पंचायत में चलता है आलू चिप्स का अरबों का कारोबार, तरक्की और रोजगार के बीच करनी होगी पर्यावरण की चिंता


कोदरिया में आलू चिप्स के दो सौ से अधिक कारखाने हैं, यहां प्रदूषण के चलते नदी-नाले प्रभावित हो रहे हैं।


आदित्य सिंह
बड़ी बात Updated On :

इंदौर। करीब पांच दशक पहले राजस्थान से कुछ मज़दूर काम की तलाश में मध्यप्रदेश के इंदौर आए और यहीं बस गए। मज़दूरी में उन्हें अक्सर पैसों के साथ कुछ सब्ज़ियां मिलती थीं जिन्हें वे सुखाकर रख लेते थे बिल्कुल वैसे ही जैसे वे अपनी धरती पर करते थे। इंदौर के महू में आलू अच्छा होता था तो इन मज़दूरों को आलू ही मज़दूरी में मिलता था। जिसे इन्होंने काटकर सुखाकर रखना शुरु कर दिया जब इसकी मात्रा बढ़ती तो वे इसे बाज़ार में बेच देते। आज करीब पांच दशक बाद मज़दूरों का शुरु किया हुआ वह छोटा सा व्यापार दो सौ करोड़ रुपये से अधिक की एक इंडस्ट्री बन चुकी है। जिसने एक इलाके की किस्मत बदल दी है।

इंदौर की महू तहसील में कोदरिया नाम की पंचायत अपने चिप्स कारोबार के लिए जानी जाती है। यहां की हजारों एकड़ ज़मीन पर आलू चिप्स का ये कारोबार होता है। छोटे बड़े कारखानों की यह पंचायत इस व्यापार से फलती फूलती रही है। राजस्थान के उन मजदूरों की कई पीढ़ियां आज भी उस व्यापार से जुड़ी हुईं हैं तो बहुत से दूसरे किसान भी अब चिप्स कारोबारी बन गए हैं। हालांकि इतने सब के बाद भी आज तक इस कारोबार को किसी उद्योग का दर्जा नहीं मिला है और ऐसे में उद्योग की तरह सुविधाएं ही इन्हें मिली हैं।

मनोज सैनी कोदरिया में रही रहते हैं और अपने घर पर आने वाली बदबू से परेशान हैं। उनकी तरह कोदरिया पंचायत और आसपास की कई पंचायतों के अलावा महू शहर के लोग भी इस बदबू से परेशान हैं। जनवरी से अप्रैल तक तो यहां सुबह और रात को सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। इन तमाम परेशानियों के बावजूद सैनी कुछ कर नहीं सकते। ऐसा इसलिए क्योंकि यह सब आलू चिप्स कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी के कारण होता है और वे इन कारखानों के संघ के अध्यक्ष हैं।

मनोज सैनी, आलू पापड़ी कारखाना संघ के अध्यक्ष

मनोज कहते हैं कि “इस कारोबार से करीब बीस हजार से अधिक लोग सीधे तौर पर जुड़ते हैं और अप्रत्यक्ष तौर पर तो यह संख्या तीस हजार से भी अधिक हो जाती है। इस कारोबार ने इलाके को समृद्ध बना दिया है। आलू चिप्स को लेकर कोदरिया का नाम आज देशभर में जाना जाता है।“

 

नदी बन गई नाला…

महू के बीच से निकलने वाली गंभीर नदी अब नाला नज़र आती है। साल की शुरुआत से लेकर गर्मियों तक इस नदी के पास जाना भी मुश्किल होता है। काला बदबूदार और झागदार पानी इसे बेहद खतरनाक स्वरूप देता है कि कल्पना भी नहीं की जा सकती कि केवल दो दशक पहले तक इस नदी से कभी लोग अपने पीने और दूसरी जरुरतों का पानी लेते थे।

महू शहर से बहने वाली गंभीर नदी हो गई प्रदूषित

अब गंभीर नदी में एक बड़े इलाके का कचरा डाला जाता है। इसका यह हाल इसलिए हुआ क्योंकि इसमें आलू चिप्स कारखानों का पानी छोड़ दिया जाता है। खेतों में बने चिप्स कारखानों से पानी सीधे नाली में उतार दिया जाता है और वहां से नालों में और नालों से नदी में यह पानी पहुंच जाता है और प्रदूषित हो चुकी नदी को नाला समझ लिया जाता है और लोग इसमें अपनी गंदगी फेंकने लगते हैं। नालों में पानी पहुंचता है तो जमीनी पानी भी दूषित होता है। इलाके के कई बोरवेल में अब पानी खराब हो चुका है।

चिप्स कारखानों की पंचायत

कोदरिया पंचायत की आबादी करीब तीस हजार से अधिक है। इस पंचायत में करीब दो सौ से अधिक चिप्स कारखाने संचालित होते हैं। इसके अलावा आसपास की पंचायतों में भी कुछ कारखाने हैं। ये चिप्स कारखाने दूर से ही नज़र आ जाते हैं। कई एकड़ खेतों में सूखते आलू और आलू चिप्स के हल्के पीले रंग के बड़े-बड़े कई ढ़ेर दूर से दिखाई देते हैं।

 

मप्र के मालवा रीजन में आलू की बेहतरीन फसल होती है और ये आलू शुगर फ्री या कम शुगर वाला माना जाता है। यह आलू सामान्य इस्तेमाल के अलावा चिप्स बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद होता है। ठंड के मौसम के आख़िर में आलू निकलने के साथ ही चिप्स का मौसम शुरु हो जाता है। इस दौरान देशभर से व्यापारी मालवा के इलाकों में आलू खरीदने के लिए आते हैं वहीं कोदरिया में व्यापारियों की यह भीड़ चिप्स के लिए आलू तय करने के लिए आती है। ऐसे में ये चिप्स कारखाने केवल चार महीने यानी जनवरी से अप्रैल के बीच ही चलते हैं।

 

मज़दूरों के लिए रोज़गार का बड़ा ज़रिया  

इन कारखानों में आलू चिप्स के ढ़ेरों के बीच काम करते मजदूर भी दिख जाते हैं। इन मजदूरों को यहां केवल चार महीने लगातार काम मिलता है। इस दौरान प्रतिदिन 300 से लेकर 450 रुपये तक मजदूरी मिलती है। कई मजदूर यहीं कारखानों के आसपास खेतों में छोपड़ी बनाकर रहते हैं तो कई को कारखाना मालिकों रोजाना बुलाना होता है।

इनमें से हरेक कारखाने में कम से कम पचास मजदूर तो होते ही हैं लेकिन बड़े कारखानों में इनकी संख्या तीन सौ तक हो सकती है। ऐसे में इन कारखानों में करीब बीस हजार से अधिक मजदूरों को सीधे रोजगार मिलता है।

इनमें से मजदूर नज़दीकी आदिवासी बाहुल्य निमाड़ क्षेत्र से आते हैं। एक चिप्स कारखाने में खरगोन जिले से काम करने पहुंचे वीरेंद्र बताते हैं कि वे हर साल चार महीने के लिए पूरे परिवार के साथ महू आ जाते हैं। इस दौरान दोनों पति पत्नी को प्रतिदिन करीब 800 रुपये की मजदूरी मिलती है। वीरेंद्र की तरह उनके धार जिले से एक संतोषी बाई नाम की एक महिला मजदूर बताती हैं कि उनके गांव में स्थानीय स्तर पर कोई काम नहीं मिलता और मिलता भी है तो बस थोड़े दिन के लिए ऐसे में कोदरिया के आलू कारखानों में हर साल काम मिल ही जाता है। वे कहती हैं कि “चार महीने में वे इतना पैसा बचा लेती हैं कि उन्हें आगे परेशानी नहीं होती।“ वहीं कई मज़दूर तो यहां छह महीने तक रहते हैं वे पहले आलू के खेतों में काम करते हैं और फिर चिप्स कारखानों में।

बदबू से बेहाल हो जाते हैं लोग

आलू चिप्स कारखानों के वेस्ट वॉटर से आने वाली इस बदबू को मीलों दूर तक महसूस किया जा सकता है। महू शहर से सटी हुई गूजरखेड़ा पंचायत के लोग बताते हैं कि उनके यहां बदबू इतनी ज्यादा आती है कि कई बार घुटन महसूस होने लगती है। इसी पंचायत के बीच से गंभीर नदी गुजरती है। स्थानीय पत्रकार अरुण सोलंकी बताते हैं कि यहां हवा के संपर्क में नदी का पानी आता है तो यहां के एक मंदिर की मूर्तियों के रंग तक बदलने लगते हैं और यहां कई लोगों को सूंघने में अब परेशानी तक होती है।

गूजरखेड़ा के इस मंदिर में सुबह सुबह पूजा करने वाली प्रेमा बाई पांडे बताती हैं “बदबू परेशान करती है लेकिन अब इलाके के लोग इसके आदि होने लगे हैं हालांकि बाहरी मेहमान चिप्स कारखानों के संचालन के दिनों में उनके घरों में आना पसंद नहीं करते, बदबू अकेली परेशानी नहीं है बल्कि मंदिरों में रखे बर्तन भी इससे काले पड़ जाते हैं।“ वे मंदिर में पूजा करते हुए बताती हैं कि बदबू के दिनों में हवा के प्रभाव से बर्तन काले पड़ जाते हैं। ऐसे में वे ज्यादातर बर्तनों को कपड़े से ढक कर रखती हैं। यहीं पूजा करते हुए केशव प्रसाद भी मिलते हैं जो कहते हैं “अगर धातु का ये हाल हो सकता है तो इंसानों की त्वचा का क्या हाल होगा।“

चिप्स कारखानों के नज़दीक एक नाले से बहता पानी

एक कारखाना संचालक बताते हैं कि आलू की प्रोसेसिंग के दौरान उसमें सोडियम मेटा बाय सल्फेट नाम का एक केमिकल मिलाया जाता है। इससे आलू से बनने वाली पापड़ी की उम्र बढ़ जाती है और वह करीब तीन साल तक खराब नहीं होती है। आलू की धुलाई के दौरान यह पानी में मिल जाता है और फिर बह जाता है। इसके अलावा दूसरा वेस्ट मटेरियल आलू का छिलका होता है। यह संचालक एक लैब रिपोर्ट को दिखाते हुए बताते हैं इससे किसी तरह की स्वास्थ्य हानि नहीं हो सकती और न ही आलू के छिलकों से। वे कहते हैं कि बदबू की समस्या इसके नालों में बहने वाले पानी के हवा के साथ संपर्क से होती है।

कोदरिया के पास नेउगुराड़िया नाम के एक गांव में भी बदबू और गंदा पानी बड़ी समस्या है। यहां कैलाश नाम के एक ग्रामीण बताते हैं कि “नाले के पानी में इतनी गंदगी होती है कि सुबह और शाम को यहां लोग मुंह बांधकर निकलते हैं।“

इंदौर में श्वसन रोग विशेषज्ञ और टीबी अस्पताल के डीन डॉ. सलिल भार्गव कहते हैं कि “लगातार बदबू सूंघना भी हानिकारक हो सकता है और इससे कई तरह की श्वसन संबंधी परेशानियां आ सकती है क्योंकि बदबू केवल हवा नहीं होती बल्कि यह प्रदूषित या ज़हरीली हवा होती है जो किसी भी इंसान को नुकसानदेह साबित होगी।“

महू में रहने वाले इंदौर के पर्यावरण प्रेमी देवकुमार वासुदेवन के मुताबिक आलू चिप्स के कारखानों से आई आर्थिक खुशहाली से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि कुछ दशक पहले तक ऐसा नहीं था लेकिन अब हालात बदले हैं लेकिन इसके साथ ही पर्यावरण में बदलाव आया है। नदिया प्रदूषित हुईं हैं जमीनी पानी खराब हुआ है। वासुदेवन बताते हैं “इसका उपाय यही हो सकता है कि सरकार इन कारखानों को गंभीरता से लेते हुए इनकी बेहतरी के लिए ठोस कदम उठाए।  यहां पानी को साफ करके को बचाने के लिए काम किया जाए।“

 

दो सौ करोड़ से ज्यादा का कारोबार

कोदरिया के करीब दो से अधिक चिप्स कारखानों की यह व्यापार करीब दो सौ करोड़ रुपये से तीन सौ करोड़ रुपये तक माना जाता है। कई कारखानों का सालाना टर्नओवर करीब बीस करोड़ रुपये से अधिक तक है लेकिन इसके बावजूद यह व्यापार किसी तरह से अधिनियमित या रेग्युलेट नहीं है। यहां के व्यापारी इससे निराश हैं।

कच्ची आलू पापड़ी निर्माता संघ के अध्यक्ष मनोज सैनी बताते हैं कि “यह गांव उनका भी है और यहां गंदा पानी या बदबू उन्हें भी उतना ही परेशान करती है जितनी दूसरों को लेकिन आज इस कारोबार से हज़ारों लोगों को रोजगार मिल रहा है। जिस व्यापार से अर्थव्यवस्था को लाभ हो रहा है उसे बंद करना उचित नहीं बल्कि उसे रेग्युलेट कर उसे सुविधाजनक बनाना चाहिए।“

सबसे एडवांस कारखाना…

यहां नज़दीक ही भगवती मुकाती का भी कारखाना है। इनका कारखाना इलाके का एक मात्र पूरी तरह सुव्यवस्थित कारखाना है। इन्होंने बॉयलर का धुआं छोड़ने के लिए सौ फुट उंची चिमनी लगाई है और खराब पानी को फिल्टर करने के लिए ईटीपी प्लांट तक लगाया गया है। हालांकि बाकी सभी कारखानों की तरह इनके यहां भी बॉयलर या भट्टी को गर्म रखने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल होता है। ऐसे में बड़े पैमाने पर लकड़ी महू लाई जाती है। इस लकड़ी का भी एक बड़ा व्यापार है जो खरगोन, खंडवा और आसपास के कई दूसरे जिलों के जंगल से चलता है।

जगदीश मुकाती, चिप्स कारखाना संचालक

मुकाती बताते हैं “इस व्यापार में फिलहाल लकड़ी का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि यही सबसे आसानी से उपलब्ध होती है। वे बताते हैं कि करीब डेढ़ साल पहले कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने एलपीजी के उपयोग की बात कही थी लेकिन लंबी दूरी तक केवल चार महीने के व्यापार के लिए लाइन बिछाना मुश्किल और खर्चीला होगा। ऐसे में यह उपाय कारगर नहीं होगा। आलू चिप्स का व्यापार न केवल रोजगार देता है बल्कि किसानों और मंडियों को भी कमाई देता है।“

चिप्स के आलू के बारे में बताते हुए वे बताते हैं “चिप्स में जो आलू प्रयोग होता है वह सेकेंड ग्रेड होता है। ऐसे में खेतों में पैदा होने वाले कुल आलू का 30-40 प्रतिशत चिप्स व्यापारी खरीदते हैं अगर वे इसे न खरीदें तो किसानों को इसे बेचना मुश्किल होग क्योंकि इसके दाम नहीं मिलते जबकि चिप्स व्यापारी इसके लिए अच्छी कीमत देते हैं।“

इंदौर की अनाज और सब्जी मंडी प्रदेश की सबसे बड़ी मंडी मानी जाती है। यहां ट्रेडिंग करने वाले संजय गेहलोत बताते है “इंदौर में मालवा के सभी इलाकों से आलू आता है और रोजाना यहां करीब 50 से 60 हजार आलू के कट्टे (बोरी) किसान लेकर आते हैं। इनमें से करीब चालीस हजार से कट्टे चिप्स व्यापारी खरीद लेते हैं। किसान इंदौर में ज्यादातर चिप्स का आलू ही लेकर आते हैं क्योंकि राशन आलू वे अपने इलाकों की मंडियों में बेच देते हैं।” इस तरह किसानों से आलू खरीदने में और मंडी को व्यापार देने में आलू चिप्स व्यापारियों की एक बड़ी भूमिका होती है। ऐसे में इस व्यापार को कमतर नहीं आंका जा सकता है।

कुछ महीनों पहले आलू चिप्स कारखानों को रेग्युलेट करने की बात कही गई थी और इसके लिए एक योजना भी बनाई गई लेकिन चिप्स कारखाना संचालकों को इससे खास उम्मीदें नहीं हैं। कारखाना संचालक बताते हैं कि उन्हें रेग्युलेट करने की बात कही गई है और इसके लिए एक 15 से 20 एकड़ जमीन पर आलू क्लस्टर बनाकर देने की योजना है। यह क्लस्टर कोदरिया से करीब 30 किमी दूर बनाया जाएगा।

इसे लेकर संघ के अध्यक्ष मनोज सैनी कहते हैं कि हमारे कारखाने चार महीने तक ही चलते हैं और छोटे कारखाने भी करीब 5-10 एकड़ जमीन का उपयोग कर लेते हैं और बड़े कारखानों में करीब 30-40 एकड़ तक जमीन लग जाती है। ऐसे में कुछ जमीन व्यापारी के पास होती है तो कुछ वे किसान से ले लेते हैं और उसके बदले फसल की कीमत का किराया देते हैं। ऐसे में पूरा कारोबार करीब हजार एकड़ से भी कहीं ज्यादा जमीन पर होता है ऐसे में अगर आलू चिप्स कारखानों को कितना भी छोटा किया जाए तो भी यह क्लस्टर योजना के मुताबिक केवल 15-20 एकड़ जमीन में नहीं बन सकते हैं।

चिप्स कारोबार में बड़े स्तर पर जमीन की जरुरत होती है।

कारखाना संचालक भगवती मुकाती बताते हैं कि इसका हल केवल यह है कि सरकार कोदरिया की पहचान बनी रहने दे और यहीं एक क्लस्टर का निर्माण कर दे। खेतों के पास से वेस्ट वॉटर के लिए रास्ता बना दे और यहां एक ईटीपी प्लांट लगा दे ताकि पानी को साफ किया जा सके और बदबू कम हो सके। वे कहते हैं कि इसके बाद के चरण में बायोफ्यूल को लेकर योजना बनाई जानी चाहिए। इसी बात पर सहमति देते हुए अध्यक्ष मनोज सैनी कहते हैं कि वे और तमाम कारखाना संचालक इसके लिए सरकार को एक न्यूनतम आर्थिक सहयोग देने  भी तैयार हैं।

यहां मौजूद एक अन्य संचालक बताते हैं “उन्हें पर्यावरण पर हो रहे असर के बारे में जानकारी है लेकिन वे जानते हैं कि इस व्यवसाय ने उन्हें ताकत दी है और हज़ारों लोगों को रोजगार भी दिया है। आने वाले दिनों यह व्यवसाय अरबों का होगा और इससे आर्थिक विकास होगा ऐसे में इसके विकास और पर्यावरण की बेहतरी के लिए कुछ कदम उठाए जाने चाहिए लेकिन जब तक यह नहीं होता है तब तक सभी के सामने सवाल है कि वे क्या चुनना चाहते हैं एक स्वस्थ्य पर्यावरण या आर्थिक मजबूती और रोजगार।“

 

साभारः आदित्य सिंह द्वारा यह ख़बर मूल रूप से मोजो स्टोरी के लिए लिखी गई है। हम देशगांव पर इसे साभार ले रहे हैं। मूल ख़बर को यहां पढ़ा जा सकता है।

 


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