खत्म होने की कगार पर पान की खेती, मौसम और बाज़ार दोनों नहीं दे रहे किसानों का साथ


पान उत्पादक किसान दोहरी मार झेल रहे हैं। कोरोना में लगे लॉक डाउन के दौरान लोगों को गुटका खाने की आदत लग गई और पान का बाजार टूट गया फिर मौसम की अनियमितता ने भी भी नुकसान


ब्रजेश शर्मा
उनकी बात Updated On :

देश के विभिन्न पान उत्पादक क्षेत्रों में मध्यप्रदेश भी एक है। प्रदेश के कई जिलों नरसिंहपुर, कटनी, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा नर्मदापुरम, नीमच, मंदसौर आदि जिलों में पान की खेती होती है लेकिन अब यह खेती परेशानी में है। पान उगाने वाले किसान कहते हैं कि यह परेशानी कोरोना के समय पहले लॉकडाउन में साल 2020 में शुरू हुई थी और अभी भी बनी हुई है। इसके बाद से ही पान के कारोबार में आई मंदी से किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। इसी कारण से पिछले चार-पांच वर्षों में पान की खेती का रकबा 50- 55 हजार हैक्टेयर से घटकर एक चौथाई ही बचा है। किसान कहते हैं कि यही हाल रहा तो आने वाले दो-चार वर्ष में ही बचा खुचा रकबा भी काफी सिमट जाएगा।

खेती बाड़ी को लेकर गांव के बुजुर्ग किसान कहते हैं कि देश की खेती-किसानी उस अपंग की तरह है जो दो बैसाखियों पर टिकी है। इसकी एक बैसाखी मौसम है तो दूसरी बाजार। कोई थोड़ी भी गड़बड़ हुई तो किसान साल भर लड़खड़ाता है। पान के किसान चार सालों से लड़खड़ा रहे हैं। न तो उनका साथ मौसम दे रहा है और न ही बाजार। ऐसे में किसान अब इस खेती को छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं।

 

पान की खेती करने वाले  36 साल के सचिन चौरसिया बताते हैं कि “पान की बिक्री कोरोना के बाद से इतनी कमजोर हो गई है कि 2- 3 साल में ही इसकी खेती छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। पान उत्पादक किसान परेशान हैं, बिगड़े मौसम और ठप हुए बाजार ने उनके व्यवसाय की कमर तोड़ दी है। पहले इस खेती से अच्छी आमदनी होती थी पच्चीसों मजदूर इसमें लगे रहते थे उनका जीवन यापन भी होता था लेकिन कोरोना के बाद से यह सब बंद हो गया। कोरोना के वक्त तो कई परिवारों के चूल्हे तक नहीं जले।” 

जलवायु परिवर्तन से पिछले दो-तीन सालों में तो मौसम किसानों का बिल्कुल भी साथ नहीं दे रहा है । साल भर हर महीने किसी न किसी तारीख में मौसम विभाग या हर जिले के भू – अभिलेख कार्यालय ने बारिश दर्ज की है। बेमौसम बारिश, आंधी-तूफान और ओलावृष्टि किसानों के लिए फजीहत का कारण हैं।

तेज बारिश और कई स्थानों पर हुई ओलावृष्टि, तेज हवाओं ने किसानों को तंग कर दिया। कट कर रखी हुई फसल पानी में भीग गई। इसी आंधी तूफान में ग्राम निवारी पान के एक किसान शिवनारायण (65 ) का पान बरेजा बुरी तरह क्षितग्रस्त हो गया और पान की फसल भी खत्म हो गई। अब  शिवनारायण की मजबूरी है कि अब उनके पास पैसे नहीं है कि वह बांस- बल्ली, रस्सी, ग्रीन नेट आदि फिर खरीदें और बरेजे को खड़ा कर सकें।

इसके बाद से उनका हाल पूछने कोई नहीं आया। उनका टूटा बरेजा जस का तस पड़ा रहा। दोपहर बाद वह खेत पर आते और टूटी , गिरी हुई लकड़ियों को निकाल कर उन्हें जमाने का काम करते हैं। लगभग एक सप्ताह गुजर जाने के बाद भी आंधी से गिरे बरेजे को वह उठा नहीं सके थे। शिवनारायण कहते हैं कि उनके दोनों बच्चे मजदूरी करने नरसिंहपुर जाते हैं इसलिए उन्हें समय नहीं मिलता। अगर वह इसमें लगेंगे तो मजदूरी नहीं मिलेगी तो घर परिवार कैसे चलेगा।

पान की खेती से कई गांवो की पहचानः

नरसिंहपुर जिले में पान की खेती ग्राम निवारी, पीपरपानी , बारहाबड़ा आदि गांवो में होती है। यह गांव पान की खेती के लिए ही जाने जाते हैं। शायद इसलिए ग्राम निवारी का पूरा नाम निवारी पान है।  निवारीपान की आबादी करीब 4 हजार है। इसमें 100 परिवार ऐसे हैं जिनके जीवन यापन का साधन उनकी परंपरागत पान की खेती ही है।   सामान्य रूप से यह परिवार छोटे रकबे वाले यानी लघु सीमांत किसान हैं। जिनके पास औसतन दो से चार एकड़ खेती ही है। कई किसानों के पास इससे कम यानी करीब एक एकड़ ही खेती है जिसमें वे पान उगाते हैं।  यही हाल ग्राम पीपरपानी और बारहाबड़ा के किसानों का है।

ग्राम बारहाबड़ा के एक किसान सरल सोनी कहते हैं कि अप्रैल के पहले मार्च में बारिश और तेज हवाओं, ओलों से उनकी फसल तबाह हो गई। इसके पहले जनवरी के दूसरे पखवाड़े में जबरदस्त ठंड से उनके पान के पत्ते तुषार, पाले से ग्रस्त होकर झुलस गए। उनके खेत के एक हिस्से में लगी मसूर भी शत प्रतिशत नष्ट हो गई लेकिन सर्वेक्षण के लिए कोई नहीं आया।

 

ग्राम निवारी के किसान मिथिलेश चौरसिया कहते हैं कि मौसम के साथ-साथ बाजार भी उनके अनुकूल नहीं रहा।  कोरोना के वक्त लॉकडाउन में प्रतिबंध के कारण पान की बिक्री बंद तो हो गई लेकिन चोरी छुपे गुटके पाउच बिकते रहे। 20-20 रुपए के गुटके 50 और 100 रु तक में बिके। धीरे-धीरे लोग गुटके पाउच की लत के शिकार हो गए। तब से पान खाने के शौकीनों की संख्या कम होती गई। जिससे कई पान की दुकानें बंद हो गईं। पान की खपत कम होने से व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हो गया। मिथिलेश बताते हैं कि कोरोना के पहले से उनके खेत के पान नरसिंहपुर जिले के स्थानीय बाजार की पूर्ति तो करते ही थे इसके अलावा सागर, इटारसी, पिपरिया जबलपुर भी जाते थे। पान की खूब मांग रहती थी। यहां देसी किस्म का बंगला पान अच्छा होता है लेकिन कोरोना के बाद से गुटका पाउच का व्यवसाय करोड़ों का और पान का व्यवसाय चंद हजार रु का रह गया है।

किसान मिथिलेश के अनुसार कटनी, सतना, पन्ना आदि क्षेत्र के पान उत्तरप्रदेश तरफ और नीमच, मंदसौर जिले के पान महाराष्ट्र के बाजार में जाते थे लेकिन अब कोरोना के बाद से यह खपत घटकर 15 से 20 फीसदी ही रह गई है, इसलिए अब बहुत से किसान पान की खेती को छोड़ना चाहते हैं।

ग्राम निवारी के एक अन्य किसान मोतीलाल चौरसिया कहते हैं कि “पान की खेती बाजार और मौसम पर टिकी है पान नाजुक फसल है, जिसे बच्चे की तरह सहेजने की जरूरत पड़ती है। यह फसल ना तो ज्यादा गर्मी बर्दाश्त कर पाती और ना ही ठंड। बेमौसम बारिश और आंधी तो इसके दुश्मन ही हैं और अब मौसम में आ रहे बदलाव का असर उनकी खेती बाड़ी पर गंभीर दिखाई देता है। लागत बढ़ने , बिक्री कम होने और कई मुश्किल आने से नई पीढ़ी का रुझान इस खेती पर नहीं है।”

वे कहते हैं कि पान की खेती के लिए एक नियंत्रित तापमान की जरूरत होती है। जिसके लिए किसान बरेजे बनाते हैं, बरेजे यानी पान की खेती का एक वुड हाउस की तरह होता है जिसमें मूल रूप से लकड़ी का उपयोग होता है। यहां तापमान काफी कम होता है और यह पान की फसल के लिए आदर्श परिस्थितियां बनाता है लेकिन अब बरेजे के अंदर भी तापमान को नियंत्रित करना कठिन हो रहा है क्योंकि तापमान पहले से अधिक है।

कृषि विज्ञान केंद्र नरसिंहपुर के वैज्ञानिक डॉ. एसआर शर्मा (पादप संरक्षण विशेषज्ञ) कहते हैं कि पान की खेती के लिए जो बरेजे बनते हैं, उससे तापक्रम माइक्रो क्लाइमेट के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्सियस रखना पड़ता है। ठंड में तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से कम होने लगता है तो पत्तियां झुलसने ने लगती हैं। पत्तियों में सिकुड़न और कालापन आने लगता है। नमी भी निश्चित रखनी होती है अन्यथा पान की बेल की जड़ें सड़ने लगती हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार पान ज्यादा कीटनाशक भी बर्दाश्त नहीं कर पाता।

बरेजे के लिए बांस – बल्ली, रस्सी , ग्रीन नेट,घास फूस की जरूरत पड़ती है। पान की बेल को संभालने के लिए लंबी-लंबी लकड़ियों का सहारा देना पड़ता है। इसका बंदोबस्त करना भी अब ऐसे किसानों के लिए टेढ़ी खीर ही है। वन विभाग के डिपो में अक्सर बांस मिलना कठिन होता है, विशेष तौर पर मार्च, अप्रैल और जुलाई के वक्त जब फसल लगाई जाती है तब डिपो में बांस नहीं मिलते।  ऐसे में किसानों को आसपास के जंगलों या दूरदराज के डिपो से या फिर कभी कभार सूपा ,टोकनी बनाने वाले वंशकारों या अन्य किसानों से ज्यादा दाम देकर खरीदने पड़ते हैं। ज़ाहिर तौर पर ऐसे में ज्यादा दाम देना होता है और इसके साथ ही लागत भी बढ़ जाती है।

एक अन्य किसान ताराचंद चौरसिया कहते हैं कि बांस – बल्ली का जुगाड़ करना कठिन हो जाता है। डिपो में उस वक्त मिलते हैं जब उनकी जरूरत खत्म हो जाती है। ताराचंद बताते हैं कि ग्रीन नेट और रस्सी के दाम भी पिछले दो सालों में 30 से 35 फ़ीसदी बढ़े हैं, इनमें जीएसटी भी लगता है, इसलिए लागत बढ़ रही है खपत कम होने से अब खेती में कोई फायदा नहीं है।

निवारी, पीपरवानी और बारहाबड़ा गांव में पान की खेती प्रायः किसान परंपरागत तौर पर कर रहे हैं। इन किसानों को यह खेती विरासत में मिली है, जैसा कि पीपरपानी के गोविंद पसारी कहते हैं कि इस फसल से अब कोई फायदा नहीं है लेकिन बाप- दादा करते आ रहे हैं इसलिए आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन यह कब तक ? आने वाली पीढ़ी तो देर सबेर इससे किनारा करेगी ही।

विरासत में मिली पान की खेती को 20 साल से संभाल रहे माखन चौरसिया (58) कहते हैं कि पान बिक्री बची नहीं, इसलिए कोरोना के बाद से एक एकड़ में होने वाली खेती को आधा एकड़ में कर दिया है।अब बच्चे कहते हैं कि इसे बंद कर दो, दूसरी फसल लगाओ, जिसमें फायदा हो। यहां के किसान पान के बरेजों में परबल और कुंदरू की बेल भी लगाते हैं ताकि आमदनी का कुछ जरिया बना रहे। दोनों सब्जी फलों के दाम बाजार में अच्छे मिलते जरूर है लेकिन यह बेल भी पान की तरह ही नाजुक होती है जिससे उपज कम होती है।

बीमा योजना में शामिल नहीं पान की खेतीः पान की खेती को प्रधानमंत्री बीमा योजना का लाभ नहीं मिल पाता, चूंकि यह फसल हॉर्टिकल्चर यानी उद्यानिकी के तहत है इसलिए इसे आरबीसी 6 – 4 के तहत ही लाभ मिल पाता है लेकिन अधिकांश किसान इसके प्रावधानों के कई मानकों की वजह से राहत से वंचित हो जाते हैं।  पान के किसान मिथलेश अपनी आपबीती बताते हैं कि तुषार पाले से क्षतिग्रस्त हुई फसल के आकलन के लिए पटवारी मैडम आईं लेकिन वह मौके पर नहीं मिल पाए तो उन्होंने कागज में ज्यादा नुकसान नहीं बताया, 50,- 60 फीसदी नुकसान लिखा और चली गईं जबकि फसल पूरी तरह प्रभावित हुई । इससे क्षतिग्रस्त प्रभावित फसल का एक पैसा भी नहीं मिल पाया है।

मध्य प्रदेश पान उत्पादक संघ के प्रदेश अध्यक्ष बसंत चौरसिया कहते हैं कि उद्यानिकी की फसल को आरबीसी 6 – 4 के तहत ही राहत मिलने की प्रावधान है। मौसम की मार और पान की बिक्री में आई कमी की वजह से अब इसकी खेती प्रदेश भर में घट गई है। पहले 50 – 55 हजार किसान यह खेती करते थे जिनकी संख्या अब घटकर सिर्फ 12 से 15 हज़ार रह गई है। अगर हाल यही रहा तो आने वाले समय में यह खेती भी बंद हो जाएगी।

चौरसिया आगे कहते हैं कि पान की खेती को संरक्षण की जरूरत है। राज्य सरकार कुछ इस तरह की ठोस नीति बनाए कि किसान प्रोत्साहित होकर इस तरह की खेतीबाड़ी से जुड़े रहें अन्यथा वह दिन अब दूर नहीं कि दो – चार साल में पान की खेती पूरी तरह बंद करने की नौबत आ जाए। वे कहते हैं कि कोरोना के बाद से पान किसान गंभीर आर्थिक संकट में हैं, टूटे हुए हैं। प्रदेश भर में पान किसानों की स्थिति गंभीर है इसलिए सरकार को पान की खेती और उसकी कई किस्म को बचाने के लिए जल्दी निर्णय लेना होगा।


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