क्या है विद्युत संशोधन विधेयक 2022 में ख़ास, क्यों हो रहा है इसका विरोध, क्या कहना है विशेषज्ञों का?


सरकार कह रही है कि यह सारी चीजें नियमों के मुताबिक निर्धारित की जाएंगी मगर वे नियम क्या होंगे, इसे लेकर अभी कुछ भी साफ नहीं है।


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कंपनियों को प्रवेश देना चाहिए लेकिन मेरा मानना है कि यह एक छिछली सोच है क्योंकि इंडियन ऑयल और कोल इंडिया ने कई निजी कंपनियों के मुकाबले कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है।

उन्होंने कहा कि निजी वितरण कंपनियों की आमद इस बात की गारंटी नहीं है कि बिजली के दामों में कमी आएगी या ऊर्जा उत्पादन एवं वितरण दक्षता बढ़ेगी। पिछली 8 अगस्त को संसद में पेश किए गए विद्युत (संशोधन) विधेयक में इस बात का भी जवाब नहीं दिया गया है कि निजी कंपनियां क्रॉस सब्सिडी के रूप में मिलने वाले मुनाफे को सरकारी वितरण कंपनियों के साथ साझा करने को तैयार होंगी या नहीं। मेरी मुख्य चिंता यह है कि इससे वर्टिकली इंटीग्रेटेड सिस्टम पर क्या असर पड़ेगा। क्या हम निजी कंपनियों के संभावित एकाधिकार के समाधान के मुद्दे पर भी सोच रहे हैं। क्या इससे बचने के कुछ उपाय किए गए हैं।

स्वाति ने प्रतिस्पर्धा को बिजली की कीमतों में गिरावट लाने के मुद्दे पर केंद्रित करने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि अमेरिका में बिजली उत्पादन और वितरण एक कारोबार है लेकिन वहां प्रतिस्पर्धा इस बात की है कि कैसे अपने टैरिफ को और कम किया जाए।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में प्रोफेसर डॉक्टर आर. श्रीकांत ने प्रस्तावित विधेयक को छलावा करार देते हुए कहा कि इस बिल में वितरण प्रणाली की समस्याओं को पहचानने की कोशिश नहीं की गई है। उन्होंने कहा कि पूर्व में पारित प्रस्तावों में स्वतंत्र नियामक का लक्ष्य था लेकिन सच्चाई यह है कि यह नाकाम रहा और पूरा बिजली तंत्र नौकरशाहों की जकड़ में रहा। हमने पिछले कुछ वर्षों में देखा है कि ऊर्जा मंत्रालय ने केंद्रीय नियामक आयोग को एक बॉस की तरह निर्देश दिए हैं।

पिछले दिनों कंपनियों को कोयला आयात बढ़ाने को कहा गया। मुश्किल यह है कि नियामकों की स्वतंत्रता को रोका गया। मुख्य समस्या यह है कि हमारे पास इंडिपेंडेंट रेगुलेशन नहीं है इसी वजह से हम इतनी मुश्किल स्थिति का सामना कर रहे हैं।

प्रोफेसर श्रीकांत ने कहा कि मौजूदा सरकारी वितरण कंपनियां बहुत ही दयनीय स्थिति में हैं। प्रस्तावित विधेयक से उनकी हालत और भी ज्यादा खराब हो जाएगी। इस विधेयक के कानून बनने पर उन्हें अपने तंत्र को निजी कंपनियों के साथ साझा करना पड़ेगा जो सरकारी वितरण कंपनियों को 10 पैसे प्रति यूनिट की दर से कीमत चुका कर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों को नहीं बल्कि सक्षम उपभोक्ताओं को ही बिजली देंगी।

सवाल यह है कि इससे बराबरी वाली बात कैसे रहेगी। सरकारी स्वामित्व वाली वितरण कंपनियां गरीब से गरीब उपभोक्ता को भी बिजली दे रही हैं और मध्यम वर्ग तथा उच्च आय वर्ग के उपभोक्ताओं को निजी कंपनियां अपने दायरे में ले लेंगी। ऐसा होने से पहले से ही संकट से गुजर रही सरकारी वितरण कंपनियों के लिए और भी बुरी स्थिति पैदा हो जाएगी और वे धीरे-धीरे करके मर जाएंगी। यह सबसे बेहतरीन टाइम है कि वितरण कंपनियों का पीपीपी मॉडल पर निजीकरण किया जाए।

लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरमेंट की सीनियर एडवाइजर अश्विनी चिटनिस ने कहा कि विद्युत (संशोधन) विधेयक 2022 में स्पष्टता की बहुत कमी है। यह बिल संघीय ढांचे की भावना के अनुरूप भी नहीं है। इसमें मल्टीपल लाइसेंसिंग की बात कही जा रही है लेकिन इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है कि आपूर्ति के क्षेत्र को किस तरह परिभाषित किया जाएगा।

इस विधेयक में यह जाने बगैर प्रतिस्पर्धा की बात की जा रही है कि सीलिंग और फ्लोर टैरिफ किस तरह से निर्धारित किए जाएंगे। सरकार कह रही है कि यह सारी चीजें नियमों के मुताबिक निर्धारित की जाएंगी मगर वे नियम क्या होंगे, इसे लेकर अभी कुछ भी साफ नहीं है।

उन्होंने कहा कि अनेक ऐसे बहुत महत्वपूर्ण पहलू हैं जो बेहद बुनियादी हैं लेकिन उन्हें इस विधेयक में अनुत्तरित छोड़ दिया गया है। सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि सरकार वर्ष 2014 से ही यह बदलाव करने पर विचार कर रही थी।

ऐसे में इस दशक के अंत तक ही शायद इस बात का अंदाजा लग सके कि इस कदम के क्या प्रभाव पड़ेंगे। इस विधेयक में कारोबार की व्यवहारिकता के मूलभूत मुद्दों को वाजिब तरीके से संबोधित नहीं किया गया है।

वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट के ऊर्जा नीति विभाग के प्रमुख तीर्थंकर मंडल ने कहा कि प्रस्तावित विद्युत संशोधन विधेयक पर व्यापक विचार विमर्श की जरूरत है। लोकसभा में पेश होने के बाद इस विधेयक को संसद की स्‍थायी समिति के पास भेजा गया है। इस विधेयक पर सभी हितधारकों के साथ बातचीत होनी चाहिये और विभिन्न पक्षों के सुझावों को स्‍थायी समिति के पास भेजा जाना चाहिए।

इस बिल को बिना किसी के साथ बातचीत के पेश कर दिया गया है। जहां तक निजीकरण की बात है तो यह सरकार और निजी पक्षों के बीच खींचतान का मामला नहीं है। हम पूर्व के मामलों को देखें तो पहले भी निजीकरण के प्रयोग अक्सर सफल नहीं हुए हैं।

मूलभूत मुद्दा यह है कि कौन लोग इस बिल को पेश कर रहे हैं। क्या वे ऊर्जा रूपांतरण का लक्ष्य रखते हैं। ऊर्जा सुरक्षा के मुद्दे बिजली की गुणवत्ता और विश्वसनीयता पर निर्भर करते हैं। सवाल यह है कि नियमन और नीति को लेकर हमारे पास तंत्र है। क्या यह बिल उसकी सुरक्षा करेगा? नए बिल में बिजली सुरक्षा के मुद्दे को क्या उस तरह से संबोधित किया गया है जैसा किया जाना चाहिए।

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में एनर्जी इकोनॉमिस्ट विभूति गर्ग ने प्रस्तावित विधेयक के विभिन्न पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा कि प्रस्तावित विधेयक के तहत निजी कंपनियां सरकारी नेटवर्क का कुछ चार्ज देकर इस्तेमाल कर सकेंगे।

आपूर्तिकर्ता के पास व्यक्तिगत अनुबंध पर हस्ताक्षर करने की आजादी होगी। कोई भी आपूर्तिकर्ता सिर्फ एक राज्य तक ही नहीं बल्कि एक से अधिक राज्य में भी सप्लाई कर सकेगा मगर डिस्कॉम को पेमेंट सिक्योरिटी नहीं दी जाएगी।

उन्होंने कहा कि कुछ श्रम संगठनों राजनीतिक दलों और किसानों ने इस प्रस्तावित बिल का विरोध किया है। अनेक निजी कंपनियों की वितरण कंपनियों के बाजार में आने के कारण सब्सिडी खत्म होने के डर से किसान इसका विरोध कर रहे हैं। श्रम संगठन भी निजीकरण के डर से इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे हजारों लोगों की नौकरी छूट जाएगी।

क्‍लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि विद्युत (संशोधन) विधेयक पर और अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है। यह इसलिये भी जरूरी है क्‍योंकि इसका असर देश के तमाम बिजली उपभोक्‍ताओं पर पड़ेगा। देश में उपभोक्‍ताओं के अलग-अलग वर्ग हैं, लिहाजा इस विधेयक में सबके हितों के संरक्षण का तत्‍व शामिल होना जरूरी है।

सौजन्य: क्लाइमेट कहानी



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