यह एक ऐसा सवाल है जो मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के बाहर के लोगों को परेशान कर रहा है। आखिर क्या वजह है कि भाजपा का प्रदेश संगठन और पूरी सरकार इस एक सीट को लेकर हलकान हुई जा रही है। प्रदेश में कोरोना की दूसरी लहर ने तांडव मचाया हुआ है। सरकार और इसके मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की जबर्दस्त किरकिरी हो रही है और वाकई लोग बेहद परेशान हैं. इसलिए सरकार की छवि में तेज़ी से गिरावट हो रही है। यहाँ तक कि भाजपा और शिवराज को निजी तौर पर पसंद करने वाले लोग भी अब यह कहने लगे हैं कि शिवराज सिंह चौहान जितना सत्ता लोभी इंसान नहीं देखा।
कोरोना की दूसरी लहर ने पिछले साल के तमाम घटनाक्रम को लोगों के दिल दिमाग में फिर से ताज़ा कर दिया है। एक समय तक हिंदुस्तान में कोरोना की दस्तक के लिए भले ही मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के नाटकीय घटनाक्रम को जिम्मेदार मनाने से बचते रहे हों, लेकिन वह भी खुलकर इस बात का इज़हार करने लगे हैं कि शिवराज की सत्ता की हवस ने पूरे देश को कोरोना के अथाह संकट में डाला था और एक साल बाद भी इन्होनें अपनी गलतियों से कोई सीख नहीं ली ।
बहरहाल यह देखना और समझना ज़रूरी है कि यह एक सीट भाजपा और शिवराज सिंह के लिए क्यों इतनी जरूरी है कि पूरे देश के नागरिकों की जान को सांसत में डालकर भी यहाँ पूरा ज़ोर लगाया जा रहा है। मुख्य विपक्षी दल, कांग्रेस भी हालांकि चुनाव अभियान में पीछे नहीं है। जबकि उसे अगर यह सीट मिल भी गयी उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला। इस सीट का कोई फैसलाकुन महत्व नहीं है। इससे न तो सत्ता की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला है और न ही विपक्ष के। फिर भी इतना ज़ोर आजमाइश क्यों हो रही है?
मध्य प्रदेश विधान सभा की मौजूदा स्थिति अगर देखें तो इस समय सरकार के पास यानी भाजपा के पास कुल 126 विधायक हैं और विपक्ष की पार्टी यानी कांग्रेस के पास 96 विधायक है। सरकार बनाने के लिए ज़रूरी आंकड़ा 114 का है।
कांग्रेस को तो खैर अपनी पुरानी ज़मीन वापिस पाना है और इसके माध्यम से बुंदेलखंड में खोई ज़मीन को नए सिरे से तलाशने की कोशिश करना है। यह देखना और समझना दिलचस्प है कि कांग्रेस इस एक सीट के माध्यम से बुंदेलखंड में अपने लिए नयी ज़मीन बना रही है। जब से बी. डी. शर्मा भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने हैं और नरोत्तम मिश्रा सत्ता परिवर्तन के बाद इस सरकार में नंबर दो की हैसियत में पहुंचे हैं, तब से भाजपा के अंदर सांगठनिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। शिवराज सिंह चौहान के अपने पाँवों के नीचे से ज़मीन खिसकती जा रही है। नरोत्तम मिश्रा और बी. डी. शर्मा की जुगलबंदी मोटे तौर पर केंद्र में देखी जा रही नरेंद्र मोदी और शाह की जुगलबंदी का ही मजबूत जोड़ बनते दिखलाई पड़ रहा है। यहाँ भी क्षेत्रीय और जातीय समीकरण इसकी बुनियाद में हैं।
कहा जा रहा है कि बंगाल चुनाव के बाद मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री बदला जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि शिवराज सिंह की मुख्यमंत्री पद से विदाई को उनके हमेशा के लिए राजनीतिक संन्यास की घोषणा में भी बदली जा सकती है। वजह साफ है कि कोरोना में जनता को राहत न दे पाने की गंभीर तोहमत के बाद केंद्रीय नेतृत्व एक नैतिक कदम बताते हुए उन्हें विदा कर सकती है। इस खाली जगह को भरने के लिए जहां एक तरफ बी. डी. शर्मा और नरोत्तम मिश्रा की जुगलबंदी बेचैन है, तो दूसरी तरफ बुंदेलखंड के दो दिग्गज ओबीसी नेता अपनी दावेदारी भी पेश कर रहे हैं।
एक नया लेकिन हमेशा से प्रासंगिक रहा फैक्टर उमा भारती हैं और उनके साथ मौजूदा संस्कृति व पर्यटन मंत्री प्रहलाद पटेल की पुरानी और भरोसेमंद जुगलबंदी है। उमा भारती भाजपा में अप्रासांगिक हो चुकीं हैं। राम मंदिर के मामले में भी उनकी कोई ज़रूरत नहीं रही और फिलवक्त भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में उन्हें जबरन सेवानिवृत करवा दिया है।
प्रहलाद पटेल उनके भरोसेमंद सिपहसालार रहे हैं। जब उमा भारती ने भाजपा छोडकर लोक जनशक्ति पार्टी बनाई थी तब जाने माने चेहरों में एक मात्र प्रहलाद पटेल ही थे जो उनके साथ पार्टी से बाहर निकल आए थे और अंत तक उनके साथ बने रहे थे। इसमें राजनीति या उसूलों से ज़्यादा महत्व जाति और अंचल का था।
उमा भारती और प्रहलाद पटेल दोनों बुंदेलखंड अंचल से हैं और लोधी बाहुल्य इस इलाके के नेता हैं। दमोह सीट भी लोधी बाहुल्य क्षेत्र में है। इस उपचुनाव में राहुल सिंह लोधी भाजपा की तरफ से प्रत्याशी हैं जो 2018 में कांग्रेस की तरफ से चुनाव जीते थे और 28 सीटों पर हुए निर्णयाक उप चुनावों के दौरान ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे। अगर थोड़ा पहले पार्टी बदलते तो अभी दमोह में उप चुनाव नहीं हो रहे होते। लेकिन भाजपा तब उप-चुनावों में जीत के लिए इतनी आश्वस्त नहीं थी इसलिए उसकी कोशिश रही कि कांग्रेस के विधायकों की संख्या कम से कम की जाये। उसी रणनीति के तहत तमाम प्रलोभनों के बाद राहुल सिंह लोधी से इस्तीफा करवाया गया था। आज फिर वही राहुल सिंह लोधी भाजपा के टिकट पर उसी जनता के सामने खड़े हैं जिसने उन्हें महज़ ढाई साल पहले कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जिताकर विधानसभा में भेजा था।
राहुल सिंह को पुन: विधायक बनवाना भाजपा की मजबूरी भी है और प्रत्याशी से किया गया वादा भी है। राहुल सिंह लोधी भले ही सरकार की सेहत पर कोई असर न छोड़ पाएँ लेकिन उन्हें अपने पाले में रखना भाजपा की तमाम अंदरूनी ताकतों की ज़रूरत भी है और मजबूरी भी।
जैसा की अटकलें लगाई जा रही हैं कि मध्य प्रदेश में निजी तौर पर विधायकों की खरीद फरोख्त का एक और खेल निकट भविष्य में होगा हालांकि इस बार सरकार भाजपा की ही रहेगी लेकिन मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के बीच विधायक दल का नेता चुने जाने के लिए विधायकों को खरीदा जा सकता है।
प्रहलाद पटेल, उमा भारती की शह पर मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार हैं। प्रहलाद पटेल का कद इस लिहाज से भाजपा में बढ़ भी गया है कि वो इस वक़्त काबिनेट में मंत्री हैं, लेकिन केंद्र सरकार में व्यावहारिक रूप में किसी का कोई महत्व न होने से आहत और लंबी राजनैतिक पारी खेलने के लिए प्रहलाद पटेल तैयार हैं। दमोह सीट बिना लोधी वोटों के जीती नहीं जा सकती इसलिए इस सीट के लिए जहां प्रहलाद पटेल ज़रूरी हैं वहीं उमा भारती की ज़रूरत को कम से कम बुंदेलखंड में अभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता लेकिन असली खेल यहाँ ब्राह्मण बर्चस्व को खत्म करने ले लिए भी रचा जा रहा है।
गोपाल भार्गव जैसे वरिष्ठ नेता, प्रहलाद लोधी के कद के सामने बौने साबित हो चुके हैं या कर दिये गए हैं। एक समय शिवराज सिंह चौहान के पुख्ता विकल्प माने जा रहे गोपाल भार्गव को नए नवेले संघ दीक्षित भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बी. डी. शर्मा के मार्फत किनारे करवाया गया और बाज़ी नरोत्तम मिश्रा ले गए। यह नयी संधि गोपाल भार्गव के लिए शर्म का सबब बन गयी है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि गोपाल भार्गव कल को भाजपा में न रहें। वैसे भी अपने बेटे के राजनैतिक भविष्य के लिए वो कांग्रेस की परिक्रमा कर रहे हैं।
जयंत मलैया, एक समय दमोह में भाजपा के लिए अपरिहार्य हुआ करते थे जो इस उप-चुनाव में खुद को कोरोना के बहाने किनारे होने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि प्रदेश भाजपा ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और कहा जा रहा है कि जबरन उनके घर के बाहर एक हेलिकॉप्टर खड़ा कर दिया गया है । चेतावनी दी गई है कि अगर भाजपा नहीं जीती तो 35 सालों के कारनामे बाहर आने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा।
इस सबके बीच कांग्रेस इस अंतर्कलह का न केवल मज़ा ले रही है बल्कि अपनी ज़मीन पर पुनर्दखल करने की कोशिश भी करती नज़र आ रही है। दिलचस्प ये है कि कांग्रेस के लिए इस बार कई दिग्गज भाजपा नेता भी दबी जुबान से प्रचार करते नज़र करते नज़र आ रहे हैं। कांग्रेस को इस एक सीट से सत्ता हासिल नहीं होने जा रही है, लेकिन इस सीट पर ताक़त दिखाने से भाजपा के अंदरूनी झगड़े बढ़ाने की कवायद रंग लाती नज़र आ रही है।
जनता का रुख भाजपा के स्पष्ट खिलाफ है और राहुल सिंह लोधी को कोई पसंद नहीं कर रहा है। लोगों का साफ कहना है कि हमने तो तुम्हें ही चुना था न? अब दोबारा तुम्हें ही चुन लेने से हमें क्या फायदा? मामला यहाँ भी टिकाऊ और बिकाऊ के बीच अटक जा रहा है। कांग्रेस की तरफ से प्रत्याशी अजय टंडन को लोग राहुल लोधी की तुलना में ज़्यादा पसंद कर रहे हैं और उसकी वजह केवल राहुल सिंह द्वारा दिया गया धोखा है।
हाल ही में केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना ने बुंदेलखंड में आने वाले विकास की हवा बनाई है, लेकिन लोग इस परियोजना के खतरों से वाकिफ हो रहे हैं और मध्य प्रदेश में इसके प्रभावित क्षेत्र में इसका विरोध होना शुरू हो गया है। मूल रूप से यह परियोजना मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में पन्ना, छतरपुर व टीकमगढ़ से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ी है । लेकिन चूंकि इस परियोजना में पन्ना टाइगर रिज़र्व का कोर क्षेत्र प्रभावित होगा और इसकी भरपाई के लिए दमोह जिले में अवस्थित रानी दुर्गावती व नौरादेही अभ्यारण्य का दायरा बढ़ाया जा सकता है और एक बड़ा कॉरीडोर बनाने का प्रस्ताव भी लाया जा सकता है इसलिए दमोह के लोग भी इस परियोजना के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह पा रहे हैं।
इन्हीं परिस्थितियों से कांग्रेस को इस इलाके में अपनी खोई ज़मीन पाने का सुनहरा अवसर दिखलाई पड़ रहा है।
दमोह सीट जहां नाक का सवाल किसी के लिए नहीं है, लेकिन जिस शिद्दत से यह उप चुनाव लड़ा जा रहा है इससे यह बात साफ है कि प्रदेश सरकार व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ माहौल बनने लगा है। शिवराज सिंह चौहान सोते-जागते अपने पाले के विधायकों की गिनती कर रहे हैं, तो कांग्रेस इस मिजाज से खुश होकर उनके लिए दमोह सीट को हासिल करना मुश्किल बनाती जा रही है।
(आलेख वेबसाइट न्यूजक्लिक से साभार ली गई है)