताते हैं कि ऐसा अंजाम देखकर दुख होता है, वे कहते हैं कि उनके पूर्वजों ने यहां इन्हीं मुश्किलों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी गुजार दी और अब उनकी बारी है।
कहते हैं कि एक श्मशान के लिए कई बार गांव के सरपंच से कह चुके हैं लेकिन अब तक इस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। वे बताते हैं कि इस श्मशान से आसपास के एक गांव और पहलापार, मली और गाड़ाघाट के लोग जुड़ते हैं यानी करीब २००-३०० परिवार जो अपने लोगों का अंतिम संस्कार यहीं करने आते हैं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि कालिकिराय गांव का यह श्मशान इतना अहम क्यों है।
श्मशान पहाड़ी के नीचे नदी के पार मौजूद है। नदी में आई बाढ़ के कारण कुछ समय पहले श्मशान का शेड भी बह गया था और अब वह स्थान शेष है जिसे इन्होंने अपना श्मशान मान रखा है। नदी की बाधा के चलते लोगों ने श्मशान अपनी ओर भी बनाने की कोशिश की है और इसके लिए पंचायत को कहा लेकिन पंचायत से जवाब मिला कि फिलहाल राशि नहीं है। ऐसे में एक सवाल उठता है कि गांव के ये आदिवासी अपना श्मशान पहाड़ी के नीचे ही बनाना क्यों चाहते हैं वे इसे उपर क्यों नहीं बना सकते ताकि आने जाने में आसानी हो और सुविधाएं भी जुटाई जा सकें।
इसका जवाब भी गांव वाले ही देते हैं वे कहते हैं कि उनके बूढ़े बुजुर्गों की अंत्येष्टि उसी नदी के किनारे हुई थी ऐसे में उनकी भावनाएं वहां से जुड़ी हैं और वे भी वहीं जाना चाहते हैं, आगे वे बताते हैं कि उनके बुजुर्गों को भी वहीं गांव से दूर पहाड़ी उतरकर नदी पार करके श्मशान बनाने की अनुमति थी क्योंकि वहां फारेस्ट यानी वन विभाग की जमीन नहीं है, वे बताते हैं कि वन विभाग हमें कुछ भी ऐसा नहीं करने देता और न ही हमें किसी दूसरे विभाग से सहूलियत मिलती है। ऐसे में पहाड़ उतरकर नदी पार करते हुए श्मशान जाना उनकी मजबूरी है।
इसे भी विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि इन आदिवासियों को वन विभाग के कानून के चलते एक सुरक्षित और व्यवस्थित स्थान पर श्मशान बनाने की अनुमति भी नहीं मिल पाई है और कुछ ही किमी दूर वन्य क्षेत्र में ही सरकार एक धार्मिक पर्यटन क्षेत्र जानापाव को करोड़ों की लागत से विकसित कर रही है। गांव के लोग कहते हैं कि यह वन्य क्षेत्र है और कोई छोटा सा भी निर्माण होने से पहले वन विभाग के कर्मी आकर उन्हें रोकते हैं, ऐसे में वन्य भूमि पर कब्जा करने का मामला भी दर्ज हो सकता है।
इस इलाके में राजनीति और समाजसेवा से जुड़े मनमोहन सिंह गुणावत इस गांव में श्मशान की समस्या को हल करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वे कहते हैं कि इस गांव की समस्या विकराल है, शव को नीचे तक ले जाते हुए लोगों के कंधे बैठ जाते हैं और इस समस्या के बारे में लगभग सभी को जानकारी है लेकिन कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता। वे कहते हैं कि यह प्रदेश के सबसे विकसित इंदौर जिले का गांव है और हालत ऐसी है कि इसकी खराब स्थिति के बारे में लोग बात भी करना नहीं चाहते क्योंकि ये विकास के दावों से एकदम अलग और उलट है। वे कहते हैं कि अक्सर खबरें मिलती हैं कि सरकारें श्मशानों के विकास के लिए कई तरह की राशि की घोषणा कर रहीं हैं लेकिन ये पता नहीं क्यों घोषणाएं इस जमीन पर क्यों नहीं उतरती।
गुणावद बताते हैं कि यह पूरा क्षेत्र लगभग पूरी तरह से आदिवासी इलाका है, आसपास के कई गांवों में इस तरह की समस्याएं हैं कि उन्हें कभी पानी लेने के लिए नीचे जाना होता है तो कभी अपनी फसल बेचने के लिए उपज लेकर खड़ी चढ़ाई चढ़कर उपर आना होता है, दोनों में ही लोगों की जान पर बन आती है लेकिन कोई इस बारे में बात भी नहीं करता।
रूप सिंह बताते हैं कि गांव इस समस्या के चलते बदनाम हो गया है। वे कहते हैं कि दूसरे इलाकों में रहने वाले नाते रिश्तेदार जब ऐसे मौकों पर आते हैं तो इस स्थिति को देखकर काफी अचरज जताते हैं, वे कहते हैं कि उन्हें अपने गांव के सरपंच और इलाके के नेताओं से मदद मांगनी चाहिए नहीं तो कहीं और चले जाना चाहिए। इस पर रूप सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपनी परेशानी सभी को बता दी और मदद भी सभी से मांग ली लेकिन किसी ने नहीं सुना और रही बात गांव छोड़कर जाने की तो कैसे जाएं यहां पर घर है, चरवाही का काम है और भी सभी लोग। कहीं बाहर रहने जाएंगे तो घर बनाने बसने के लिए पैसा चाहिए होगा जो उनके पास नहीं है।
एक दूसरे बुजुर्ग गेंदा लाल कहते हैं कि वे अब फिर अधिकारियों के पास जाने के लिए गांव वालों को तैयार कर रहे हैं और अगर सभी मान जाते हैं तो फिर अधिकारियों को अपनी परेशानी समझाना कठिन होगा क्योंकि जैसे ही बात वन विभाग की जमीन की आएगी अधिकारी बात टाल देंगे।
पंचायत की सरपंच जमना मेड़ा हैं लेकिन सारा कामकाज उनके पति हरिराम मेड़ा देखते हैं, गांव वालों ने बताया कि जमना गांव के किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं करतीं। हरिराम कहते हैं कि वे भी गांव में सुविधाजनक श्मशान बनाना चाहते हैं लेकिन फिलहाल पंचायत के पास इसके लिए पर्याप्त राशि नहीं है।
महू जनपद पंचायत के सीईओ पंकज दरोठिया कहते हैं कि उन्हें इस समस्या के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन वे इस स्थिति के बारे में पता लगाएंगे और इसे हल करने का प्रयास करेंगे। दरोठिया के मुताबिक उनकी जानकारी में इलाके में ऐसी समस्याएं ज्यादा नहीं हैं लेकिन अगर कहीं भौगौलिक तौर पर हालात कठिन हैं तो इसके लिए वे पूरी कोशिश करेंगे।
कालिकिराय गांव के अलावा महू तहसील में कई ऐसे गांव हैं जहां लोगों को आसानी से श्मशान नहीं मिल पाता। इसके अलग अलग कारण हैं। कही मामला भौगोलिक है तो कहीं कानूनी तो कहीं जाति का। महू तहसील में इस वजह से पूर्व में कई विवाद भी हुए हैं। आंबेडकर भले ही आंबेडकर की जन्मभूमि है लेकिन यहां जातिगत भेदभाव के किस्से कम नहीं हैं। यहां कई गांव में जातिगत श्मशान हैं और इसके चलते गंभीर विवाद भी हुए हैं।
जातिगत भेदभाव के मुद्दों पर काम करने वाले महू के दलित नेता प्रदीप चौहान कहते हैं कि महू में ऐसे कई गांव हैं जहां आदिवासियों को अंतिम संस्कार में परेशानी आती है। वे बताते हैं कि आदिवासी गांवों में पारंपरिक तौर पर छोटी-छोटी आबादी रहती रही है और कई बार ये गांव भौगोलिक जगहों पर होते हैं ऐसे में गांव वालों की परेशानियां बढ़ जाती हैं और प्रशासन के पास हमेशा बहाना होता है कि भौगोलिक परिस्थितियों का हवाला देकर वे बचने का। चौहान के मुताबिक कालीकिराय में ही आने वाला करीब सौ लोगों की आबादी वाला खिरनीखेड़ा मजरा भी ऐसा ही है, जो हाईवे के दूसरी ओर
कुछ दूरी पर बसा है। वहां लोगों को पीने का पानी लेने के लिए भी सीधी खड़ी पहाड़ी के दो किमी नीचे उतरना पड़ता है। इस गांव के बुजुर्ग दशरथ श्मशान भूमि के बारे में पूछने पर बोलते हैं कि जब पीने को पानी तक नहीं है तो श्मशान की सुविधा की बात कैसे करें।
गांव की एक महिला बताती हैं कि अब हमारे गांव में लोग अपने बच्चों को ब्याहना पसंद नहीं करते क्योंकि पानी लेने के लिए भी जान हथेली पर रखकर जाना होता है वो भी रोज़। इस गांव के रास्ते में दो पहिया से ही पहुंचा जा सकता है, यहां के लोग बीमार होने से भी डरते हैं, वे बताते हैं कि अस्पताल पास (कुछ किमी दूर) तो है लेकिन वहां तक पहुंचना कठिन है। कुछ समय पहले जब इस गांव में पानी की कमी का एक समाचार प्रकाशित हुआ था तो ग्रामीणों के मुताबिक कुछ सरकारी अधिकारी नाराज़ हो गए थे। इन्हें वन विभाग का भी डर दिखाया गया। इन गांवों के लोग कहते हैं कि उन्हें अपनी खुद की हालत पर तरस तो आता है लेकिन वे सराकारी अधिकारियों की नाराजगी से इससे भी ज्यादा डरते हैं।