आंबेडकर जन्मस्थली के गांवों में दलित होने के मायनेः किसी को जीतकर भी सम्मान नहीं मिला तो किसी की जाति उसका रोज़गार खा गई


कई गांवों में दलितों के श्मशान और मंदिर तक अलग, डॉ. आंबेडकर के सहारे भेदभाव से लड़ रहे युवा


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उनकी बात Updated On :
Is discrimination with Dalits due to casteism in Ambedkar's birthplace Mhow - Deshgaon News
आंबेडकर जन्मस्थली पर पहुंचे एक पिता पुत्री


इंदौर। जनवरी के महीने में प्रदेश की राजधानी भोपाल में करणी सेना का बड़ा प्रदर्शन हुआ था। जिसके बाद से सोशल मीडिया पर एससी-एसटी आरक्षण खत्म करो और जातिगत आरक्षण खत्म करो जैसे ट्रैंड्स शुरु हो गए। आभासी दुनिया के आईने में ये ट्रैंड हमारे समाज की तस्वीर ही दिखा रहे थे। ये उस प्रदेश में हो रहा था जो संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक आदिवासी अत्याचारों के मामले में देश में पहले और दलितों पर अत्याचार के मामले में तीसरे नंबर है और यह वह प्रदेश भी है जहां दलितों के मसीहा डॉ. भीम राव आंबेडकर पैदा हुए।

मध्यप्रदेश में आरक्षण का विरोध हो रहा है लेकिन आरक्षण पा रहे नागरिकों की स्थिति कितनी बदली है इसे समझने के लिए आंबेडकर की जन्मभूमि महू से ही शुरु करना बेहतर है। महू जहां आंबेडकर को चाहने वाले लोग उनकी जन्मभूमि पर बने स्मारक पर अपनी श्रद्धा लेकर पहुंचते हैं। उम्मीद की जाती है कि महू में जातिवाद जैसी समस्याएं नहीं हैं लेकिन यहां का समाज फिलहाल इतना उदार दिखाई नहीं देता।

महू के ग्रामीण इलाके में बहुत से गांव अब भी घोर जातिवाद में बटे हुए हैं। यहां जातिवाद के चलते अक्सर झगड़े होते रहे हैं। इन झगड़ों के केंद्र में यहां के श्मशान और मंदिर भी रहे हैं। दरअसल इस तहसील के बहुत से गांवों में उंची जाति और नीची जाति के लिए अलग-अलग श्मशान होते हैं और बहुत बार इस अनलिखे नियम को तोड़ने पर उंची और नीची जाति के बीच विवाद की स्थिति बन चुकी है। इन गांवों में अब ज्यादातर आबादी पिछड़ों, आदिवासियों और दलितों की है और संघर्ष या मनमुटाव की ज्यादातर कहानियां भी इन्हीं के बीच सिमटी हैं।

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विष्णु मालवीय और उनकी पत्नी तथा हरसोला गांव की पूर्व सरपंच रहीं लक्ष्मी

महू से केवल सात किमी दूर हरसोला गांव में विष्णु मालवीय स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के नामी नेता रहे हैं। उनकी पत्नी लक्ष्मी बीते सत्र में हरसोला पंचायत से सरपंच रहीं। विष्णु मालवीय बताते हैं कि स्थानीय राजनीति में एक चर्चित नाम और पत्नी के सरपंच जैसे पद पर पहुंचे के बावजूद भी उन्हें जातिगत हीनता से मुक्ति नहीं मिली।

 

अपने गांव की एक घटना याद करते हुए वे बताते हैं कि सरपंच कार्यकाल के दौरान उनकी पत्नी ने गांव में सामुहिक विवाह का आयोजन किया। इस आयोजन की पूरी जिम्मेदारी सरपंच की थी। इस काम में विष्णु मालवीय ने भी काम किया लेकिन सरपंच को धर्मशाला में नहीं आने दिया गया।

कामकाज के बाद उनकी सरपंच पत्नी और उन्हें अलग से भोजन दे दिया गया। यह इसलिए क्योंकि सामुहिक विवाह पिछड़े समाज के लोगों का था और वे नहीं चाहते थे कि दलित सरपंच यहां आएं।

विष्णु मालवीय कहते हैं कि दलितों के प्रति यह व्यवहार उनके मनोबल को तोड़ता है। वे कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से जातिगत भेदभाव कुछ ज्यादा ही बढ़ रहा है और अब पिछड़े समाज के लोग ज्यादा जातिवाद करते हैं। वे दलितों-आदिवासियों के प्रति बैर का भाव रखते हैं। मालवीय कहते हैं कि यही वजह है कि सनातन धर्म कमजोर हो रहा है। हरसोला और आसपास के गांवों के कई युवकों के साथ इसी तरह का व्यवहार हुआ जिसके बाद अब उन्होंने हिन्दू धर्म की पूजा पाठ तक छोड़ दी और अब वे बौद्ध धर्म को अपना रहे हैं।

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हरसोला में सवर्ण समाज का श्मशान और उनकी धर्मशाला

हरसोला गांव के इस श्मशान में भी समाजिक विवाद हो चुका है। कुछ वर्ष पहले एक युवा की मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार उंची जाति के श्मशान में कर दिया गया। इसकी वजह थी कि यहां के दलित समाज के श्मशान में और वहां जाने के रास्ते पर पानी भरा हुआ था।

यहां पंचायत ने कभी कोई विकास नहीं किया था। इसके बाद लक्ष्मी मालवीय सरपंच बनी और उन्होंने यहां कुछ हद तक विकास कार्य करवाए भी लेकिन आज भी दोनों श्मशानों में अंतर साफ दिखाई देता है। श्मशानों को लेकर एक समाचार ने एक बार यहां दिल्ली से एक नोटिस तक यहां भिजवा दिया था और उस समय के महू के अधिकारियों ने इसे व्यवस्था को खत्म करने के लिए कोशिशें भी की लेकिन यह कोशिशें केवल सामयिक रहीं और स्थिति में कोई बदलाव नहीं हो सका।

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हरसोला गांव में दलित समाज का श्मशान

गांव के ये दोनों ही श्मशान सरकारी हैं इनके विकास में पंचायत की ही राशि खर्च होती है लेकिन इसके वावजूद उंची जाति के श्मशान क्षेत्र में बने समाजघर को सवर्ण धर्मशाला के नाम से जाना जाता है। इस धर्मशाला पर यह साफ लिखा हुआ है। मालवीय कहते हैं कि गांव में अब जाति को लेकर बैर तो हैं लेकिन और दूसरे विवाद न हों इसके लिए वे इन मामलों पर ज्यादा नहीं बोलते। हमने इस सवर्ण धर्मशाला को लेकर गांव के उंची जाति के लोगों से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इस बारे में जानकारी होने से ही इंकार कर दिया।

हरसोला के नज़दीक ही दतौदा गांव है। यह गांव जातिगत विवादों के लिए बदनाम रहा है। गांव में अक्सर दलितों और सवर्ण समाज के लोगों के बीच विवाद होते रहे हैं। बीते साल मार्च में भी यहां एक विवाद हुआ जिसे जातिवाद से जोड़कर देखा जा रहा है। मई 2019 में यहां एक दलित समाज की दूल्हे पर शराब की बोतलें फेंकी गईं इसके बाद मारपीट हुई। यहां के युवक बताते हैं कि अक्सर उनके समाज की बारात जब गांव से निकलती है तो बिजली गुल हो जाती है। एक युवक ने नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया कि अब सवर्ण और पिछडे समाज के लोग दलितों को इसी तरह से दबाने की कोशिश करते हैं हालांकि वे कहते हैं कि यह स्थिति पहले से ठीक है जब बारात पर हमले हो जाया करते थे।

इस व्यवहार के बाद दलित समाज के नौजवान भी इस निराश दिखाई देते हैं। यहां भी एक स्थान पर डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा लगाई गई है और अब अक्सर यहां समाज के कुछ युवा बैठकें करते हैं। गांव की इन बैठकों में अक्सर शामिल होने वाले बामसेफ के प्रदीप चौहान कहते हैं कि आंबेडकर की इस प्रतिमा युवाओं के लिए सबसे सुरक्षित आश्रय है क्योंकि यहां उनके मन में डर नहीं होता।

इसी क्षेत्र में मेमदी गांव भी है यहां भी दलितों और उंची जाति वाले नागरिकों के लिए अलग-अलग श्मशान हैं। यहां इसे लेकर झगड़ा हो चुका है लेकिन गांव के लोग अब इस व्यवस्था को अपना चुके हैं और इस पर बात करना नहीं चाहते।

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मेमदी गांव में दलित आदिवासी समाज के लिए श्मशान

नज़दीक ही यहां एक और आंबाचंदन नाम का गांव है। यहां रहने वाले लीलाधर मालवीय सामान ढ़ोने वाली एक गाड़ी चलाते हैं। लीलाधर से जब हम मिलने पहुंचे तो वे तीर्थ स्थानों की यात्रा से लौटकर आए अपने मातापिता के सम्मान में एक कार्यक्रम कर रहे थे।  इस कार्यक्रम में केवल उनके ही समाज के लोग शामिल थे। हालांकि लीलाधर स्पष्ट करते हैं कि उन्होंने गांव के दूसरे लोगों को बुलाया ही नहीं था। इसकी वजह पूछने पर वे बताते हैं कि अगर वे बुलाते तो भी वे नहीं आते इसलिए नहीं बुलाया।

लीलाधर कहते हैं कि उनकी भगवान में बहुत आस्था है और नियमित पूजापाठ करते हैं लेकिन गांव में जो मंदिर है वहां अक्सर ताला लगा रहता है क्योंकि वह सवर्ण समाज के लोगों का मंदिर है। ऐसे में उन्होंने अब अपना एक अलग मंदिर पीपल के पेड़ के नीचे बना लिया है।  इसी स्थान पर हमें संदीप मिलते हैं। संदीप एक वेडिंग फोटोग्राफर हैं और अपना यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं। एक फोटोग्राफर के तौर पर स्थानीय स्तर पर उनकी अच्छे फोटोग्राफर के रुप में पहचान है।

संदीप बताते हैं कि उन्हें ज्यादातर दलित समाज की शादियों में ही बुलाया जाता है। सवर्ण समाज उन्हें अपनी शादियों में नहीं बुलाता क्योंकि वे बलाई जाति से हैं जिसे नीची जाति माना जाता है। वे बताते हैं कि सवर्ण समाज जाति को लेकर बहुत संवेदनशील है। संदीप आगे बताते हैं कि कुछ समय पहले उनकी फोटोग्राफी के बारे में सुनकर उन्हें दतौदा गांव के एक सवर्ण परिवार ने उन्हें शादी में तस्वीरें खींचने का काम दिया और इसके लिए पांच हजार रुपये भी एडवांस दिये लेकिन इसके बाद उन्हें संदीप की जाति का पता चल गया फिर उन्होंने फोन करके संदीप को काम के लिए मना कर दिया। वे कहते  हैं कि जब उन्होंने  एडवांस के पैसे वापस करने के लिए कहा तो उनको दिए गए पैसे भी नहीं लिए गए।

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संदीप मालवीय

संदीप बताते हैं कि यह घटना उनके लिए एक मानसिक रुप से काफी परेशान कर गई क्योंकि उनकी जाति के कारण उन्हें काम नहीं मिला था। हालांकि ऐसा नहीं है कि  उन्हें उंची जाति का काम नहीं मिलता लेकिन गांव में ज्यादातर बार यही होता है। संदीप कहते हैं कि आज वे कई साल बाद गांव में उंची जाति के मंदिर में गए थे क्योंकि वे एक फोटोग्राफर थे और यहां लोगों को उनकी जाति का पता नहीं था वे कहते हैं कि अगर वे अकेले अपने गांव के मंदिर में जाएंगे तो उन्हें रोक दिया जाएगा। वे बताते हैं कि दलितों के लिए गांव में एक अलग मंदिर है। इसे बजरंगकुंड मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसके अलावे हरसोला की ही तरह यह जाति के हिसाब से श्मशान भी हैं।

संदीप, आंबाचंदन के ही रहने वाले हैं वे कहते हैं कि मंदिरों में दलितों को अक्सर रोका जाता है। वे कहते हैं कि सवर्ण समाज के लोग उन्हें हिन्दू मानते ही नहीं हैं लेकिन वे खुद को हिन्दू मानते हैं हालांकि वे कहते हैं कि जब ऐसा व्यवहार होता है तो मन दुखी होता है और कभी-कभी लगता है कि वे धर्म बदलकर बौद्ध धर्म अपना लें। संदीप कहते हैं कि उन्हें अपने गांव में भीतर जातिवाद केवल मंदिर और श्मशान में महसूस होता है वहीं गांव के बाहर शहर में उन्हें इससे कभी कोई खास फर्क़ नहीं पड़ा।

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मोहन राव वाकोड़े

महू में डॉ. आंबेडकर जन्मस्थली से दो दशकों तक सचिव के रुप में जुड़े रहे मोहन राव वाकोड़े कहते हैं कि महू या कहीं और सामाजिक भेदभाव में कोई कमी नहीं आई है समाज के कुछ लोगों को छोड़ दें तो समाज में नीची जाति के लोगों का एक तरह से हीन भावना से ही देखा जाता है और वे खुद भी इसका कई बार शिकार हुए हैं। वाकोड़े आजकल बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अभिनेता गगन मलिक द्वारा बनाई गई एक संस्था के साथ काम कर रहे हैं। यह संस्था देशभर में बौद्धधर्म का प्रचार कर रही है। वाकोड़े बताते हैं कि वे देख रहे हैं कि लोगों की बौद्ध धर्म में रुचि बढ़ी है और इनमें सबसे ज्यादा निम्न जाति वर्ग के लोग हैं और जिन्होंने अपने जीवन में सामाजिक-जातिगत भेदभाव का अनुभव किया है।

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प्रो. डीके वर्मा, आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय महू

महू में डॉ. बीआर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विवि भी है। यहां के समाजविज्ञानी डॉ. डीके वर्मा कहते हैं कि उनकी नजर में यह उंची जाति और नीची जाति के बीच का झगड़ा नहीं है बल्कि यह संसाधनों को साझा करने को लेकर शुरु हुआ झगड़ा है जिसके चलते पिछड़ों और एससी-एसटी समुदायों के बीच मनमुटाव बढ़ा है। वे कहते हैं कि उनके शोध के अनुसार जातिवादी झगड़ों में अब ज्यादातर झगड़ें इन्हीं संसाधनों के वजह से हो रहे हैं।

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बृजेश अमोनिया

ग्रामीण क्षेत्र के इतर महू शहर के एक नागरिक बृजेश अमोनिया से हमने इस बारे में बात की। बृजेश कई बड़े अख़बारों की मार्केटिंग टीम में रहे हैं। बृजेश बताते हैं कि उनका परिवार आर्थिक रुप से सक्षम रहा है लेकिन उनकी जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, वे बताते हैं कि अक्सर जाति का अहसास दिलाकर दलित समाज के लोगों को अपमानित करने की कोशिश की जाती है। यह नया नहीं है क्योंकि यह समाज का अंग रहा है और कई बार न चाहते हुए भी लोग ऐसा कर देते हैं।

बृजेश कहते हैं कि अख़बार के दिनों में उन्होंने देखा है कि अक्सर राजनेता सामाजिक एकता के नाम पर दलित समाज के लोगों के घर खाना खाने जाते थे और बहुत बार दलित परिवारों के रसोई घर में जाकर तस्वीरें खिंचवाते हैं।

बृजेश कहते हैं कि यह सब केवल बाहरी दिखावा है और यह करने वाले खुद भी ज्यादातर बार जातिगत मानसिकता से ग्रसित होते हैं। वे कहते हैं कि दलितों के घर की रसोई में खाना खाने से उनहें सम्मान नहीं मिलेगा बल्कि तब मिलेगा जब सवर्ण उन्हें अपने घरों की रसोई में ले जाकर सम्मान का अहसास दिलाएंगे यानी दलितों को उनकी जातिगत पहचान नहीं बल्कि एक नागरिक और सबसे जरुरी एक इंसान के तौर पर अपनाएंगे।

 

 

 



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