क्या राजनीतिक दलों ने अलग बुंदेलखंड की मांग को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया?


बसपा की मुखिया मायावती ने 14 अप्रैल को झांसी में बरसों बाद अलग बुंदेलखंड राज्‍य का मुद्दा एक बार फिर से जिंदा कर दिया। उससे पहले उन्‍होंने बुंदेलखंड की चार सीटों पर उम्‍मीदवार भी बहुत सोच-समझ कर उतारे थे। भाजपा के मौजूदा सांसदों से बुंदेली मतदाताओं का असंतोष और अलग बुंदेलखंड की ताजी हवा क्‍या उसके जातिगत समीकरण को हिलाने का माद्दा रखती है? बड़ा सवाल यह है सत्‍तर साल पुरानी अलग बुंदेलखंड राज्‍य की मांग में अब भी कुछ बचा है या उसे राजनीतिक वर्ग ने पूरी तरह भुला दिया?


Aman Gupta
बड़ी बात Updated On :

बीस मई को होने वाले पांचवें चरण के मतदान से पहले 17 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमीरपुर लोकसभा के राठ कस्बे में थे, जहां उन्होंने एक सभा में बुंदेलखंड के चारों प्रत्याशियों के लिए वोट मांगे। बुंदेलखंडवासियों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री यहां के अविकास, पलायन और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से निपटने के लिए कुछ ठोस बातें रखेंगे, लेकिन उन्होंने अपने परिचित अंदाज में आधे घंटे का भाषण एक खास धर्म के खिलाफ ध्रुवीकरण पर केंद्रित रखा। इसके ठीक उलट, तीन दिन पहले झांसी पहुंची बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने एक चुनावी सभा में बुंदेलखंड राज्य की मांग को फिर से हवा देकर भाजपा का राजनीतिक समीकरण हिला दिया।

सूखा, पलायन और किसानों की आत्महत्याओं के लिए देश भर में अपनी पहचान बना चुके उत्तर-मध्य भारत के बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मांग कई दशकों से उठती रही है, हालांकि इसको लेकर कभी किसी तरह का संघर्ष नहीं हुआ। ऐसा न होने के कारण क्षेत्र का बेतहाशा पिछड़ापन है जो इसकी नियति बन चुका है। इसी के चलते राजनीतिक दलों के लिए बुंदेलखंड दुधारू गाय जैसा बन चुका है। ये दल बड़े-बड़े वादे करके यहां के मतदाताओं का वोट तो ले लेते हैं पर उसका हक अदा नहीं करते

मायावती की बसपा जब सूबे में सरकार में थी, तब इसके लिए लगातार वह प्रयासरत रही। बुंदेलखंड के लिए मायावती ने केंद्र से खास आर्थिक पैकेज भी लिया। दो-ढाई साल पहले यूपी विधानसभा चुनाव के करीब यह मुद्दा परवान चढ़ा था और खबरें आई थीं कि मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने यूपी को अलग-अलग राज्‍यों में बांटने की कोई फाइल आगे बढ़ाई है, लेकिन भाजपा की सरकार दोबारा बन जाने के बाद इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं थी।


प्रधानमंत्री मोदी को बुंदेलखंड राज्य बनाने के लिए खून से लिखा खत

अब मायावती द्वारा बुंदेलखंड़ की मांग को हवा दिए जाने के बाद से यहां के राजनीतिक समीकरण गड़बड़ा सकते हैं। अलग राज्य को लेकर लोगों की दबी हुई इच्छा और भाजपा सरकार से लोगों की नाराजगी भाजपा का नुकसान कर सकती है। वरिष्ठ पत्रकार हैदर नकवी कहते हैं कि बुंदेलखंड में अलग राज्य की मांग को लेकर भावनात्मक लगाव है और लोगों में इस बात को लेकर गहरा असंतोष है कि उनका विकास नहीं हो रहा है, ‘’सरकारों के प्रति अविश्वास इस हद तक है कि यहां लोग मानते हैं कि अलग राज्य बनाए बिना बुंदेलखंड का विकास नहीं हो सकता है।‘’

चार दशक बाद हमीरपुर के राठ कोई प्रधानमंत्री आया, लेकिन मोदी के भाषण में इस भावनात्‍मक मुद्दे से कोई जुड़ाव नहीं दिखा जबकि लोगों ने बीते दस साल में उन्‍हें खून से खत लिखे हैं। चुनावों मे हालांकि बुंदेलखंड भी हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर भाजपा के साथ दस साल से बना हुआ है, तो शायद यही वजह रही कि मोदी ने अपने भाषण में राम मंदिर के बहाने मुस्लिमों के प्रति नफरत का खुलकर मुजाहिरा किया और इस बहाने सपा-कांग्रेस गठबंधन पर हमला बोला।

राठ की रैली में उन्होंने सीधे-सीधे वोट को जिहाद और मुस्लिमों में बांटे जाने से जोड़ दिया। उन्होंने कहा, “आपका हक वोट जिहादियों को देगा गठबंधन”। यह बोलते हुए उनके चेहरे और भाव-भंगिमा में झल्लाहट भी साफ दिखाई दी जब उन्‍हें यह अहसास हुआ कि उनके सवाल पर कोई उन्‍हें सुन नहीं रहा है, लोग केवल फोटो खींचने में व्‍यस्‍त हैं।

 

यूपी के बुंदेलखंड़ वाले हिस्से में केवल सात जिले, चार लोकसभा सीटें और 21 विधानसभा की सीटें ही आती हैं जो राजनीतिक ताकत दिखाने के लिहाज से बेहद कम हैं। अगर इसके हिस्से में कानपुर, प्रयागराज जैसे शहर भी शामिल किए जाते हैं तो यह बुंदेलखंड का विस्तार होगा। वैसे भी कानपुर और प्रयागराज सांस्कृतिक स्तर पर बुंदेलखंड के ज्यादा करीब आते हैं बनिस्बत अवध और पूर्वांचल के। इसके अलावा, बुंदेलखंड़ का मध्य प्रदेश वाला हिस्‍सा शामिल किए बगैर उसे अलग राज्य बनाने को कोई औचित्य नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि क्या मध्य प्रदेश इसके लिए राजी होगा चूंकि उसके राजस्व का बड़ा हिस्सा भी बुंदेलखंड के खनन से ही आता है।

यहां न रोजगार के साधन हैं और न ही उनको पैदा करने की नीयत। अगर कोई बुंदेलखंड की बेहतरी के बारे में सोचता भी है तो उसके पास राजनीतिक रूप से इतनी ताकत नहीं है कि वह बुंदेलखंड को उसका हक दिला सके। कोढ़ में खाज यह कि यह क्षेत्र दो प्रदेशों यूपी और मध्‍य प्रदेश में आधा-आधा बंटा हुआ है। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह इलाका दशकों से अपना हक मांग रहा है लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।

बुंदेलखंड 1990 के दशक से ही बसपा का मजबूत आधार-क्षेत्र रहा है। जब कांशीराम ने ‘पचासी बनाम पंद्रह’ की बात उठाई थी तब बुंदेलखंड उसके पहले समर्थक के तौर पर सामने आया था। इसकी वजह यहां की आबादी में दलितों और पिछड़ों की बहुतायत है। नब्बे के दशक में भाजपा जब राम मंदिर और हिंदुत्व को लेकर आगे बढ़ रही थी तब उस दौर में कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने साथ आकर भाजपा को झटका दिया था।

बसपा के जानकार समाजशास्‍त्री बद्री नारायण अपनी किताब में लिखते हैं, ‘’बाबरी मस्जिद विध्‍वंस के बाद दलितों-पिछड़ों को 1993 में हासिल चुनावी कामयाबी में छुपा आशावाद और भाजपा-विरोध उस दौर के एक लोकप्रिय नारे में मुखर हो रहा था: ‘’मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम’’। कांशीराम के एक करीबी बसपा नेता इटावा के खादिम अब्‍बास ने 1992 में मैनपुरी की एक सभा में यह नारा ऐसे ही उछाल दिया था जब वहां कांशीराम और मुलायम के आने का इंतजार हो रहा था। उनसे कहा गया था कि इन नेताओं के आने तक वे भाषण दें। तभी उन्‍होंने यह नारा दिया था, जिसे श्रोताओं ने इतना सराहा कि कई बार उनसे कहलवाया। इस नारे ने सियासी माहौल को बदल डाला और पूरे सूबे में इसकी गूंज सुनाई देने लगी। इसी के चलते सपा और बसपा के साथ आने के लिए एक अनुकूल राजनीतिक फिजा तैयार हो सकी।‘’

परिणामस्वरूप भाजपा को यहां अपना आधार जमाने के लिए 2014 तक इंतजार करना पड़ा, हालांकि उसके इंतजार का फल सुखद रहा है और 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे सभी सीटें मिलीं, वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में सभी सीटें भाजपा ने जीतीं। 2017 के विधानसभा चुनावों के प्रचार की शुरुआत नरेंद्र मोदी ने महोबा में परिवर्तन रैली करके की और अंतिम परिणामों में भाजपा को बुंदेलखंड की सभी सीटें मिलीं। सत्तर साल के इतिहास में यह पहली बार था जब किसी पार्टी ने सभी सीटें जीती हों। इसके बावजूद बुंदेलखंड राज्‍य का मुद्दा भाजपा ने खुलकर कभी नहीं उठाया और यहां की जनता को गरीबी, पलायन, सूखा और अवैध खनन से जूझने को पहले की सरकारों की तरह छोड़ दिया।

नकवी कहते हैं कि बुंदेलखंड की मांग में दिक्‍कत यह है कि उसके पास केवल सात जिले हैं और इतने में कोई राज्य नहीं बनता है। इसमें सबसे अहम रोल मध्य प्रदेश का होगा क्योंकि मध्य प्रदेश के जिले पर्यटन के जरिये सरकार के खजाने में काफी पैसा देते हैं। संभव है कि मध्य प्रदेश अपना हिस्सा नहीं छोड़ेगा। अगर किसी भी स्थिति में बुंदेलखंड बनता है तो उसके लिए वेल्थ क्रिएशन करने वाला कौन होगा? झांसी इतने बड़े इलाके के लिए झांसी अकेला तो यह कर नहीं सकता है।

आबादी के लिहाज से देखें तो बुंदेलखंड में 35 प्रतिशत ओबीसी, 25 प्रतिशत दलित, 16 प्रतिशत मुस्लिम और 24 प्रतिशत सामान्य वर्ग की आबादी है। ओबीसी वोटर को साधने के लिए भाजपा ने कुर्मी स्वतंत्रदेव सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है जो जालौन के निवासी हैं। वहीं जालौन के ही सांसद भानुप्रताप वर्मा को केंद्र में मंत्री पद पर बिठा दिया।

सपा और बसपा भी जातिगत समीकरण साधने के लिए सोशल इंजीनियरिंग यानी जाति की राजनीति करते रहे हैं। बीते दशक में उन्हें इसका फायदा भी मिला। 2007 के चुनाव में बसपा को बुंदेलखंड में 14 सीटें मिली थीं जो बसपा के इतिहास में सर्वाधिक हैं, वहीं सपा को अपने सबसे बेहतर दौर में भी सात सीटें ही मिलीं। भाजपा इकलौती पार्टी है जिसे इलाके की सभी सीटें हासिल हुईं हैं।

 

13 मई 2007 को मुख्‍यमंत्री का पदभार ग्रहण करने के बाद मायावती ने की नई सरकार ने अपना जो आर्थिक एजेंडा सामने रखा, वह बद्री नारायण के मुताबिक ‘’अतीत के दंडात्‍मक सामाजिक न्‍याय वाले एजेंडे से भिन्‍न था’’। मायावती ने 20 जुलाई, 2007 को केंद्र से ग्‍यारहवीं योजनावधि के तहत 80,000 करोड़ रुपये के विशेष विकास पैकेज की मांग की। उनकी सरकार ने जो तरजीही क्षेत्र गिनवाए, उनमें ‘’ग्रामीण विकास, कृषि, सामाजिक विकास और इनफ्रास्‍ट्रक्‍चर, सभी सामाजिक तबकों और क्षेत्रों का चौतरफा विकास ओर राज्‍य को निवेश आकर्षित करने के अनुकूल बनाना’’ शामिल था।

उनके केंद्र को भेजे गए अनुरोधों में अलग से 9400 करोड़ रुपये और 4700 करोड़ रुपये का ‘स्‍पेशल एरिया इनसेंटिव पैकेज’ भी शामिल था। यह पैकेज राज्‍य के दो सबसे पिछड़े इलाकों पूर्वांचल और बुंदेलखंड के बुनियादी ढांचा विकास के लिए मांगा गया था। इसके अलावा उन्‍होंने कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के विकास के लिए 22000 करोड़, ग्रामीण विकास के लिए 6500 करोड़ और राज्‍य के समेकित विकास संबंण्‍धी अन्‍य प्रस्‍तावों के लिए अलग से 13,300 करोड़ रुपये मांगे थे।

केंद्र के साथ कई महीने चली बातचीत के बाद मायावती 18 फरवरी 2008 को 80,000 करोड़ रुपये लेने में कामयाब रहीं। यह किसी अलग पैकेज के बतौर नहीं था बल्कि ग्‍यारहवीं योजनावधि में राज्‍य को दिए गए कुल संसाधनों के हिस्‍से के रूप में था। सवाल उठता है कि मायावती ने अलग राज्‍य का सवाल अचानक चुनावों के बीच अब क्यों उठाया है? क्या यह उनकी पुरानी राजनीतिक आस्‍था का सवाल है या फिर वोट हासिल करने के लिए खेला गया महज एक भावनात्मक दांव? कारण, कि 2012 तक मजबूत स्थिति में रही बसपा के पास इस समय इलाके में कोई बड़ा नेता नहीं है जबकि बसपा की मजबूती के दौर में नसीमुद्दीन सिद्दीकी, दद्दू प्रसाद, बाबूलाल कुशवाहा, बृजलाल खाबरी जैसे नेता हुआ करते थे। उसके आधार वोट का बड़ा हिस्सा भाजपा की मुफ्त राशन, मुफ्त घर स्कीमों के जरिये भाजपा के साथ अब जुड़ चुका है, हालांकि मतदाता भाजपा के सांसदों से नाराज हैं और भाजपा को केवल मोदी के चेहरे का सहारा है। स्थानीय मीडिया में आ रही खबरों से इसे समझा जा सकता है।

शायद इसीलिए बसपा ने इस बार अपने प्रत्याशियों के चयन में काफी सावधानी बरतते हुए दो ब्राह्मण हमीरपुर और बांदा, एक पिछड़ा झांसी और एक दलित प्रत्याशी जालौन से मैदान में उतारा है। जो उसकी दलित और अगड़ा वोटर की रणनीति है, इसके सहारे वह 2007 में पूर्ण बहुमत की सत्ता तक पहुंच चुकी है। इस बार हालांकि सत्ता में आने का मामला तो नहीं है, लेकिन अपना पुराना वोट प्रतिशत बरकरार रखना पार्टी की प्राथमिकता है।

 

बसपा के नेता और मायावती के उत्तराधिकारी आकाश आनंद के लिए दिल्ली में काम कर रहे एक प्रचार और रणनीति प्रबंधक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “इस बार हमारा टारगेट सीट लाना नहीं, अपना 19 प्रतिशत वोट सिक्योर करना है। असल लड़ाई 2017 की है। आप देखिएगा, सपा साफ हो जाएगी। लड़ाई भाजपा और बसपा की ही होगी।”

यही बात वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण मोहता भी कहते हैं। उनके मुताबिक बसपा अपने अस्तित्‍व की लड़ाई लड़ रही है। इस चुनाव में वह केवल अपना वोट बैंक सुरक्षित करना चाहती है, उसकी पूरी रणनीति 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए है।

बुंदेलखंड को अलग राज्य़ बनाए जाने को लेकर मोहता कहते हैं कि नाइंसाफी केवल बुंदेलखंड के साथ नहीं, कानपुर के साथ भी हो रही है। वह कहते हैं, “राज्य का चौथा सबसे ज्यादा राजस्व वाला जिला आज छोटी-छोटी चीजों के लिए मोहताज है। कानपुर की हकमारी करके इसका फायदा लखनऊ को दिया जा रहा है। ऐसे में कानपुर को मिलाकर अलग बुंदेलखंड ही इस समस्या से निपटने का इकलौता उपाय़ है।‘’

 

बुंदेलखंड के लिए अलग राज्य के दर्जे की मांग का इतिहास स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में मध्य प्रदेश के गठन 1 नवंबर 1956 के साथ जुड़ता है, जब पहली बार बुंदेलखंड को दो हिस्सों में बांटकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आधा-आधा डाल दिया गया। इसके विरोध में पहली आवाज ओरछा के राजा ने उठाई और बुंदेलखंड के लिए अलग राज्य की मांग का समर्थन किया था।


शुरुआती संघर्ष के बाद 17 सितंबर 1989 में शंकर दयाल मेहरोत्रा ने बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन करके एक आंदोलन शुरू किया जिसके लिए उन्होंने जगह-जगह धरने प्रदर्शन किए। अपनी इस मांग को लेकर मेहरोत्रा ने 1994 में मध्य प्रदेश विधानसभा में और 1995 में संसद में इस मांग की समर्थन वाले पर्चे भी फेंके और यह मुद्दा चर्चा में आया। इसके बाद दिल्ली में भी धरने प्रदर्शन किए। विपक्ष के नेता के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मांग को समर्थन दिया और उमा भारती के जरिये संदेश भेजा कि अगर वे सरकार में आते हैं तो बुंदेलखंड को अलग राज्य का दर्जा दिया जाएगा।

इस मांग के समर्थन में छिटपुट कार्रवाइयां लगातार होती रहीं। बुंदेलखंड की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे तारा पाटकर बताते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी इस मांग के समर्थन में थे जिसके लिए मेहरोत्रा से सही समय आने का इंतजार करने को उन्‍होंने कहा था। शंकर लाल मेहरोत्रा ने अपनी मांग को लेकर उत्तर प्रदेश के बरुआ सागर में एक विरोध प्रदर्शन करते हुए एक बस में आग लगा दी, जिसके चलते अटल बिहारी वाजपेयी नाराज हो गए। नतीजे के फलस्वरूप तीन नए बने राज्यों में बुंदेलखंड का नाम नहीं था।

इस सदमे के चलते मेहरोत्रा की हार्ट अटैक से मौत हो गई, हालांकि उनके शुरू किए संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए कई लोगों ने प्रयास किया, जिनमें अभिनेता राजा बुंदेला, पूर्व सांसद गंगाचरण राजपूत, बादशाह सिंह प्रमुख हैं। हमीरपुर-महोबा के वर्तमान सांसद पुष्पेंद्र सिंह चंदेल भी सदन कई बार इस मांग को उठा चुके हैं। राजा बुंदेला की सक्रियता इस मामले में सबसे ज्यादा रही, जिसे उन्होंने कई राजनीतिक दलों में रहते हुए भी उठाया। इसी सिलसिले में बुंदेला 2004 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव भी लड़कर हार गए।

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इससे पहले वह बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके थे। 2011 में उन्होंने बुंदेलखंड राज्य की मांग वाले सिंगल एजेंडे पर आधारित पार्टी बुंदेलखंड कांग्रेस का गठन किया। अपनी पार्टी के बैनर तले बुंदेला ने 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में डॉ. अयूब की पीस पार्टी और अनुप्रिया पटेल की अपना दल के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा जिसमें उन्होंने बुंदेलखंड की सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे। एक भी सीट न जीत पाने के बाद 2013 में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली। बाद में उन्हें भाजपा सरकार द्वारा बुंदेलखंड विकास बोर्ड का उपाध्यक्ष भी बनाया गया और तभी से वह इस पद पर हैं। यह अलग बात है कि बुंदेलखंड विकास बोर्ड काम क्या करता है, इसका कुछ अता-पता नहीं है। साल भर से वे निष्क्रिय थे, चुनाव आते ही फिर से दिखने लगे हैं हालांकि ट्विटर पर पिछले साल जून के बाद से वे अपडेट नहीं हैं।


बुंदेलखंड राज्य के बड़े योद्धाओं में एक राजा बुंदेला भाजपा में जाकर अब अप्रासंगिक हो चुके हैं

बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मांग पर आधारित लड़ाई के लिए कम से आधा दर्जन पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। इनमें बुंदेलखंड भारत विकास पार्टी और बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी प्रमुख हैं। वर्तमान में इस लड़ाई को लड़ने वालों में तारा पाटकर का नाम प्रमुख है, जो इस मांग को लेकर बरसों से नंगे पांव पदयात्रा कर रहे हैं। उनका प्रण है कि जब तक बुंदेलखंड राज्य नहीं बन जाता है, वे ऐसे ही रहेंगे। करीब एक दर्जन बार वह प्रधानमंत्री को अपने खून से पत्र लिख चुके हैं। अलग बुंदेलखंड राज्य की मांग करने वाले ज्यादातर नेता या तो खत्म हो चुके हैं फिर राजनीतिक बियाबान में हैं जिनकी कोई पूछ नहीं हैं। ज्यादातर नेता अपनी अगली पीढ़ी को भी राजनीति में स्थापित नहीं कर पाए हैं।

ऐसे ही एक नेता हैं गंगाचरण राजपूत, जिनकी पहचान यह है कि 2004 के चुनाव के बाद संसद की पानी की टंकी पर चढ़कर अपनी ही कनपटी पर उन्‍होंने पिस्तौल तान ली थी, वह भी केवल इसलिए की सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जाए। जनता दल और भाजपा से होते हुए कांग्रेस में गंगाचरण इससे पहले मुरली मनोहर जोशी की कश्मीर तक की यात्रा में जेल जाकर नाम कमा चुके थे। वर्तमान में उनका बेटा महोबा की चरखारी सीट से दूसरी बार भाजपा विधायक है। गंगाचरण और उनके बेटे से हमने संपर्क किया, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई।

भाजपा के एक पूर्व जिलाध्यक्ष कहते हैं कि बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की मांग तो जायज है लेकिन उसका समय सही नहीं है क्‍योंकि केंद्र की वर्तमान सरकार सत्ता के संकेद्रण में विश्वास करती है। वे कहते हैं, ‘’नए राज्यों का गठन सत्ता का विकेंद्रण माना जाता है, मोदी और शाह यह कतई नहीं चाहेंगे कि कोई नया राज्य बने।‘’

 

 2014 की मोदी लहर में भाजपा को सभी सीटें देने के बदले में उम्मीद थी विकास के मामले में बुंदेलखंड के हिस्से में कुछ ब़ड़ा आएगा जो यहां की समस्याओं को दूर करेगा। 2017 में उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार बन जाने के बाद उम्मीद कुछ और बढ़ी। उम्मीदों के इसी आसमान पर सरकार की तरफ से पहली बड़ी घोषणा 2018 में हुई जब बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे और डिफेंस कॉरीडोर की बात आगे बढ़ी। डिफेंस कॉरीडोर बनाने के पीछे तर्क दिया गया कि इस इलाके में रक्षा उत्पादन की कंपनियों को लाया जाएगा जो यहां की किस्मत बदल देंगी।

बीते दस साल में बुंदेलखंड के हिस्से में वैसे तो कोई बड़ी परियोजना नहीं आई है जिसके भरोसे पर कहा जा सके कि यह बुंदेलखंड की गरीबी, पलायन, और सूखे से निपटने में सहायक हो सके। जो मौजूदा परियोजनाएं हैं उनमें से एक 3200 करोड़ रुपये की एक पेयजल परियोजना है जिसके तहत घरों में पीने का साफ पानी पहुंचाना है, जबकि बुंदेलखंड की जरूरत इससे बिल्कुल जुदा सिंचाई के पानी की उपलब्धता की है। अगर ऐसी कोई परियोजना हो तो इसका सबसे ज्यादा लाभ किसानों को होगा। इसके लिए जिस परियोजना पर काम हो रहा है वह है केन-बेतवा लिंक, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री लगातार करते रहे हैं हालांकि उसमें तमाम पर्यावरणीय दिक्कतें हैं। दूसरी बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे परियोजना है। 2018 में जब इसकी घोषणा की गई तब कहा गया था कि इसके सपोर्ट में एक डिफेंस कॉरिडोर बनाया जाएगा, लेकिन आज तक उसका कोई अता-पता नहीं है।

बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे तो बनकर तैयार और चालू है लेकिन हालत यह है कि वह सफेद हाथी बनकर खड़ा है, जिसपर कई घंटों का सफर करने के बाद एक पुतला तक नहीं दिखता। बुंदेलखंड के विकास के लिए वर्तमान में एक नया शिगूफा है, बुंदेलखंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी, जिसे नोएडा की तर्ज पर विकसित किया जा रहा है। इसके बारे में कहा जा रहा है कि यह बुंदेलखंड की किस्मत को बदल सकता है।

नरेंद्र मोदी के राठ वाले भाषण में इन परियोजनाओं का बेशक जिक्र था, लेकिन सारा जोर ध्रुवीकरण पर ही रहा। उन्होंने कहा कि जहां-जहां कांग्रेस की सरकार है उसने पिछड़ा, दलित और आदिवासियों को दिए आरक्षण को कम करके या फिर खत्म करके मुसलमानों को दे दिया है। इसके लिए उन्होंने कर्नाटक का उदाहरण दिया। मोदी यहां भी झूठ ही बोल रहे थे- जिसे वह कांग्रेस के समय दिया आरक्षण बता रहे थे वह वर्तमान में उनके ही गठबंधन सहयोगी एचडी दवेगौड़ा के मुख्यमंत्री रहते हुए दिया गया था।

मोदी केवल इतने पर नहीं रुके। गठबंधन पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि ‍अगर गठबंधन सरकार में आता है तो वह राम मंदिर पर बुल्ड़ोजर चलवा देगा। मजे की बात है कि बीते हफ्ते एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में मोदी ने कहा था कि अगर वे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति करते हैं तो उन्हें सार्वजनिक जीवन में एक भी दिन रहने का अधिकार नहीं है। अब राठ में दिए बयान पर कोई उनसे पलटकर सवाल पूछेगा, ऐसा फिलहाल तो संभव नहीं लगता।

दूसरी ओर, मायावती की मंशा अगर बुंदेलखंड राज्‍य बनाने की सही है भी, तो खुद उनके रणनीतिकारों के मुताबिक यहां के लोगों को 2027 तक तो कम से कम इंतजार करना ही पड़ेगा जब वे सत्‍ता में आने की लड़ाई लडेंगी। इस चुनाव में तो बसपा का कोर वोटर भी जानता है कि पार्टी के प्रत्‍याशी को वोट देने से उसका वोट खराब होने वाला है।

नरेंद्र मोदी के राठ वाले भाषण में इन परियोजनाओं का बेशक जिक्र था, लेकिन सारा जोर ध्रुवीकरण पर ही रहा। उन्होंने कहा कि जहां-जहां कांग्रेस की सरकार है उसने पिछड़ा, दलित और आदिवासियों को दिए आरक्षण को कम करके या फिर खत्म करके मुसलमानों को दे दिया है। इसके लिए उन्होंने कर्नाटक का उदाहरण दिया। मोदी यहां भी झूठ ही बोल रहे थे- जिसे वह कांग्रेस के समय दिया आरक्षण बता रहे थे वह वर्तमान में उनके ही गठबंधन सहयोगी एचडी दवेगौड़ा के मुख्यमंत्री रहते हुए दिया गया था।

मोदी केवल इतने पर नहीं रुके। गठबंधन पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि ‍अगर गठबंधन सरकार में आता है तो वह राम मंदिर पर बुल्ड़ोजर चलवा देगा। मजे की बात है कि बीते हफ्ते एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में मोदी ने कहा था कि अगर वे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति करते हैं तो उन्हें सार्वजनिक जीवन में एक भी दिन रहने का अधिकार नहीं है। अब राठ में दिए बयान पर कोई उनसे पलटकर सवाल पूछेगा, ऐसा फिलहाल तो संभव नहीं लगता।

दूसरी ओर, मायावती की मंशा अगर बुंदेलखंड राज्‍य बनाने की सही है भी, तो खुद उनके रणनीतिकारों के मुताबिक यहां के लोगों को 2027 तक तो कम से कम इंतजार करना ही पड़ेगा जब वे सत्‍ता में आने की लड़ाई लडेंगी। इस चुनाव में तो बसपा का कोर वोटर भी जानता है कि पार्टी के प्रत्‍याशी को वोट देने से उसका वोट खराब होने वाला है।

 


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