आज से कुछ साल पहले भी जल संकट पर चर्चा होती थी, पर इसकी याद तब आती थी जब गर्मियों का मौसम नजदीक होता था। पानी के लिए लंबी कतारें, सूखते तालाब, गिरता जलस्तर, हर चीज पर चर्चा होती थी, खबरें आती थीं! मीडिया फोटो वीडियो दिखाता था। इसके बाद बारिश होती थी और फिर सब ठीक हो जाता था। तालाब, नदी, पोखर पानी से भर जाते और लोग साल के नौ महीनों के लिए फिर राहत की सांस लेते थे। पर अब पूरा साल पानी चर्चा का विषय बना हुआ। दूरदराज के इलाके में जलस्तर 700 तो कहीं 1000 फुट तक पहुँच चुका है। कई जानकार इसकी वजह जलवायु परिवर्तन को मानते हैं।
राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और कुछ दक्षिण के राज्य तो पहले भी पानी की समस्या से जूझ रहे थे लेकिन अब बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश भी पानी के संकट से जूझने वाले राज्यों में शामिल हो चुके हैं। यूं तो कहने के लिए इन राज्यों में गंगा और नर्मदा जैसी नदियां बह रही हैं पर इनके किनारे पर ही संकट ज्यादा है।
पानी की इस विकराल समस्या को देखते हुए मोबाइलवाणी ने एक अभियान चलाया- क्योंकि जिंदगी है जरूरी- जहाँ अब तक 1000 से ज्यादा लोगों ने अपनी राय और पानी से उनके जीवन में आ रही कठिनाइयों को साझा किया है। इस लेख में कुछ चुनिन्दा राय और परिशानियों को शामिल करेंगे जिससे मुद्दे की भयावहता का अंदाज़ा हो पाएगा।
बिहार के जमुई सोनो प्रखंड के ठाकुर आगरा गांव से मनजीत कहते हैं कि पहले गांव में पानी की कमी नहीं थी। कुएं थे, तालाब और पोखर थे। चापाकलों से भी खूब पानी निकलता था। इसके बाद धीरे-धीरे कुएं और तालाब सूख गए इसलिए उन्हें बंद कर दिया। फिर कुछ साल से चापाकल में भी पानी नहीं है। अब हम लोग जो पानी पी रहे हैं वो प्रदूषित है।
जब घर के लोग बीमार हुए तो डॉक्टर ने कहा कि हमारे यहां का पानी खराब हो गया है। साफ पानी नहीं पीएंगे तो ऐसे ही बीमार होते जाएंगे। गांव में कई गर्भवती औरतें हैं पर वो सभी यही पानी पी रही हैं। बच्चों का भी पेट दुखता रहता है, कई बार तो जन्म लेते टाइम ही बच्चे मर जाते हैं और ये सब इसलिए है क्योंकि हमारे गांव और आसपास का पानी साफ नहीं है।
मनजीत ने जो कहा, वैसे हालात बताने वालों की संख्या सैकड़ों में है। अभियान के तहत बिहार, झारखंड के ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में लोगों ने ये शिकायतें की हैं कि उनके यहां दूषित पानी आ रहा है। इनर वॉयस फाउंडेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि सिंधु-गंगा के मैदानों में कई ऐसे गांव हैं जिनको विधवा-गांव का नाम दिया जाता है। यहां के काफी पुरुषों की आर्सेनिकयुक्त पानी पीने से मृत्यु हो गई है। इस इलाके में शादी होकर आने वाली महिलाओं का भी जीवन बाद में इससे प्रभावित हो जाता है।
गंगा के तटों पर बसे गांवों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा इतनी ज्यादा है कि पानी प्रदूषण के मानक स्तर को पार कर गया है। असल में गंगा बेसिन के भूजल आपूर्ति में आर्सेनिक स्वाभाविक रूप से होता है। इसके अलावा औद्योगिक प्रदूषण और खनन से भी आर्सेनिक आता है। इसकी वजह से अकेले भारत में ही 5 करोड़ लोगों के प्रभावित होने का अनुमान है। इनमें से भी सबसे ज्यादा प्रभावित लोग बंगाल, बिहार और झारखंड में बसे हैं। कुछ स्थानों पर तो आर्सेनिक, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित मानकों से 300 गुना अधिक तक पहुंच गया है।
गंगा के किनारे बसे गांवों में लाखों लोग त्वचा के घावों, किडनी, लीवर और दिल की बीमारियों, न्यूरो संबंधी विकारों, तनाव और कैंसर से जूझ रहे हैं। ये लोग हैंडपंपों और यहां तक कि पाइप के जरिये आने वाले पानी को लंबे समय से पीते रहे हैं जिनमें आर्सेनिक की काफी मात्रा होती है।
भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल 2019 (NHP) के अनुसार, उत्तर प्रदेश के 17 जिलों, बिहार के 11 जिलों के पानी में आर्सेनिक की उच्च मात्रा है। उत्तर प्रदेश के बलिया, बिहार के भोजपुर और बक्सर और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में आर्सेनिक का स्तर 3,000 पार्ट्स पर बिलियन (ppb) पहुंच गया है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुमेय सीमा 10 pbb से 300 गुना अधिक है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, आर्सेनिक के लगातार संपर्क में आने से त्वचा संबंधी समस्याएं होती हैं। साथ ही आर्सेनिक, न्यूरोलॉजिकल और प्रजनन प्रक्रिया को प्रभावित करने के अलावा हृदय संबंधी समस्याओं, डायबिटीज, श्वसन और गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल रोगों और कैंसर का कारण बनता है।
समस्तीपुर जिले के मोइनुद्दीनगर ब्लॉक के छपार गांव के निवासी 63 वर्षीय कामेश्वर महतो आर्सेनिक के जहर से प्रभावित हैं। उन्हें रक्तचाप की परेशानी हो गई। इसकी वजह से वह कांपने लगते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि वो साफ पानी पीते रहें पर कामेश्वर के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है।
वो कहते हैं कि पहले गांव में कुएं पोखर थे। गर्मी के दिनों में यहां पानी कम होता था पर होता था। फिर सरकार ने चापाकल लगा दिए, गांव में पाइपलाइन डाल दी और कहा अब घर पर नल में पानी आएगा पर ऐसा हुआ नहीं। इस पर से कुएं और तालाब भी बंद कर दिए। यानि प्राकृतिक पानी के सारे स्रोत बंद हैं।
मधुबनी से मुन्ना महेरा ने बताया कि गांव के सारे कुएं और पोखर बंद कर दिए हैं। चापकलों से जो पानी आ रहा है उसमें आर्सेनिक है। अब बच्चे वो पानी पीकर बीमार होने लगे हैं। बुजुर्गों को भी पेट दर्द और दूसरी बीमारी हो रही हैं। जब इलाज करवाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जाते हैं तो वहां डॉक्टर तक नहीं होते।
महिलाओं और बच्चों पर असर
पटना स्थित महावीर कैंसर संस्थान ने पाया कि छपार गांव में 100 घरों के 44 हैंडपंपों में डब्ल्यूएचओ की अनुमेय सीमा से अधिक आर्सेनिक की मात्रा थी। डॉक्टर्स कहते हैं कि गर्भावस्था के दौरान आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के चलते गर्भपात, स्टिलबर्थ, प्रीटर्म बर्थ, जन्म के समय बच्चे के वजन का कम होना और नवजात की मृत्यु का जोखिम छह गुना अधिक होता है।
साल 2017 में ‘भूजल आर्सेनिक संदूषण और भारत में इसके स्वास्थ्य प्रभाव’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। एक रिपोर्ट में एक केस का जिक्र है। नादिया जिले की एक महिला थी, जिसका पहला गर्भ प्रीटर्म बर्थ पर समाप्त हुआ। दूसरी बार गर्भपात हो गया और तीसरी बार गर्भ पर बच्चे की नियोनेटल मृत्यु का सामना करना पड़ा। इसके पीछे वजह आर्सेनिकयुक्त पानी का होना था। उसके पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 1,617 ppb और उसके मूत्र में आर्सेनिक की मात्रा 1,474 ppb थी।
बिहार में पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट भोजपुर और बक्सर जैसे प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए काम कर रहा है। नमामि गंगे और ग्रामीण जल आपूर्ति विभाग के तहत उत्तर प्रदेश में जल निगम परियोजना शुरू हुई है। इन योजनाओं के तहत घर घर नल कनेक्शन बांटे जा रहे हैं पर दिक्कत ये है कि भूजल आर्सेनिक पानी से युक्त है।
ऐसे में हर नल से पानी निकल भी जाए तो वो दूषित ही कहलाएगा। जल जीवन मिशन का उद्देश्य 2024 तक प्रत्येक ग्रामीण परिवार को नल का जल उपलब्ध कराना है, हालांकि जब हम आंकड़ों पर गौर करते हैं तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 5.62% है। आश्चर्यजनक रूप से बिहार में यह आंकड़ा उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से काफी अधिक 52% है।
जमुई जिले में जिला मुख्यालय से तक़रीबन 10 किलोमीटर दूर एक गाँव है मंझ्वे – इस गाँव के आखिरी छोर पर सारकारी एक नल लगा है यहीं से सम्पूर्ण ग्रामीण पानी भरते हैं। गाँव के सभी चापाकल सूख गए हैं। अब इस गाँव में 700 फुट से ज्यादा पर पानी मिलता है जिसका खर्च आम तौर दलित मोहल्ला के वासी नहीं कर पाते हैं।
गर्मियों के मौसम में पानी की समस्या की वजह से बहुएं अपने मायके चली जाती हैं, गाँव के कई युवकों की शादी नहीं हो रही है क्योंकि जब शादी करके कोई महिला आएगी तो उसे पाने लेने के लिए दूर गाँव के छोड़ पर जाना पड़ेगा। इस गाँव में नल जल की टंकी तो लगी है लेकिन पानी का पता नहीं।
दिल्ली के खजुरी खास से नज़मा बी कहती हैं कि इलाके में जो पानी सप्लाई हो रहा है उससे पेट दर्द की समस्या होने लगी है। डॉक्टर कहते हैं साफ पानी पीना है नहीं तो ये खतरा और ज्यादा बढ जाएगा।
और खेतों का क्या?
ये तो बात हुई उन क्षेत्रों की जहां लोगों को दूषित पानी पीना पड रहा है पर एक दूसरी समस्या है सूखा। जहां दूषित पानी है वहां लोग बीमार हैं और जहां पानी नहीं है वहां खेत सूख रहे हैं। नतीजतन किसानों का खेती से मोह खत्म होने लगा है। भारत में तीन चौथाई से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं रोजगार के लिए जमीन पर आश्रित हैं जबकि पुरूषों के लिए यह आंकड़ा करीब 60 फीसदी है।
इसके पीछे वजह यह है कि समय पर बारिश ना होने से खेत सूख रहे हैं। फसलें पानी के इंतजार में खराब हो जाती हैं। कुल मिलाकर खेती से अब पहले जैसी कमाई नहीं हो रही जिसके कारण पुरूष नौकरी के लिए शहरों का रुख कर लेते हैं। बावजूद इसके ज्यादातर जमीनें पुरूषों के ही नाम होती हैं। केवल 13 फीसदी महिलाएं ही जमीनों की मालकिन हैं।
जो पुरूष पैसों के चक्कर में शहर आ गए हैं वो यहां आकर भी मजदूरी ही कर रहे हैं पर पानी का संकट तो शहर में भी है। अपने खेत छोडकर काम की तलाश में आए बहुत से मजदूर दिल्ली के गोविंदपुरी के नवजीवन कैंप में रह रहे हैं। यहां उन्हें एक दिन के पानी के लिए 100 रुपए खर्च करने पडते हैं। जिनके पास पैसे नहीं है वो दूषित पानी पी रहे हैं या फिर प्यासे हैं।
कापसहेड़ा से बबलू कुमार बताते हैं कि जो लोग खेती से निराश होकर शहर में काम कर रहे हैं उन्हें साफ पानी के लिए 700 से 800 रुपए महीने का खर्च है। कई जगहों पर तो लोग 2 हजार रुपए तक खर्च कर रहे हैं। नलों में जो पानी सप्लाई हो रहा है वो इतना खराब है कि उससे घर के बच्चे बीमार हो गए।
शहर में आये कामगारों को नहाने धोने, शौच जाने के लिए के लिए पानी की जरूरत पडती है। मकान मालिक ने बिजली और पानी का मीटर लगा दिया है। सर्दियों में तो पानी का बिल 200 रुपये तक आता है लेकिन यही बिल गर्मियों में 500-700 हो जाता है। इसके अलावा पीने के पानी पर 20-30 रूपये प्रत्येक दिन का खर्च करना पड़ता है, वो भी कामचलाऊ पीने के पानी के लिए।
ऐसे में खेत आते हैं महिला किसानों के हिस्से और उन्हें सींचने की जिम्मेदारी भी। देखा जाए तो आपदा की स्थिति में सबसे पहले और सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं और बच्चों का होता है। उन्हें पानी भरना, खाने का इंतजाम करना, मवेशियों की देखभाल और फसलों की चिंता करनी होती है।
बिहार मोबाइलवाणी पर राजेश बताते हैं कि उनके खेत पानी की कमी से सूख गए हैं। पहले साल में 3 फसलें होती थीं, अब मुश्किल से 1 फसल होती है उसमें भी नुकसान होता है। ज्यादातर किसानों ने खेतों में नलकूप लगवाए थे पर उसमें से भी अब इतना पानी नहीं निकल रहा है कि पूरे खेत की अच्छे से सिंचाई हो जाए। जो किसान खेती कर रहे हैं उनके घर की महिलाएं, मवेशी सभी पानी ढोने का काम करते रहते हैं, फिर भी खेत को सींचना इतना आसान नहीं है।
भारत में जल का संकट जनजीवन पर गहराता नज़र आ रहा है। साल 2018 में नीति आयोग द्वारा किये गए एक अध्ययन में 122 देशों के जल संकट की सूची में भारत 120वें स्थान पर खड़ा था। ये स्थिति और भी भयावह हो सकती है, शायद हो भी गई हो! संकट का मतलब ये पानी की कमी है और जहाँ पानी उपलब्ध है वहां पीने लायक पानी की कमी- खेतों, मवेशियों और आम लोगों के लिए!
आलेख सौजन्यः जनपथ.कॉम