भाजपा ने खुद में किए ये 9 बदलाव और पलट दिए चार राज्यों के चुनाव परिणाम


पांच में से चार राज्यों में बीजेपी की वापसी के बाद सबके मन में यह सवाल है कि आखिर भारतीय जनता पार्टी की इस प्रचंड जीत की असल वजह क्या है?


sanjeev srivastava संजीव श्रीवास्तव
बड़ी बात Published On :
assembly elections 2022

पांच में से चार राज्यों में बीजेपी की वापसी के बाद सबके मन में यह सवाल है कि आखिर भारतीय जनता पार्टी (BJP) की इस प्रचंड जीत की असल वजह क्या है? बहुत से लोग सांप्रदायिक राजनीति या प्रोपेगैंडा को इसकी वजह मानते हैं। उनका मानना है कि बीजेपी चुनाव से ठीक पहले हिंदू-मुलसलमान कर ध्रुवीकरण करती है और लोगों को गुमराह कर वोट झटक लेती है।

वोटर को इतना मासूम और अनाड़ी मानने वाले विद्वान भूल जाते हैं कि 90 के दशक मे जब मंडल की राजनीति अपने चरम पर थी तब भी बीजेपी को यूपी में 35% वोट नहीं मिले थे। 1991 में 221 सीट जीतने के बावजूद बीजेपी को 31.5% वोट मिले थे जबकि, 1996 में महज 32.52% वोट मिले थे। वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39.67% और 2022 में 41.3% वोट मिले हैं।

90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था और बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था। 1991 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 221 सीटें मिली थीं। जबकि, 2017 में चुनाव में बीजेपी को अकेले 303 सीटों पर जीत मिली थी। इन तथ्यों से यह बात साफ हो जाती है कि केवल हिंदू सेंटीमेंट के भरोसे बीजेपी तो क्या, कोई भी पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती।

1. ऐसे नेताओं को आगे बढ़ाया जो पार्टी को आगे बढ़ा सके

भारतीय जनता पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद संगठनात्मक स्तर पर कुछ ऐसे कदम उठाए जिसने उसे देश के अन्य राजनीतिक दलों से काफी अलग बना दिया। इस चुनाव के बाद बीजेपी (BJP) ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करने के लिए ठोस प्रयास किए और संगठनात्मक स्तर पर ऐसे लोगों को आगे बढ़ाया जो जनता के बीच काम करने के लिए जाने जाते थे।

इसमें सबसे बड़ा नाम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) का था। नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के एक कार्यकर्ता के तौर पर गुजरात में लगातार काम किया था और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह बेहद लोकप्रिय थे। मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने गुजरात के गांवों से लेकर शहरों तक पार्टी को संगठनात्मक तौर पर मजबूत बनाया था। इसे देखते हुए पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले इन दोनों नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर काम करने का मौका दिया। इसके बाद जो हुआ उसके बारे में सब जानते हैं।

2. माइक्रो मैनेजमेंट ने किया कमाल

अमित शाह (Amit Shah) ने चुनाव क्षेत्रों का पोलिंग बूथ के स्तर पर माइक्रो मैनेजमेंट किया। प्रत्येक पोलिंग बूथ के इलाके में आने वाले क्षेत्र के लिए पन्ना प्रमुख जैसे पदों का निर्माण किया और उन्हें काम करने के लिए प्रेरित भी किया।

3. जाति-धर्म नहीं, इस वर्ग को बनाया वोट बैंक

इसके अलावा पार्टी ने ऐसे लोगों की पहचान की जो हर जाति-धर्म में समान रूप से पाए जाते हैं। गरीब और महिलाएं हर जाति और धर्म का हिस्सा होते हैं। बीजेपी (BJP) ने इसे एक नए वर्ग या वोट बैंक के तौर चिन्हित किया। ऐसी घोषणाएं की गईं जो खासतौर पर इन वर्गों को आकर्षित कर सकें।

4. योजना से ज्यादा डिलिवरी पर फोकस

इतना ही नहीं, नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने सत्ता में आने के बाद इन योजनाओं का लाभ सही व्यक्ति तक पहुंच सके इसके लिए भी पूरी रणनीति बनाई। उन्होंने तकनीक की मदद ली ताकि, यह सुनिश्चित हो सके कि योजना का लाभ सही व्यक्ति को मिला या नहीं। इसके लिए सरकार ने एक फुलप्रूफ सिस्टम विकसित किया।

5. ऐसे जीता आम जनता का भरोसा

उज्जवला से लेकर किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं को जमीन पर लागू करने के कारण नरेंद्र मोदी ने महिलाओं और गरीब वर्ग के बीच खुद को ऐसे नेता के तौर पर स्थापित किया जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं है। यही वजह है कि आज मोदी की लोकप्रियता राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर के सर्वे में भी दुनिया के दिग्गज नेताओं को पछाड़ देती है।

6. इन वर्गों के लिए बनी खास योजनाएं

जब अन्य राजनीतिक दल टिकट बंटवारे के समय जातीय और धार्मिक समीकरण को साधने में माथापच्ची कर रहे होते हैं, तब बीजेपी ऐसे मतदाताओं पर फोकस कर रही होती है जो एक ही तरह की समस्या से जूझ रहे हों। फिर, उस समूज के लिए विशेष योजना व रणनीति बनाई जाती हैं। जैसे, यूपी चुनाव में कानून व्यवस्था को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया गया ताकि, हर वर्ग की महिलाओं का ध्यान खींचा जा सके।

बिना भेदभाव के हर जाति-धर्म के लोगों को मुफ्त अनाज, पीएम आवास, किसान सम्मान निधि जैसी योजनाओं का लाभ पहुंचा कर बीजेपी ने विरोधियों के जातिगत समीकरण वाले दांव की पहले ही हवा निकाल दी थी। यही वजह है कि यूपी में विरोधी दलों के जातिगत गठबंधन के बावजूद बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है।

7. पार्टी के अंदर होती है कठोर प्रतिस्पर्धा

आज बीजेपी एक ऐसी पार्टी बन चुकी है जिसमें पार्टी के अंदर ही नेताओं के बीच खुद को साबित करने के लिए कठोर प्रतिस्पर्धा होती है। मोदी के बाद नंबर टू की लाइन मे कभी अमित शाह सबसे आगे दिखते हैं, तो कभी नितिन गडकरी उनसे आगे निकल जाते हैं और कभी योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को मोदी का उत्तराधिकारी साबित करने की होड़ दिखााई देती है।

कांग्रेस (Congress), समाजवादी पार्टी (SP), बहुजन समाज पार्टी (BSP) या आम आदमी (AAP) जैसी नई पार्टी तक में यह सोचने की हिमाकत भी नहीं की जा सकती कि राहुल (Rahul Gandhi), प्रियंका (Priyanka Gandhi), अखिलेश (Akhilesh Yadav), मायावती (Mayawati) या केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के बाद कौन?

बीजेपी का अगला अध्यक्ष या प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, इसके बारे में बस कयास ही लगाए जा सकते हैं। क्योंकि, लालकृष्ण आडवाणी के समय तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि नरेंद्र मोदी बीजेपी के अगले पीएम उम्मीदवार होंगे। जाहिर है कि बीजेपी में किसी नेता का भविष्य उसके प्रदर्शन के आ​धार पर तय होता है न कि इस बात से कि वह किसका बेटा या बेटी है।

8. नहीं पता कौन होगा अगला लीडर

भारत में आज ज्यादातर राजनीतिक दल परिवारवाद या किसी एक नेता के भरोसे टिके हुए हैं। फिलहाल, भारतीय जनता पार्टी में भले ही मोदी सबसे कद्दावर नेता नजर आते हों लेकिन, किसी समय ऐसा ही प्रभाव अटल बिहारी वाजपेयी और उनके बाद लालकृष्ण आडवाणी का भी हुआ करता था। बीजेपी के अंदर नेतृत्व के लिए खुली प्रतिस्पर्धा का यह माहौल उसे न सिर्फ अन्य राजनीतिक दलों से अलग बनाता है बल्कि, आम कार्यकर्ता को यह भरोसा दिलाता है कि यहां किसी के लिए भी शिखर तक पहुंचने के दरवाजे खुले हुए हैं।

9. समय के साथ खुद को बदलने वाले नेता की है पूछ

भारतीय राजनीति में आज ऐसे दल और नेता का अभाव साफ दिखाई देता है जो परंरागत राजनीति से अलग हटकर कुछ नया करने लिए लालायित हो। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि दूसरे किसी भी दल का कोई भी नेता उनके इर्द-गिर्द भी दिखाई नहीं देता। आज के वोटर को चुनाव से पहले आकर्षक घोषणा पत्र जारी करने, जातियों का समीकरण बिठाने, प्रचार करने और भाषण देने भर से प्रभावित नहीं किया जा सकता।

विजन, लिडरशिप, डिलिवरी, विश्वसनीयता और मजबूत संगठन के बिना आज किसी भी दल के लिए राजनीति करना आसान नहीं है। यह भारतीय लोकतंत्र के मजबूत और परिपक्व होने का संकेत है। केवल वादों, नारों और जोड़-तोड़ के भरोसे राजनीति करने वालों के लिए अब राजनीति में शायद कोई जगह नहीं बची है।



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