मध्यप्रदेश में इन दिनों एक नई शिक्षा नीति लागू की जा रही है। प्रदेश के कई कॉलेजों में अब एग्रीकल्चर यानी खेती को एक नए विषय के रूप में शुरू किया जा रहा है। प्रदेश सरकार का मानना है कि इस तरह नए विद्यार्थी खेती-बाड़ी के विशेषज्ञ बनेंगे और उन्हें अधिक रोजगार भी मिलेगा। हालांकि कृषि के जानकार और इसकी पढ़ाई कर चुके या कर रहे विद्यार्थी इस कदम को सही नहीं मानते लेकिन सरकार को इससे काफी उम्मीदें हैं। इस कोर्स को शुरू करने के लिए सरकार कुछ किसानों से एमओयू भी करेगी।
पिछले दिनों मप्र के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि अब सामान्य कॉलेजों में भी बीएससी एग्रीकल्चर के कोर्स की पढ़ाई करवाई जाएगी। यह एक बड़ी घोषणा थी, क्योंकि आमतौर पर इस तरह की पढ़ाई कृषि विश्वविद्यालयों से संबंधित कॉलेजों में ही करवाई जाती है जो कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से संबंध रखते हैं। कुछ निजी कॉलेजों और सरकारी विश्वविद्यालयों में भी इसकी पढ़ाई हो रही है, लेकिन उन्हें आईसीएआर की मान्यता नहीं है। ऐसे में इन कॉलेजों की पढ़ाई पर भी कई सवाल उठते हैं। छात्रों का कहना है कि इससे बेहतर होगा कि किसी उत्कृष्ट संस्थान को ही कृषि विश्वविद्यालय के तौर पर विकसित किया जाए और उन्हीं में नए कॉलेजों को अटैच किया जाए।
सरकार के इस निर्णय का विरोध करने वाले समूहों में इंदौर के प्रमुख एग्रीकल्चर कॉलेज के छात्र और संगठन शामिल हैं। इन छात्रों का कहना है कि नए एग्रीकल्चर कॉलेजों की स्थापना एक औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है और इसके कई नुकसान हैं। इन छात्रों ने इंदौर हाईकोर्ट में इस निर्णय के खिलाफ जनहित याचिका भी दायर की है। याचिकाकर्ताओं में शामिल रंजीत किसानवंशी, जो इंदौर के कृषि महाविद्यालय के पूर्व छात्र हैं, ने प्रवेश प्रक्रिया में मौजूद खामियों पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता की कमी और प्री-एग्रीकल्चर टेस्ट (PAT) को शामिल न करने से कृषि शिक्षा और अनुसंधान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
इस याचिका का सर्मथन करने वालों में कृषि कॉलेज के छात्र नेता राधे जाट भी शामिल हैं। वे कहते हैं कि खेती-किसानी सिर्फ किताबी पढ़ाई नहीं है; इसमें प्रैक्टिकल की जरूरतें होती हैं। सरकार ने जो निर्णय लिया है, वह किसी भी तरह से सही नहीं है। जिन कॉलेजों में फिलहाल एग्रीकल्चर की पढ़ाई हो रही है, वहां नाम मात्र के भी संसाधन नहीं हैं। ऐसे में खेती-किसानी कैसे सिखाई जाएगी? क्या खेती केवल क्लासरूम में बैठकर ही सिखाई जा सकती है? राधे बताते हैं कि कई कॉलेजों में जो कोर्स शुरू किए गए हैं, वहां पहले से ही मौजूद कोर्सों में प्रोफेसर और अन्य फैकल्टी की कमी है, फिर एग्रीकल्चर की पढ़ाई कैसे करवाई जाएगी?
वे कहते हैं कि प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या इतनी ज्यादा है कि सरकार ये समझ ही नहीं पा रही है कि इतने नौजवानों को कहां उपयोग किया जाए। ऐसी स्थिति में, जब प्रदेश लाडली बहना जैसी तमाम मोटे खर्च वाली योजनाओं के चलते वित्तीय संकट में फंसता दिखाई दे रहा है, तब रोजगार जुटाना और भी मुश्किल हो रहा है। ऐसे में सबसे आसान है किसान और उससे जुड़ा बाजार, और बेरोजगार नौजवानों को कृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना देना। यह अच्छा होता अगर उन्हें उत्कृष्ट स्तर की शिक्षा दी जाती, लेकिन फिलहाल बिना संसाधनों के जो विश्वविद्यालय कृषि विषय की पढ़ाई करवा रहे हैं, वहां केवल किताबी पढ़ाई हो रही है। यह सोचने का विषय है कि खेती-किसानी की केवल किताबी पढ़ाई कर चुके इन नौजवानों से कल उम्मीद की जाएगी कि वे भारत में पीढ़ियों से खेती कर रहे किसानों को सही सलाह दें, उन्हें अपने खेतों में सही तरीके से खेती करना सिखाएं, बीज की गुणवत्ता जांचें, बुआई-कटाई के बारे में बताएं। राधे जाट कहते हैं कि इस तरह से आधे अधूरे पढ़े हुए नौजवानों को कृषि अर्थव्यवस्था में धकेलना एक डिज़ास्टर साबित होगा।
याचिकाकर्ता रंजीत किसानवंशी कहते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई को लेकर सरकार गंभीर नहीं है; सरकार केवल कृषि साक्षरता के नाम पर विद्यार्थियों को डिग्री बांटने के लिए काम कर रही है। रंजीत बताते हैं कि आईसीएआर की मान्यता के बिना एग्रीकल्चर कॉलेज नहीं खोले जाने चाहिए, क्योंकि इसी तरह राज्य सरकार की कोई ठोस नीति नहीं है। ऐसे में एक बिल्कुल तकनीकी पढ़ाई, जिसमें किताबों से ज्यादा अनुभव काम आता है, वह कैसे होगी? रंजीत कहते हैं कि देश में नए कृषि संस्थानों की स्थापना के लिए आईसीएआर के नियम कृषि छात्रों के हित में बनाए गए हैं, ताकि उन्हें बेहतर पढ़ाई, प्रायोगिक ज्ञान और अनुभव सब कुछ हासिल हो। इसके तहत किसी भी संस्थान के पास विद्यार्थियों को सिखाने के लिए पर्याप्त फैकल्टी के साथ ही करीब तीस हेक्टेयर तक जमीन और अलग-अलग प्रयोगशालाओं की सुविधा होनी चाहिए। वे सवाल उठाते हैं कि क्या सरकार जिन कॉलेजों में एग्रीकल्चर कोर्स शुरू कर रही है, उन्हें ये सभी सुविधाएं दे रही है?
मप्र में कृषि की पढ़ाई के लिए कुछ शानदार संस्थान हैं। इनमें जबलपुर का जवाहरलाल कृषि विश्वविद्यालय और ग्वालियर का राजमाता विजयाराजे सिंधिया विश्वविद्यालय महत्वपूर्ण हैं। इन्हीं विश्वविद्यालयों से संबंधित कई कॉलेजों में भी कृषि की पढ़ाई होती है। अगर सालाना बजट को छोड़ दें, तो इनके पास कृषि की पढ़ाई करवाने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं।
प्रदेश सरकार ने भले ही नॉन-एग्रीकल्चर कॉलेजों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर बीएससी एग्रीकल्चर का कोर्स शुरू किया हो, लेकिन प्रदेश में कुछेक विश्वविद्यालयों ने इस तरह के कोर्स पहले ही शुरू कर दिए थे। ये संस्थान एक स्वायत्त प्रणाली हैं और इसी के तहत इन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता के बिना ही कोर्स शुरू किए हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक, इनमें से ज्यादातर के पास कृषि की पढ़ाई के लिए जरूरी संसाधन नहीं हैं। ऐसे में यहां के छात्रों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। इन छात्रों के मुताबिक, एग्रीकल्चर की पढ़ाई करने के बाद कई ऐसी सरकारी नौकरियां होती हैं जिनके दरवाजे उनके लिए खुल जाते हैं। इनमें से कई के प्रवेश परीक्षाओं में वे पास भी हो जाते हैं, लेकिन कई में वे काबिल ही नहीं होते। यह नाकाबिलियत दो तरह की है: पहली, उनके पास पर्याप्त प्रैक्टिकल नॉलेज नहीं होता है, और दूसरी, कई परीक्षाओं में आईसीएआर की मान्यता वाले डिग्रीधारक को ही मौका दिया जाता है।
इंदौर जिले के महू में स्थित डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय में भी शायद ऐसा ही किया गया। साल 2015 में जब यह विश्वविद्यालय बना, उसी समय यहां सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई के साथ कृषि की पढ़ाई भी शुरू की गई।
सामाजिक विज्ञान अध्ययन के लिए बनाए गए इस विश्वविद्यालय में आज एग्रीकल्चर कोर्स से ही सबसे ज्यादा आर्थिक मदद मिलती है, लेकिन यहां के छात्रों को किसी तरह की मदद नहीं मिलती। इस विश्वविद्यालय को शुरू करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि यह उनके जीवन का सबसे अच्छा काम है, लेकिन अपनी शुरुआत के बाद से ही विश्वविद्यालय की स्थिति अब तक ठीक नहीं है।
आंबेडकर विश्वविद्यालय में दाखिल होकर कुछ ही कदम चलते ही एक हाईटेक नर्सरी का बोर्ड नजर आता है, जिसके पीछे एक पॉलीहाउस बना हुआ है। इसका उद्घाटन साल 2017 में तत्कालीन कुलपति और कृषि मामलों के विद्वान डॉ. रामशंकर कुरील के कार्यकाल में और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विचारक सुनील आंबेकर के आतिथ्य में किया गया था। अब इस हाईटेक नर्सरी का पॉलीहाउस जर्जर हो चुका है। इसके अंदर और बाहर बड़ी-बड़ी घास उगी हुई है। यहां के लोग बताते हैं कि पिछले तीन-चार वर्षों से इसका कोई उपयोग नहीं हुआ है। हवा के साथ-साथ पॉलीहाउस की पॉलीथीन हर दिशा में उड़ती हुई दिखाई देती है और दूर से ही यहां कृषि कोर्स की हालत का अंदाजा लग जाता है।
बीते साल तक यहां एग्रीकल्चर कोर्स से एमएससी की पढ़ाई भी होती थी, लेकिन किन्हीं वजहों से इस साल से वह पढ़ाई भी बंद हो गई। फिलहाल इस विश्वविद्यालय में बीएससी एग्रीकल्चर की साठ सीटें हैं, ऐसे में सभी सत्रों में मिलाकर करीब ढाई सौ विद्यार्थी यहां पढ़ाई कर रहे हैं।
मप्र के कई जिलों से विद्यार्थी यहां कृषि की पढ़ाई करने के लिए आते हैं। इनमें से एक फैज़ान भी हैं, जो सिवनी जिले से पढ़ने के लिए आए हैं। उन्होंने हाल ही में अपनी चार साल की डिग्री पूरी की है। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का माहौल बताते हुए फैज़ान कहते हैं कि शुरुआत में उन्हें समझ नहीं थी कि बीएससी एग्रीकल्चर की पढ़ाई आईसीएआर से संबंधित किसी संस्थान से करना ज्यादा बेहतर होता है और न ही यह पता था कि यह आंबेडकर विवि आईसीएआर से संबंधित नहीं है। ऐसे में उन्होंने यहां दाखिला ले लिया। लेकिन इसके बाद उन्हें इस भूल का अहसास हुआ।
फैज़ान बताते हैं कि चार साल में उन्होंने बीएससी एग्रीकल्चर की डिग्री पूरी कर ली है लेकिन आज तक उन्होंने फील्ड पर कोई काम नहीं किया है। फैज़ान कहते हैं कि उन्होंने खेती की इस पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय की ओर से किसी भी प्रशिक्षण कार्यक्रम में खेत देखे तक नहीं। वे बताते हैं कि यहां एग्रीकल्चर कोर्स के विद्यार्थियों के लिए जरूरी किसी भी तरह की प्रयोगशाला भी नहीं है।
फैज़ान आगे बताते हैं कि बीएससी एग्रीकल्चर के करीब ढाई सौ विद्यार्थियों की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए यहां एक परमानेंट प्रोफेसर और छह विजिटिंग फैकल्टी हैं। ऐसे में पढ़ाई किसी भी तरह से पूरी नहीं हो पाती। वे कहते हैं कि अपने कोर्स के दौरान उन्होंने दस से बारह गेस्ट फैकल्टी को हर कुछ महीनों में जाते हुए देखा है। स्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि ज्यादातर बार तो क्लास लगती ही नहीं है।
वे कहते हैं कि विश्वविद्यालय में बीएससी एग्रीकल्चर के मुख्य नियमों का पालन भी नहीं किया गया है। इसे समझाते हुए वे कहते हैं कि सिलेबस में छठवें सैमेस्टर में एजुकेशनल टूर होता है, लेकिन वह भी नहीं हुआ। इसके अलावा, सातवें और आठवें सैमेस्टर में रावे (Rural Agricultural Work Experience) के तहत कृषि विज्ञान केंद्रों से अनुबंध करके विद्यार्थियों को ग्रामीण इलाकों में खेती-बाड़ी का अनुभव लेने का मौका दिया जाता है, लेकिन आंबेडकर विवि में यह भी नहीं करवाया गया।
फैज़ान के बैच में सौरभ भी हैं, जिन्होंने अपनी बीएससी की डिग्री पूरी करके एक अन्य यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया है। वे कहते हैं कि उन्हें खुशी है कि उन्होंने डिग्री पूरी कर ली, लेकिन इस तरह से पढ़ाई पूरी करना अच्छा अनुभव नहीं रहा। वे कहते हैं कि विश्वविद्यालयों का काम विद्यार्थियों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा देना है, न कि केवल डिग्री बांटना। सौरभ ने भी अपनी पढ़ाई के दौरान कभी लैब या खेत नहीं देखा।
बीएससी की पढ़ाई कर रहे एक अन्य छात्र भी व्यवस्थाओं के प्रति अपना असंतोष जताते हुए कहते हैं कि उनके क्लासरूम नियमित नहीं हैं। वे कहते हैं कि उनकी कक्षाएं आज यहां तो कल वहां लगती हैं। उन्होंने कहा कि हमने सुना है कि विश्वविद्यालय में लैब है, लेकिन यह कहाँ है, इसका पता नहीं। वे कहते हैं कि इस बार भी उन्हें विजिटिंग फैकल्टी कोर्स शुरु होने के करीब ढ़ाई महीने बाद ही मिली है।
विश्वविद्यालय की आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा एग्रीकल्चर विभाग से ही आता है, लेकिन इस विभाग में विद्यार्थियों के लिए किताबें भी नहीं हैं। एनएसयूआई की छात्र राजनीति से जुड़े विक्रांत सिंह परिहार बताते हैं कि लाइब्रेरी में एग्रीकल्चर के लिए किताबें ही नहीं थीं। इसके लिए उन्होंने कुछ छात्रों के साथ मिलकर विरोध जताया और फिर थोड़ी संख्या में किताबें आईं, लेकिन उनमें भी ज्यादातर अंग्रेजी में थीं। विक्रांत कहते हैं कि गांव-देहात से आने वाले विद्यार्थियों के लिए, जहां हिन्दी में यही विषय पढ़ाने वाले प्रोफेसर भी नहीं हैं, उन्हें बिना सोचे-समझे अंग्रेजी की किताबें खरीद दी गईं।
विक्रांत कहते हैं कि कृषि छात्रों के लिए विश्वविद्यालय ने आज तक किसी भी तरह का प्रायोगिक ज्ञान नहीं दिया। वे बताते हैं कि विश्वविद्यालय से पांच सौ मीटर दूर कृषि उपज मंडी है और तीस किलोमीटर दूर देश का नामी सोयाबीन रिसर्च सेंटर और मशहूर सरकारी कृषि कॉलेज है, लेकिन आज तक विद्यार्थियों को वहाँ भी नहीं ले जाया गया है।
विश्वविद्यालय में एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के प्रमुख और इकलौते फुल टाइम फैकल्टी असिस्टेंट प्रो. अरुण कुमार से जब हमने इस स्थिति के बारे में पूछा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वे विश्वविद्यालय की ओर से बोलने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन दोबारा पूछने पर उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय में फिलहाल कोई लैब नहीं है, लेकिन वे विश्वविद्यालय में मौजूद छोटे प्लॉट्स को तैयार करके विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल करवाने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने बताया कि विभाग की बेहतरी के लिए उन्होंने बजट बनाकर भेजा है। हालांकि इसके बाद प्रो. अरुण कुमार ने आगे कुछ भी नहीं कहा।
आंबेडकर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार राजेंद्र सिंह बघेल कहते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई को संवारने के लिए यहां के वाइस चांसलर रामदास अत्राम लगातार प्रयास कर रहे हैं और इसके लिए आगे कुछ और नए कदम उठाने की योजना है। बघेल कहते हैं कि यह एक प्रयोग है, जो धीरे-धीरे सफल होंगे और निश्चित रूप से विद्यार्थियों के लिए लाभदायक साबित होंगे। उन्होंने कहा कि कोर्स के लिए जरूरी सहूलियतें देने के लिए बजट तैयार हो रहा है। वहीं, जो हाईटेक लैब के रूप में जो खस्ताहाल पॉलीहाउस है, उसके लिए भी उपाय खोजे जा रहे हैं।
जरूरी संसाधनों के बिना एग्रीकल्चर की पढ़ाई पर क्या असर पड़ सकता है, इंदौर के आंबेडकर विश्वविद्यालय की स्थिति इसके बारे में काफी कुछ बताती है। यही वजह है कि प्रदेश सरकार के इस निर्णय का वर्तमान और पूर्व के कई कृषि छात्र विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में एग्रीकल्चर कॉलेजों के प्रोफेसर भी हैं, लेकिन वे शासन की कार्रवाई के डर से इस बारे में खुलकर नहीं बोलने से कतरा रहे हैं। एक प्रोफेसर ने गुप्तता की शर्त पर हमें बताया कि सरकार अगर एग्रीकल्चर की पढ़ाई को बेहतर बनाने की सोच रही है, तो यह बढ़िया काम है, लेकिन इसमें कुछ बदलाव करने चाहिए। वे कहते हैं कि पुराने कॉलेजों में एग्रीकल्चर के नए कोर्स शुरू करने के बजाय, एग्रीकल्चर पढ़ा रहे पुराने कॉलेजों और उनकी यूनिवर्सिटियों को मजबूत किया जाए और नए कॉलेज उनसे जोड़े जाएं। उन्हें साधन संपन्न बनाया जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा छात्र यह पढ़ाई कर सकें।
उच्च शिक्षा विभाग में वर्षों तक सेवा दे चुके बॉटनी के जानकार डॉ. एच. आर. त्रिपाठी कहते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई के बारे में इस गंभीरता से सोचना सरकार की ओर से निश्चित रूप से एक अच्छा कदम है, लेकिन सरकार को इस कोर्स की पढ़ाई की जरूरतें पूरी करने के लिए तैयार रहना होगा। वे कहते हैं कि नए कॉलेजों की जमीनों की कमी को पूरा करने के लिए सरकार को अभी काफी काम करना होगा। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए त्रिपाठी बताते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई साठ प्रतिशत प्रैक्टिकल और चालीस प्रतिशत थ्योरेटिकल होती है, यह एक प्रोफेशनल डिग्री है। बिना कृषि जानकारों और इसके विशेषज्ञों की सलाह के कॉलेजों में सीधे ये कोर्स शुरू करना ठीक नहीं है। इसके लिए एक कमेटी बनाकर फिर आगे बढ़ना चाहिए।
इस बारे में हमने सरकार का रुख समझने के लिए मप्र के उच्च शिक्षा विभाग के कमिश्नर निशांत वरवड़े से बात करने का प्रयास किया। इसके जवाब में विभाग के वरिष्ठ अधिकारी और कमिश्नर के ओएसडी राकेश श्रीवास्तव ने इस विषय पर सवालों के जवाब दिए।
इस नई योजना को समझाते हुए श्रीवास्तव कहते हैं कि यह नई व्यवस्था मौजूदा कॉलेजों का ही अपग्रेडेशन है, जिसके तहत बीएससी एग्रीकल्चर सहित करीब आठ ऐसे कोर्स शुरू किए गए हैं, जो छात्रों को बेहतर रोजगार हासिल करने में मदद करेंगे। श्रीवास्तव बताते हैं कि यह मुख्यमंत्री की योजना है और इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा। वे कहते हैं कि फिलहाल 55 जिलों के कॉलेजों में से केवल 5 ऑटोनॉमस कॉलेजों में ही यह कोर्स शुरू किया जा रहा है। इन कॉलेजों की स्थिति अच्छी है और विद्यार्थियों की पढ़ाई के दौरान प्रैक्टिकल के लिए जमीन की समस्या दूर करने के लिए भी एक योजना बनाई गई है। इसके तहत इन कॉलेजों का आसपास के किसानों से एमओयू करवाया जाएगा, ताकि कॉलेज के विद्यार्थी इनका उपयोग कर सकें। श्रीवास्तव कहते हैं कि इन कॉलेजों को सभी सुविधाएं दी जाएंगी। वे बताते हैं कि आगे की योजना में इन नए कृषि कॉलेजों को आईसीएआर से संबद्ध कराने की है।
श्रीवास्तव बताते हैं कि मप्र सरकार की देखरेख में विक्रम यूनिवर्सिटी एग्रीकल्चर कोर्सेस में बेहतर काम कर रही है और यहाँ आईसीएआर के कोर्स को हूबहू लिया गया है। यहाँ सारे नियमों का उसी तरह पालन किया जाता है। हमारे अन्य कॉलेज भी इसी तर्ज पर एग्रीकल्चर की पढ़ाई करवाएंगे। श्रीवास्तव ने बताया कि महू की आंबेडकर यूनिवर्सिटी पहले जनजातीय विभाग के तहत आती थी और हाल ही में वह उच्च शिक्षा विभाग के तहत आई है। ऐसे में इस परिवर्तन के दौर में कुछ परेशानियाँ हो सकती हैं, जिन्हें जल्दी ही दुरुस्त कर लिया जाएगा।
मप्र सरकार का यह एक बिल्कुल नया कदम है, जिसके नतीजों को लेकर फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। हालांकि जानकार इसे बहुत बेहतर नहीं मानते। महान समाजसेवी बाबा आमटे के साथ काम कर चुके कृषि वैज्ञानिक और मप्र-छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जेकब नीलकेन्नन कहते हैं कि यह कदम ठीक नहीं है। वे कहते हैं कि सरकार खेती को गंभीरता से नहीं ले रही है। खेती के काम में इस तरह कम प्रशिक्षित नौजवानों को लगाना ठीक नहीं है। वे कहते हैं कि अगर खेती की पढ़ाई को गंभीरता से लेना है, तो हाईस्कूल में इसके बैच शुरू करना चाहिए और स्कूलों में कुछ सुविधाएँ तैयार करनी चाहिए। इस काम के लिए पूरी तरह अलग फ्रेमवर्क तैयार करना चाहिए। फिलहाल की स्थिति से पता चलता है कि इससे खेती का कोई लाभ हो न हो, लेकिन इस तरह की डिग्रियाँ बांटने से खाद और बीज कंपनियों को इन नौजवानों के रूप में सस्ती मजदूरी करने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे।
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