उन्नीसवीं सदी में पूर्वी एशिया के चीन से जब सोयाबीन के बीज जब भारत आए तो उन्हें सबसे पहले मध्यप्रदेश की जमीन पर लगाया गया और देखते ही देखते यहां के किसानों ने सोयाबीन को दोनों हाथों से अपना लिया। खेती-बाड़ी के मामलों में आज इस प्रदेश को सोयाप्रदेश पुकारा जाता है क्योंकि देश में यहां सोयाबीन सबसे ज्यादा पैदा होता है लेकिन आज मप्र में सोयाबीन के कई किसान अब इसे छोड़ने तक की बात करने लगे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सोयाबीन वापस अब दस साल पुराने भाव पर हैं।
मप्र के कई इलाकों में किसान सोयाबीन की अपनी फसल को उखाड़कर फेंक रहे हैं। वे अब एक महीने बाद आने वाले सोयाबीन के अगले सीजन का इंतजार भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी पिछले साल की रखी हुई फसल के दाम भी एमएसपी से करीब डेढ़ हजार रुपए तक कम मिल रहे हैं।
दलहन की इस अहम फसल को लेकर किसान कई तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं। सबसे पहली परेशानी है कि सोयाबीन की लागत और मंडी में मिल रहे भाव में लगातार बढ़ रहा अंतर और दूसरी परेशानी है सोयाबीन की उपज में लग रहे कीट जो उत्पादन को लगातार प्रभावित कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में सोयाबीन का उत्पादन गिरा है। इसकी वजह मौसम के बदलाव, किसानों में कम जागरुकता, कम गुणवत्ता के बीज और खाद भी हैं।
ऐसे में मप्र के किसान सोयाबीन को लेकर एक जटिल स्थिति का सामना कर रहे हैं। इस स्थिति में उनके पास फिलहाल इस फसल के अलावा कोई दूसरा ठोस विकल्प नहीं है ऐसे में अगर सोयाबीन में घाटे की आशंका दिखाई दे रही है तो वे उसे खेत से निकालकर मंडी तक ले जाने की परेशानी और अतिरिक्त खर्च से भी बचना चाहते हैं।
इंदौर जिले के गवलीपलासिया गांव के किसान रुपनारायण पाटीदार ने अपनी 13 बीघा जमीन पर लगी सोयाबीन की फसल पिछले दिनों उखाडकर फेंक दी। वे कहते हैं कि बीते साल भी सोयाबीन का अच्छा भाव नहीं मिला था और उन्हें इस बार अपनी फसल से बहुत उम्मीद थी लेकिन इस बार कमजोर बीज और खराब मौसम ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सोयाबीन के पौधे काफी बढ़े लेकिन इनमें फल्लियां नहीं आईं। इस मौसम में रुपनारायण के खेत पूरी तरह खाली हैं, वे अब अगली फसल की तैयारी कर रहे हैं। वे बताते हैं कि इस बार सोयाबीन में करीब डेढ़ लाख रुपए की लागत आई थी यह पैसा भी व्यर्थ गया। रूपनारायण बताते हैं कि उन्हें अब इसी घाटे की चिंता सता रही है। कहते हैं कि बीमा प्रीमियम तो बैंक ने काट लिया था लेकिन अब बीमा राशि की उम्मीद में वे बैंक के चक्कर लगा रहे हैं।
इसी तरह मंदसौर जिले के गरोठ तहसील में रहने वाले किसान कमलेश पाटीदार ने भी अपनी दस बीघा जमीन में लगी सोयाबीन पर रोटावेटर चला दिया। कमलेश के मुताबिक उन्होंने अपनी डेढ़ क्विंटल सोयाबीन पिछले दिनों मंडी में बेची तो दाम केवल 3800 रुपए प्रति क्विंटल ही मिले जिसके बाद से वे दाम बढ़ने का इंतजार कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में बाकी फसल को खेत से निकलवाकर तैयार करके मंडी तक ले जाने में काफी खर्च आता और यह खर्च उनकी लागत को नहीं पाट रहा था। ऐसे में उन्होंने अपनी फसल को ही खत्म कर दिया और अब लहसुन की अगली फसल के लिए खेत तैयार कर रहे हैं।
ऐसी ही कहानी सीहोर जिले के किसान बनवारी लाल की भी है। जिन्होंने मंडी में जब सोयाबीन के दाम सुने तो खेतों से अपनी फसल ही उखाड़ दी।
इंदौर जिले में गवली पलासिया गांव के ही भारतीय किसान संघ से जुड़े किसान सुभाष पाटीदार बताते हैं कि उनके पूरे इलाके में सोयाबीन की यही हालत है। इस बार सोयाबीन के पौधे काफी बड़े बड़े हो चुके हैं लेकिन उनमें फल्लियां नहीं आईं हैं। पाटीदार कहते हैं कि इस बार प्रति बीघा लागत पिछले बार से आधी यानी करीब दो क्विंटल तक ही रहने की आशंका है। ऐसे में लागत निकलना भी मुश्किल है।
मप्र में सोयाबीन की खेती करीब पचास लाख हैक्टेयर से अधिक जमीन पर की जाती है और अगस्त के महीने में ज्यादातर इलाकों से ऐसी ही खबरें आ रहीं हैं, जो बताती हैं कि सोयाबीन उत्पादक किसान उत्पादन बड़ी परेशानी में हैं। प्रदेश के तकरीबन सभी हिस्सों में पीला मोज़ेक रोग सोयाबीन के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। इसके अलावा पिछले दिनों हुई अनियमित बारिश भी फसल के लिए प्रतिकूल साबित हुई है। इसके चलते फसल में कीट लगे हैं जो फूल को काफी पहले गिरा देते हैं। किसानों के मुताबिक खेतों में फसल तो खड़ी नजर आ रही है लेकिन यह बांझ फसल है जो किसी तरह से उनके काम की नहीं है।
विदिशा, होशंगाबाद, जबलपुर, विदिशा, धार, भोपाल, उज्जैन, इंदौर, रतलाम, मंदसौर जैसे दर्जनों जिलों में सोयाबीन की फसल में पर्याप्त फलन न होने की परेशानी दिखाई दे रही है।
इनमें से कई इलाकों के किसान अब मंडी में सोयाबीन के कम भाव के खिलाफ और फसल में हुए नुकसान के बाद फसल बीमा के तहत मुआवज़ा हासिल करने के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
सोयाबीन के कम दाम को लेकर किसानों की नाराजगी को गलत नहीं कहा जा सकता है क्योंकि किसान को सोयाबीन के जो दाम आज मिल रहे हैं वह दस साल पहले भी मिल रहे थे। साल 2014 में मंडियों में सोयाबीन अधिकतम 4400 रुपए प्रति क्विंटल के दाम पर बिक रहा था और की स्थिति में मप्र की ज्यादातर मंडियों में सोयाबीन के भाव करीब 3400 रुपए से 4400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच ही झूल रहे हैं। ऐसे में यह तथ्य भी दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ने खरीफ विपणन सत्र 2024-25 के लिए सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 4,892 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है यानी मप्र में किसान एमएसपी से काफी कम दाम पर सोयाबीन बेचने को मजबूर हैं।
धार जिले में जमीनी स्तर पर सोयाबीन किसानों ने अपनी बात रखते हुए कहा कि किसानों की स्थिति को लेकर कहा जाता है कि किसानों को कई तरह के लाभ और सब्सिडी दी जाती है और उन्हें फसल का दाम भी ज्यादातर बार ठीक ठाक मिल जाता है लेकिन यह सही नहीं है।
किसान रतनलाल बताते हैं कि सोयाबीन का उत्पादन लगातार कम हुआ है और इसके भाव भी किसानों के लिए लाभदायक नहीं हैं। वे कहते हैं कि भाव के बारे में तो अक्सर चर्चा होती रहती है लेकिन किसान की लागत के बारे में कोई नहीं सोचता। ऐसे में रतनलाल हमें सोयाबीन के बुआई से कटाई और मंडी तक ले जाने के खर्च का पूरा गणित और उत्पादन के अनुसार मिलने वाली रकम बताते हैं।
किसान रतनलाल यादव के अनुसार, पिछले दो सालों से उन्होंने अपनी सोयाबीन की फसल को इसलिए रखा हुआ है कि भाव अच्छा मिलेगा, मगर अब तक उचित मूल्य नहीं मिल पाया है। वर्तमान में, सोयाबीन के भाव में गिरावट आई है और उनके इलाके की मंडी में अब यह 3400 से 4000 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है।
बीघा का खर्च और उत्पादन का गणित:
- बीज का खर्च: एक बीघा में 20 किलो सोयाबीन के बीज की लागत 1500 से 2000 रुपये तक होती है।
- भूमि की तैयारी: खेत की दो बार जुताई के लिए 450 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से कुल खर्च 1350 रुपये आता है।
- बोवनी: एक बार बोवनी का खर्च 450 रुपये है।
- रासायनिक दवाईयाँ: खरपतवार नाशक पर 800 रुपये, कीटनाशक पर 3000 रुपये, और फफूंदनाशक पर 800 रुपये खर्च होता है।
- मजदूरी: एक बार की निराई का खर्च 350 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से होता है।
- कटाई: सोयाबीन की कटाई का खर्च 1100 रुपये प्रति बीघा है।
- मंडी और परिवहन: मंडी शुल्क और बोरियों का खर्च 100 रुपये, और डीजल खर्च 1000 रुपये तक आता है।
इन सब खर्चों को मिलाकर, एक बीघा की लागत लगभग 10450 रुपये तक पहुँच जाती है। रतनलाल कहते हैं कि इस दौरान उनकी खुद की और परिवार की मजदूरी नहीं जोड़ी जाती है।
इसके बाद बारी आती है उत्पादन की, जो कि एक बीघा में करीब तीन से चार क्विंटल ही होता है। ऐसे में अगर एक क्विंटल सोयाबीन के लिए फिलहाल मिल रहे दाम (3500 रुपए प्रति क्विंटल) तो अधिकतम 14000 रुपए ही बनते हैं। ऐसे में देखा जाए तो चार महीने की इस फसल में किसान अपनी लागत ही बड़ी मुश्किल से निकाल पाता है। वहीं अगर फसल पर मौसम या रोग की मार पड़ जाए तो लागत भी मारी जाती है जैसा कि इस साल किसानों के साथ हो रहा है।
इस फसल के खर्च को अगर सरकार की नजर से देखें तो कृषि लागत एवं मूल्य आयोग या सीएसीपी (Commission for Agricultural Costs and Prices) की रिपोर्ट में सोयाबीन की उत्पादन लागत 3,261 रुपए प्रति क्विंटल बताई गई है तो भी किसान को होने वाला संभावित लाभ बहुत न्यूनतम है।
इंदौर जिले के गाजिन्दा गांव के किसान विमल पटेल अपनी उपज इंदौर जिले की महू मंडी में बेचने पहुंचे थे। उनका कहना है कि इस बार लागत नहीं निकल रही है लेकिन वे बस इसलिए आए है कि जितना पैसा निकल सके निकल जाए क्योंकि अगर ये भी छोड़ा तो इस नुकसान से निकलना मुश्किल हो जाएगा। पटेल बताते हैं कि उन्होंने अपनी करीब बीस क्विंटल सोयाबीन करीब 3500 रुपए प्रति क्विंटल के भाव में बेची है।
विशेषज्ञ इस बात से इंकार नहीं करते कि फिलहास सोयाबीन के दाम कम हैं लेकिन वे उम्मीद जता रहे हैं कि आने वाले महीनों में इसके दाम बढ़ने वाले हैं। इन विशेषज्ञों के मुताबिक सोयाबीन के दाम अंर्तराष्ट्रीय बाज़ार से तय होते हैं। मध्य प्रदेश ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के सदस्य लाल साहब जाट कहते हैं कि सोयाबीन के रेट अंतरराष्ट्रीय बाजार और डीओसी (खली) की मांग के आधार पर तय होते हैं। अगर किसान सोयाबीन की बुवाई के बाद उसे उखाड़ रहे हैं, तो यह गलत है। नवंबर और दिसंबर में सोयाबीन के रेट फिर से बढ़ सकते हैं। सोयाबीन के रेट डीओसी की मांग पर निर्भर होते हैं। भारत में सोयाबीन का उत्पादन हो या न हो, इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। वे कहते हैं कि ऐसे में किसानों को सोयाबीन के अच्छे रेट के लिए इंतजार करना चाहिए।
बाजार की समझ रखने वाले इन विशेषज्ञों की राय से उलट किसान की स्थिति तय करती है कि वे सोयाबीन को अच्छे दाम के इंतजार में संजोकर रख सकते हैं या नहीं। इस बारे में धार जिले के ही एक किसान गोपाल यादव अपनी कहानी बताते हैं, वे कहते हैं कि सोयाबीन को लंबे समय तक स्टोर करना अब इसे घाटे का सौदा बना रहा है। पिछले दो सालों से सोयाबीन को संभालकर रखने के बावजूद, इसके भाव में कोई वृद्धि नहीं हुई है। सरकार भी इस पर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं दिख रही है। अगर सोयाबीन के भाव में सुधार नहीं होता है, तो आने वाले दिनों में किसान सोयाबीन की बजाय मक्का और अन्य फसलों की बुवाई करने के लिए सोचना होगा।
धार जिले में भी सोयाबीन बड़ी मात्रा में उगाया जाता है लेकिन यहां भी इस बार स्थिति फिलहाल की सूरत में बहुत अच्छी दिखाई नहीं दे रही है। बीते साल नउम्मीद रहे कई किसान अब भी अपनी फसल रखे हुए हैं और इस साल वे भी अच्छे दाम मिलने की उम्मीद में थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में मंडियों में सोयाबीन की बहुत ज्यादा आवक नहीं देखी जा रही है।
जिले की मुख्य अनाज मंडी के सचिव किशोर नरगावे ने बताया कि सीजन के दौरान मंडी में 10 से 15 हजार बोरियों की आवक होती है, लेकिन इस समय सोयाबीन की आवक घटकर 1,878 बोरियों तक सीमित रह गई है। नरगावे के मुताबिक वर्तमान में सोयाबीन के भाव 32 सौ से लेकर 41 सौ रुपये प्रति क्विंटल तक चल रहे हैं। ऐसे में किसान सोयाबीन को अपनी जरूरत के अनुसार ही बाजार में ला जा रहे हैं।
इंदौर के किसान मनमोहन गुणावद कहते हैं कि उनके सोयाबीन में भारी बारिश के चलते कीट और इल्लियों का प्रकोप है और इसके चलते कीटनाशकों में हुए खर्च के कारण उनकी लागत और भी बढ़ गई है। इसके अलावा इलाके में सोयाबीन में होने वाला पीला मोजेक रोग भी है जो सोयाबीन को कमजोर कर रहा है। गुणावद बताते हैं कि आने वाले महीनों में दीपावली का बाजार भी है और बाजार की रौनक किसान से ही होती है और किसान की जेब सोयाबीन ने खाली कर दी है। वे कहते हैं कि सोयाबीन नकद फसल है और सितंबर में पूरी तरह मंडियों में पहुंच जाएगी। ऐसे में अगर किसानों को अच्छा भाव नहीं मिल रहा है तो दीपावली के पहले बाजारों पर भी इसका असर पड़ना तय है।
देवास जिले के युवा किसान रंजीत किसानवंशी अपने साथियों के साथ सोयाबीन की उपज के लिए छह हजार रुपए करने की मांग उठा रहे हैं। वे इसे लेकर लगातार अभियान चला रहे हैं। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर किसान मांग कर रहे हैं कि उन्हें सोयाबीन के दाम 6 हजार रुपए क्लिंटल मिलें। रंजीत बताते हैं कि अब सोयाबीन की फसल में इतना घाटा हो रहा है कि इसके नीचे मिल रहे दाम पर किसान का बच पाना संभव नहीं होगा। ऐसे में किसान विकल्प की तलाश कर रहे हैं। हालांकि रंजीत मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के इस दौर में किसानों के लिए ये विकल्प चुनना भी आसान नहीं है। वहीं अब प्रदेश भर के किसान सितंबर महीने के पहले हफ्ते में अपने अपने इलाकों में सोयाबीन के दाम छह हजार रुपए प्रति क्विटल देने के लिए गांव से लेकर जिला और प्रदेश स्तर तक ज्ञापन देंगे।
मौसम की मार, कम दाम के अलावा सोयाबीन के किसान और भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। इनमें एक समस्या सोयाबीन के उत्पादन में आ रही कमी है। मप्र कांग्रेस के किसान प्रकोष्ठ के अध्यक्ष केदार सिरोही कहते हैं कि मप्र में कम गुणवत्ता वाले बीज और खाद फसलों में होने वाले घाटे का प्रमुख कारण हैं। सिरोही के मुताबिक उनका आंकलन है कि प्रदेश में हर साल केवल इस समस्या की वजह से कृषि अर्थव्यवस्था को करीब 15 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान होता है। वे कहते हैं कि कंपनियां कई बार किसानों तक खराब गुणवत्ता का बीज अच्छा बताकर पहुंचाती हैं और जब किसान इसे बोता है तो आखिर में उसे निराशा होती है। सिरोही का दावा है कि सोयाबीन की बिगड़ रही स्थिति में इस अव्यवस्था का बड़ा हाथ है।
कम गुणवत्ता वाले बीज की समस्या कई किसानों के मुंह से सुनने को मिलती है, नरसिंहपुर जिले में गाडरवाडा के रहने वाले किसान रवि खजांची, किसान संघर्ष समिति के संरक्षक हैं। कम गुणवत्ता के बीज को लेकर वे अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि उनके जिले में सोयाबीन की एक किस्म, ब्लैक बोल्ड, शुरू में तीन वर्षों तक अच्छी रही। लेकिन अब इस किस्म की फसलों में फलियां तो आती हैं, लेकिन दाने नहीं मिल रहे हैं। इससे किसान परेशान हैं और इस समस्या के चलते वे सोचने लगे हैं कि सोयाबीन की फसल उगाना अब फायदेमंद नहीं है।
इसके अलावा केदार सिरोही भारत में सोयाबीन के लगातार कम हो रहे उत्पादन को भी किसान के घाटे के लिए जिम्मेदार बताते हैं। सिरोही के मुताबिक भारत में सोयाबीन की उपज अंर्तराष्ट्रीय स्तर के मुकाबले काफी कम है और या तो यह स्थिर है या फिर थोड़ी गिर रही है लेकिन बढ़ती लागत के सामने यह किसान के लिए घाटे का कारण जरुर बन रही है।
सोयाबीन के किसान अपनी लागत में हो रही बढ़ोत्तरी और बीते एक दशक से तकरीबन एक से दिख रहे भाव से परेशान हैं। किसान कहते हैं कि भारत सरकार सोयाबीन के तेल का आयात लगातार बढ़ा रही है जिससे स्थानीय स्तर पर सोयाबीन की मांग कम हो रही है। ऐसे में बाजार में दाम कम हैं।
लगातार बारिश के कारण सोयाबीन की फसल खराब हो रही है। बारिश हल्की और लगातार होने के कारण सोयाबीन की बढ़वार सामान्य से अधिक हो गई, जिससे फसलें गिरने लगीं। किसान राहुल भाकर और रणजीत सिंह पटेल के अनुसार, इस वजह से कई वेराइटी में कम फूल और फलिया आई हैं। इसके अलावा, फसल पर फंगस और सफेद मक्खी का हमला भी बढ़ गया है, जिससे उत्पादन कम होने की संभावना है। इस स्थिति में सोयाबीन के भाव भी गिर रहे हैं, जो किसानों के लिए चिंता का विषय है।
राहुल भाकर ने बताया कि “हमारी लागत बढ़ गई है, लेकिन उत्पादन घटने की संभावना है। इस समय तेज बारिश नहीं हो रही है, जिससे आगे की फसल के लिए भी चिंता बनी हुई है।” रणजीत सिंह पटेल ने बताया कि “फसल में इल्ली और येलो मोज़ेक जैसी समस्याएँ आ रही हैं, जिससे कई किसान सोयाबीन की फसल को नष्ट कर लहसून लगाने पर विचार कर रहे हैं।”
सोयाबीन किसानों की वर्तमान कठिनाईयों की एक वजह सोयाबीन तेल के आयात से जुड़े निर्णय को भी माना जा रहा है। मध्य भारत FPO फेडरेशन के अनुसार, भारतीय सरकार ने पाम ऑयल के आयात पर शुल्क हटा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप सस्ता पाम ऑयल भारत में उपलब्ध हो रहा है। इसका असर सोयाबीन खाद्य तेल उद्योग पर नकारात्मक रूप से पड़ा है।
पाम ऑयल की अधिक उपलब्धता और सोयाबीन जैसे खाद्य तेलों में इसके मिश्रण का बढ़ता उपयोग भारत में सोयाबीन की खपत को प्रभावित कर रहा है। इससे किसानों को नुकसान हो रहा है, क्योंकि पाम ऑयल के मिश्रण के चलते सोयाबीन तेल की मांग में कमी आई है।
देश के जाने माने कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने मप्र में सोयाबीन किसानों की इस स्थिति पर कहा कि सोयाबीन के दाम क्वालालंपुर के कॉमोडिटी एक्सचेंज पर निर्भर करता है। वहां अगर दाम गिरते हैं तो भारत में भी गिरावट होती है। यह उतार-चढ़ाव किसानों के लिए संकट पैदा कर रहा है, खासकर जब सोयाबीन का दाम बारह साल पहले के स्तर पर वापस आ गया है। यह समस्या केवल भारत में नहीं बल्कि विश्वभर में किसानों के लिए है।
देवेंद्र शर्मा समझाते हुए कहते हैं कि कि किसानों को सही दाम न मिलने की समस्या केवल भारतीय नहीं बल्कि वैश्विक है। वे संयुक्त राष्ट्र की एक बॉडी UNCTAD (UN Trade and Development) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताते हुए कहते हैं कि 1985 से 2005 तक किसानों को मिलने वाले फसल के दामों में महंगाई को समायोजित करके भी देखा गया तो कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई। उन्होंने OECD (Organization for Economic Co-operation and Development) के अध्ययन का जिक्र करते हुए कहा कि 2000 से 2016 के बीच भारतीय किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
शर्मा का मानना है कि सोयाबीन का मौजूदा दाम हमारी आर्थिक नीतियों की गलतियों का साफ संकेत है। उन्होंने कहा कि देश के अर्थशास्त्री किसानों को फसल आने पर तुरंत न बेचने की सलाह देते हैं, लेकिन मौजूदा हालात में यह थ्योरी फेल हो चुकी है क्योंकि सोयाबीन की फसल सितंबर में आने वाली है और किसानों को पिछली फसल पर भी एमएसपी से कम दाम मिल रहे हैं।
शर्मा ने सरकार की नई पेंशन स्कीम एनपीएस पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि अगर मंत्रियों और नौकरशाहों को बाजार पर इतना भरोसा है, तो उनकी सैलरी भी मार्केट लिंक कर दी जानी चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसानों की एकमात्र मांग एमएसपी का कानूनी अधिकार है, जिसे हर हाल में लागू करना चाहिए।
शर्मा ने कहा कि किसानों को अपनी उपज का दस प्रतिशत कम करना चाहिए ताकि मांग बढ़ सके। उन्होंने यह भी बताया कि सरकारें सरप्लस उत्पादन की होड़ में हैं, जिससे इंडस्ट्री को फायदा होता है, लेकिन किसानों को नहीं। खाद्य तेल के आयात पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक समय भारत आत्मनिर्भर था, लेकिन अब वह दूसरे सबसे बड़े आयातक के रूप में उभरा है।
शर्मा ने कहा कि अगर हमें इस स्थिति से निकलना है, तो किसानों और उनके हितों को समझना होगा और उन्हें बाजार की अनिश्चितताओं से बाहर निकालना होगा।
सोयाबीन को लेकर किसानों की समस्याओं को लेकर मप्र के कृषि मंत्री एंदल सिंह कंसाना कहते हैं कि उन्हें अब तक सोयाबीन किसानों की एक सभी समस्या की जानकारी नहीं मिली है। कंसाना के मुताबिक किसानों की समस्या की जो भी जानकारी है वह निराधार है। यह जानकारी भी गलत है कि किसान अपने सोयाबीन को उखाड़कर फेंक रहे हैं। मैं अधिकारियों के पूरे संपर्क में हूं और इसकी एक भी खबर मेरे पास नहीं आई हैं। जब उनसे पूछा गया कि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष ने भी पिछले दिनों एक किसान के द्वारा अपनी सोयाबीन उखाड़ फेंकने की बात कही थी वह भी बेसिरपैर की बात है। कंसाना कहते हैं कि मुझे उनके द्वारा यह लिखकर दिया गया था लेकिन जब मैंने इसका परिक्षण करवाया तो कुछ भी नहीं मिला।
किसानों द्वारा सोयाबीन का छह हजार रुपए प्रति क्विंटल का दाम मांगा जा रहा है इसे लेकर कंसाना कहते हैं कि यह पॉलिसी मेटर है और इसका फैसला पीएम नरेंद्र मोदी और हमारी मुख्यमंत्री मोहन यादव करेंगे जो किसान हितैषी काम कर रहे हैं।
कंसाना ने यह साफ किया कि सोयाबीन किसानों की स्थिति को लेकर किसी तरह की जांच की जरुरत ही नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह निराधार बात है जिसे कांग्रेस ने हवा दी है।
मंत्री कंसाना तक भले ही किसानों की समस्या न पहुंची हो लेकिन किसान अपनी चिंताओं में उलझे हुए हैं। नरसिंहपुर जिले के समनापुर गांव के किसान बाबूलाल पटेल कहते हैं कि वे पछता रहे हैं कि उन्होंने अपनी 30 एकड़ जमीन में से 10 एकड़ के रकबे में सोयाबीन की फसल लगाई थी लेकिन पीला मोजेक और कीट लगने के बाद जो हालात हैं उससे तो इसकी लागत निकालना भी मुश्किल है। वहीं मंडी में जो दाम हैं उनसे भविष्य की भी उम्मीद नहीं रही।
इसे लेकर भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष और नर्मदापुरम संसदीय क्षेत्र के सांसद दर्शन सिंह चौधरी कहते हैं किसानों की समस्याओं के बारे में उन्हें जानकारी है और वे इसे हल करने को लेकर हर संभव प्रयास करेंगे। उन्होंने बताया कि जल्दी ही किसान मोर्चा इस बारे में बैठक कर सोयाबीन किसानों की समस्याओं पर बात करेगा।
देशगांव के आदित्य सिंह के द्वारा यह खबर मूल रूप से मोजो स्टोरी नाम के एक प्लेटफार्म के लिए लिखी गई है, हम इसे साभार ले रहे हैं।