रीना राय सेंगर देश के सबसे गरीब जिले अलीराजपुर में नर्स हैं। वे जिस इलाके में एएनएम के तौर पर नियुक्त हैं वह सोंडवा तहसील में जिला मुख्यालय से 35 किमी दूर ककराना गांव के आसपास का सरदार सरोवर बांध का डूब इलाका है। यह दुर्गम इलाका जिले की सीमा का आखिरी हिस्सा है जहां घने जंगलों और पहाड़ों के बीच से विशाल नर्मदा नदी बहती है। यहां से दूर-दूर तक कोई बड़ी या बहुत सघन आबादी नहीं रहती।
रीना के काम के लिए उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ओर से शाबाशी मिली है। चौहान ने तो उनसे उनके अच्छे काम के लिए खुद फोन पर बात की और इस कठिन काम के लिए उनका धन्यवाद दिया।
रीना कहती हैं कि उन्होंने पांच साल पहले ही नौकरी शुरू की लेकिन यहां काम करना आसान नहीं था। खासकर कोरोना संक्रमण से लेकर वैक्सीन लगाने के अभियान तक उनकी परेशानियां पहले से भी कई गुना बढ़ चुकी थी। यहां संक्रमण का असर तो बहुत ज्यादा नहीं था लेकिन बहुत कम शिक्षित आबादी के कारण जानकारी का अभाव और डर बहुत था। ऐसे में इस कठिन भौगोलिक इलाके में एक बड़ी आबादी को वैक्सीन लगाना सबसे कठिन काम था क्योंकि उनमें वैक्सीन को लेकर डर व्याप्त था जो सोशल मीडिया और एक दूसरे की अधूरी जानकारी ने कई गुना बढ़ा दिया था।
रीना कहती हैं कि ककराना से आगे कच्चे रास्ते से होते हुए वे नदी पार करके पेरियातर, झंडाना, सुगट, बेरखेड़ी, नदिसिरखड़ी, आंजनबारा आदि कई गांवों में लगभग रोज ही जाती थीं।
वे कहती हैं कि जब वे वैक्सीन लगाने के लिए इस तरह के गांवों में जाती थीं तो उन्हें नदी के अलावा विशाल पहाड़ और जंगल भी पार करने होते थे। यहां लोग उस समय लोग संक्रमण से नहीं बल्कि वैक्सीन से घबराए हुए थे। वे बताती हैं कि गांवों में आबादी बहुत कम है और दूर-दूर रहती है लोगों को वैक्सीन लगाने के लिए उनको मनाना पड़ता था और जब वे नहीं मानते थे तो कई बार वे दिन भर वहां बैठकर उनका इंतज़ार करती थीं लेकिन उन्हें दिन भर के बाद शाम को लोगों से जवाब मिलता कि वैक्सीन से वे बीमार हो जाएंगे या मर जाएंगे। ऐसे में लोगों को समझाना बहुत कठिन काम था।
वे बताती हैं कि इस दौरान उन्हें जान का खतरा तो रोज ही था क्योंकि वे बेहद खतरनाक नदी को एक सामान्य सी मोटर बोट से पार करती थीं लेकिन लोग भी कम खतरनाक नहीं थे। वे बताती हैं कि अक्सर उनका वैक्सीन किट छीनने और उन पर हमला करने की भी कोशिश की गई। कुछेक बार जंगली जानवर भी सामने आए उन्हें अपना सामान छोड़कर भागना पड़ा।
रीना के अनुभवों को समझने के लिए भीकू की बात सुननी चाहिए, जो हमें अगस्त के महीने में अलीराजपुर के बस स्टैंड पर मिले। वे वापस अपने काम पर दाहोद जा रहे थे। भीकू से हमने जब कोरोना संक्रमण के दौरान जीवन के बारे में पूछा तो उनका सपाट जवाब था, कि उन्हें कोई संक्रमण नहीं हुआ बस नुकसान काम छूटने का हुआ। भीकू ने भी कभी वैक्सीन नहीं लगवाई। वे बताते हैं कि जब वैक्सीन के लिए डॉक्टर लोग आते थे तो गांव के लोग भागकर जंगल में चले जाते थे। भीकू आज भी वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते, वे कहते हैं कि उन्हें वैक्सीन से ही डर लगता है। जब हमने उनकी तस्वीर लेनी चाही तो उन्होंने सख़्ती से मना किया।
कोरोना संक्रमण के दौरान स्वास्थ्य विभाग के मैदानी अमले को भीकू जैसे हजारों लोगों को वैक्सीन के बारे में समझाना था उन्हें बताना था कि वैक्सीन, बीमारी से बचाव के लिए है। विभाग की एक नर्स नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताती हैं कि उस समय वरिष्ठ अधिकारी वैक्सीन के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए कहते थे लेकिन ग्रामीणों को समझाना आसान नहीं था क्योंकि वे वैक्सीन को ही बीमारी समझते थे।
मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य विभाग के डेटा के मुताबिक दस लाख से अधिक लोग संक्रमित हुए और 10786 की मृत्यु हुई। दिलचस्प बात ये रही कि प्रदेश के आदिवासी आबादी वाले जिलों में कोरोना के कारण हुई मृत्यु की संख्या ज्यादा नहीं रही। इसकी एक वजह आदिवासी नागरिकों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को माना जा सकता है लेकिन दूसरी और ज्यादा अहम वजह इन इलाकों हुआ वैक्सीनेशन था जो बहुत आसान नहीं था।
सरकारी आंकड़ों में अलीराजपुर जिले में कोरोना संक्रमण के चलते अब तक 53 मौतें ही दर्ज हुई हैं। हालांकि लोगों के मुताबिक यह संख्या इससे कहीं ज्यादा थी। आंकड़े बताते हैं कि जिले में कोरोना वैक्सीनेशन की स्थिति संतोषजनक रही है और अब यहां पूरी तरह टीकाकरण हो चुका है। हालांकि साल 2021 में शुरुआती दिनों में जब टीकाकरण प्रारंभ हुआ था तब यहां टीकाकऱण की गति काफी धीमी थी और करीब 15 प्रतिशत से भी कम लोग टीकाकरण के लिए आगे आए थे लेकिन इसके बाद स्वास्थ्य विभाग के अमले ने कुछ तेजी दिखाई और इसके साथ ही लगातार जागरुकता कार्यक्रम चलाए इसका असर ये हुआ कि लोग वैक्सीन लगवाने के लिए सहमति देने लगे।
जिला टीकाकरण अधिकारी एलडीएस फुंकवाल के मुताबिक जिले में कोरोना टीकाकरण का लक्ष्य सौ प्रतिशत रहा है। हालांकि वे इस बात से इंकार नहीं करते कि कुछ लोग इसके बावजूद छूट सकते हैं। डॉ. फुंकवाल की यह शंका असमान्य नहीं है दरअसल अलीराजपुर की भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति ऐसी है कि यह टीकाकरण एक बड़ी चुनौती रहा है और वैक्सीन न लगवाने वाले ज्यादातर संभावित प्रवासी मजदूर हैं जो कभी वैक्सीन के डर से तो कभी काम की जरुरत के आगे गांव से चले गए और वैक्सीन से दूर रहे।
फुंकवाल कहते हैं कि यहां सामान्य टीकाकरण भी काफी मुश्किल काम रहा है लेकिन विभागीय कर्मचारियों ने स्थानीय पंचायतों, शिक्षकों और अन्य जागरुक लोगों की मदद से ग्रामीणों तक पहुंच बनाई और अब बच्चों का सामान्य टीकाकरण यहां अच्छी तरह हो सका है। डॉ. फुंकवाल बताते हैं कि 1से 5 साल की उम्र के बच्चों का टीकाकरण जिले में फिलहाल 104 प्रतिशत पर है।
अलीराजपुर को समझिये…
मप्र के पश्चिमी इलाके में बसा अलीराजपुर देश का सबसे गरीब जिला माना जाता है। 7.28 लाख की आबादी वाले इस जिले में 92 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और ऑक्सफोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव के साल 2018 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार यहां रहने वाले 76.8 प्रतिशत लोग गरीब हैं। जिले में 71 प्रतिशत लोग अति निर्धन की श्रेणी में आते हैं। ऐसे में यहां की परिस्थितियां समझी जा सकती हैं।
शंकर तड़वाल
सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तड़वाल बताते हैं कि बड़ी संख्या में लोग गुजरात जाते हैं और करीब छह से आठ महीने व हीं रहते हैं। वे कहते हैं कि कोरोना के दौरान भी ऐसी ही स्थिति थी। जब पहला लॉकडाउन लगाया गया तो लोग धीरे-धीरे लौटे। इसके बाद दूसरे लॉकडाउन में भी यही स्थिति बनी। तड़वाल बताते हैं कि जब प्रदेश के दूसरे जिलों में बड़े पैमाने पर लोग बीमार हो रहे थे उस समय अलीराजपुर में स्थिति इतनी विकट नहीं थी। लोग सामान्य तौर पर ही एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाकर एक तरह से क्वारंटाइन होकर ही रह रहे थे। ऐसे में यह संक्रमण वैसा नहीं था जैसा अन्य स्थानो पर था।
अलीराजपुर जिला 3182 वर्ग किमी में फैला हुआ है। यहां आबादी विशेषकर ग्रामीण इलाकों में बहुत सघन बस्तियों में नहीं रहती। सामाजिक कार्यकर्ता शंकर तड़वाल आगे बताते हैं कि दूसरे राज्यों और जिले से अपने घर लौटने के बाद लोग अपने गांवों में सामान्य तौर पर रह रहे थे। इसी दौरान कोरोना की वैक्सीन का लगना शुरु हुआ। वे बताते हैं कि यह काफी चुनौतीभरा काम था।
देश-दुनिया से वैक्सीन को लेकर कई तरह की खबरें आईं। सबसे ज्यादा चर्चा इसके दुष्प्रभावों की हो रही थी। तड़वाल कहते हैं कि उनके जिले में 36 प्रतिशत आबादी ही शिक्षित है और ऐसे में वैक्सीन के बारे में उन्हें बहुत जानकारी नहीं थी और न ही वे इसके अच्छे या बुरे प्रभाव को समझ रहे थे। वे याद करते हैं कि सबसे पहले जब नर्सिंग स्टाफ वैक्सीन लगाने के लिए आया तो लोगों ने कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी। कई लोगों ने वैक्सीन लगवा ली लेकिन इसके बाद कुछ लोगों को हाथों में दर्द, चक्कर आने या तबियत बिगड़ने जैसी कई घटनाएं हुईं। ऐसे में लोग डरने लगे और रही सही कसर सोशल मीडिया से मिल रही भ्रामक जानकारियों ने पूरी कर दी। इसके बाद लोगों को वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार करने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी।
अलीराजपुर जिले के सभी ब्ल़ॉक में यही स्थिति थी। यहां अलीराजपुर के अलावा जोबट, सोंडवा, भाबरा, कट्ठीवाड़ा, उदयगढ़ तहसीलें हैं। इन सभी तहसीलों में वैक्सीनेशन को लेकर यही स्थिति थी। ये अधिकारी बताते हैं कि अकेले ये परेशानी ग्रामीण या कम पढ़ी लिखी आबादी की नहीं थी शुरुआत में शहरी आबादी भी कुछ हिचक रही थी और उन्हें समझाना भी मुश्किल हो रहा था लेकिन बाद में यह स्थिति बदल गई।
इन इलाकों में कई स्थानों पर जाना काफी कठिन था लेकिन स्थानीय एएनएम ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई। जिला टीकाकरण अधिकारी डॉ. एलडीएस फुंकवाल बताते हैं उस समय टीकाकरण के लिए उनका पूरा दल करीब सवा सौ फुट गहरे नर्मदा नदी में बोट इन गांवों और फिर उनके उपगांवों जिन्हें स्थानीय भाषा में फलिया कहते हैं तक पहुंचता था। वे बताते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में अपने स्टाफ का मनोबल बनाए रखना बेहद कठिन हो रहा था। ऐसे में डॉ. फुंकवाल ने स्थानीय भाषा में कई तरह के गीत बनाए जिससे कि लोग टीकाकरण के बारे में कोई गलतफहमी न पालें।
ककराना गांव में रहने वाले चौकीदार डीलू बताते हैं कि कोरोना के दौरान हालात ज्यादातर सामान्य थे। वे कहते हैं कि बाहर से आने वाले लोग गांव में रह रहे थे और कई तो जंगल में रह रहे थे। हालांकि जब वैक्सीन लगवाना शुरू हुआ तो लोग घबराने लगे। गांव में कई लोगों ने कहा कि इससे नुकसान होता है। ऐसे में फिर डॉक्टरों की टीम घर-घर दौरे किए और लोगों को जागरूक किया। इसके बाद उन्होंने भी वैक्सीन लगवाई।
हालांकि अब भी जिले में बहुत से लोगों ने वैक्सीन नहीं लगवाई है। कई ग्रामीण अभी भी मानते हैं कि वैक्सीन नुकसानदेह है और वे आगे भी नहीं चाहते कि वैक्सीन लगवाई जाए। जिले के ग्रामीण इलाकों में अब भी कई परिवार मिलते हैं जो बातों-बातों में बताते हैं कि उन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाई है।
वहीं जिले जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता राहुल बनर्जी बताते हैं कि वे कोरोना के दौरान जिले की स्थिति बिल्कुल वैसी नहीं थी जैसी अन्य स्थानों पर थी इसकी वजह थी कि आदिवासियों का जीवन। बनर्जी बताते हैं कि आदिवासी इलाकों में बहुत कम लोग बीमार हुईं और दूसरे स्थानों की तुलना में न के बराबर मौतें हुई। वे कहते हैं कि इस समय भी कई इलाके ऐसे हैं जहां लोगों ने वैक्सीन नहीं लगवाई है। लोग इससे डरकर जंगलों तक में छिप गए थे और ज्यादातर लोग इस बारे में इसलिए तैयार नहीं थे क्योंकि वे बीमार ही नहीं हुए थे।
बनर्जी के कहे अनुसार कई और लोगों ने भी बताया कि लोग सामान्य तौर पर ही अपने गांवों की बस्ती में दूर-दूर बने घरों में रह रहे थे। उनका बाहरी दुनिया से संपर्क नहीं के बराबर था। ऐसे में लोग बीमार नहीं हो रहे थे और यही वजह थी कि वे वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार नहीं थे। उनमें एक तरह की आम राय थी कि जब बीमार नहीं हुए तो दवा किस बात की। ऐसे में मेडिकल स्टाफ के सामने समस्याएं कम नहीं थीं। उन्हें खुद भी कोरोना संक्रमण से बचना था और लोगों को वैक्सीनेशन को लेकर समझाना भी था जो इस इलाके में काफी कठिन काम था।
महामारियों का इकलौता हल वैक्सीन है लेकिन इन्हें प्रभावितों तक पहुंचाना हमेशा से एक कठिन चुनौती रहा है। वैक्सीन अभियानों की सफलता भी देश, काल और परिस्थितियों के साथ वहां के भौगोलिक स्थितियों पर भी निर्भर करती है लेकिन सबसे अहम होता है इस कठिन जमीन पर काम करन वाले एएनएम रीना और डॉ. फुंकवाल जैसे लोगों का योगदान और डीलू जैसे ग्रामीणों की समझदारी। ऐसे में आने वाले दिनों में टीकाकरण कार्यक्रमों को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए ही बनाया जाना चाहिए ताकि वैक्सीनेशन का हर आखिरी नागरिक तक पहुंचने का लक्ष्य पूरा हो सके।
देशगांव पर यह स्टोरी इंटरन्यूज़ के सहयोग से लिखी गई है।