भारत ने संयुक्त राष्ट्र के आगे पेश की अपनी लॉन्ग टर्म, लो-एमिशन डेवलपमेंट स्ट्रेटजी


इसके साथ भारत हुआ उन 60 देशों की विशिष्ट सूची में शामिल जिन्होंने अब तक सौंपे हैं यूएनएफसीसीसी को अपनी रणनीति


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भारत ने 27वें पार्टियों के सम्मेलन (कॉप27) के दौरान जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क सम्मलेन (यूएनएफसीसीसी) के समक्ष अपनी दीर्घकालिक कम-उत्सर्जन विकास रणनीति प्रस्तुत कर दी है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री श्री भूपेंद्र यादव, जो भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं, ने दीर्घकालिक कम-उत्सर्जन विकास रणनीति का शुभारंभ किया।

रणनीति की मुख्य विशेषताएं हैं… 

1. ऊर्जा सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय संसाधनों के तर्कसंगत उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। जीवाश्म ईंधन से अन्य स्रोतों में बदलाव न्यायसंगत, सरल, स्थायी और सर्व-समावेशी तरीके से किया जाएगा।

2021 में शुरू किए गए राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन का उद्देश्य भारत को हरित हाइड्रोजन हब बनाना है। बिजली क्षेत्र के समग्र विकास के लिए हरित हाइड्रोजन उत्पादन का तेजी से विस्तार, देश में इलेक्ट्रोलाइजर निर्माण क्षमता में वृद्धि और 2032 तक परमाणु क्षमता में तीन गुना वृद्धि कुछ अन्य लक्ष्य हैं, जिनकी परिकल्पना की गयी है।

2. जैव ईंधन के बढ़ते उपयोग, विशेष रूप से पेट्रोल में इथेनॉल का सम्मिश्रण; इलेक्ट्रिक वाहन के उपयोग को बढ़ाने का अभियान और हरित हाइड्रोजन ईंधन के बढ़ते उपयोग से परिवहन क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। भारत 2025 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को अधिकतम करने, 20 प्रतिशत तक इथेनॉल का सम्मिश्रण करने एवं यात्री और माल ढुलाई के लिए सार्वजनिक परिवहन के साधनों में एक सशक्त बदलाव लाने की आकांक्षा रखता है।

3. शहरीकरण की प्रक्रिया हमारे वर्तमान अपेक्षाकृत कम शहरी आधार के कारण जारी रहेगी। भविष्य में स्थायी और जलवायु सहनीय शहरी विकास निम्न द्वारा संचालित होंगे- स्मार्ट सिटी पहल; ऊर्जा और संसाधन दक्षता में वृद्धि तथा अनुकूलन को मुख्यधारा में लाने के लिए शहरों की एकीकृत योजना; प्रभावी ग्रीन बिल्डिंग कोड और अभिनव ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन में तेजी से विकास।

4. ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘मेक इन इंडिया’ के परिप्रेक्ष्य में भारत का औद्योगिक क्षेत्र एक मजबूत विकास पथ पर आगे बढ़ता रहेगा। इस क्षेत्र में कम-कार्बन उत्सर्जन वाले स्रोतों को अपनाने का प्रभाव- ऊर्जा सुरक्षा, ऊर्जा पहुंच और रोजगार पर नहीं पड़ना चाहिए।

प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना, राष्ट्रीय हाइड्रोजन मिशन, सभी प्रासंगिक प्रक्रियाओं और गतिविधियों में विद्युतीकरण के उच्च स्तर, भौतिक दक्षता को बढ़ाने और चक्रीय अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिए पुनर्चक्रण एवं स्टील, सीमेंट, एल्युमिनियम और अन्य जैसे कठिन क्षेत्रों में अन्य विकल्पों की खोज आदि के माध्यम से ऊर्जा दक्षता में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

5. भारत का उच्च आर्थिक विकास के साथ-साथ पिछले तीन दशकों में वन और वृक्षों के आवरण को बढ़ाने का एक मजबूत रिकॉर्ड रहा है। भारत में जंगल में आग की घटनाएं वैश्विक स्तर से काफी नीचे है, जबकि देश में वन और वृक्षों का आवरण 2016 में कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन का 15 प्रतिशत अवशोषित करने वाला शुद्ध सिंक मौजूद है। भारत 2030 तक वन वृक्षों के आवरण द्वारा 2.5 से 3 बिलियन टन अतिरिक्त कार्बन अवशोषण की अपनी एनडीसी प्रतिबद्धता को पूरा करने के मार्ग पर है।

6. निम्न कार्बन विकास मार्ग को अपनाने में नई प्रौद्योगिकियों, नई अवसंरचना और अन्य लेन-देन की लागतों में वृद्धि समेत कई अन्य घटकों की लागतें शामिल होंगी। हालांकि, विभिन्न अध्ययनों पर आधारित कई अलग-अलग अनुमान मौजूद हैं, लेकिन ये सभी आम तौर पर 2050 तक खरबों डॉलर की व्यय-सीमा में आते हैं।

विकसित देशों द्वारा जलवायु वित्त का प्रावधान बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और इसे यूएनएफसीसीसी के सिद्धांतों के अनुसार मुख्य रूप से सार्वजनिक स्रोतों से अनुदान और रियायती ऋण के रूप में काफी बढ़ाया जाना चाहिए, ताकि पैमाने, दायरे और गति को सुनिश्चित किया जा सके।

पेरिस समझौते के अनुच्छेद 4, पैरा 19 में कहा गया है, “सभी पक्षों को दीर्घावधि में ग्रीनहाउस गैस के कम-उत्सर्जन पर आधारित विकास रणनीतियों को तैयार करने और संवाद करने का प्रयास करना चाहिए और अनुच्छेद 2 के आलोक में विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप अपनी सामान्य, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं को ध्यान में रखना चाहिए।

इसके अलावा, नवंबर 2021 में ग्लासगो में कॉप 26 के निर्णय 1/सीपी.26 में, अन्य बातों के साथ-साथ, (i) उन पार्टियों से आग्रह किया, जिन्होंने अभी तक कॉप 27 (नवंबर 2022) को अपना एलटी-एलईडीएस संप्रेषित नहीं किया है।

उक्त दस्तावेज़ को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा सभी प्रासंगिक मंत्रालयों और विभागों, राज्य सरकारों, शोध संस्थानों व नागरिक समाज संगठनों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है।

भारत का दृष्टिकोण, निम्नलिखित चार प्रमुख विचारों पर आधारित है, जो इसकी दीर्घकालिक कार्बन कम-उत्सर्जन विकास रणनीति को रेखांकित करते हैं:

1. भारत ने ग्लोबल वार्मिंग में बहुत कम योगदान दिया है और दुनिया की आबादी का 17 प्रतिशत हिस्सा मौजूद होने के बावजूद, संचयी वैश्विक जीएचजी उत्सर्जन में इसका ऐतिहासिक योगदान बहुत कम रहा है।

2. विकास के लिए भारत की ऊर्जा आवश्यकताएं महत्वपूर्ण हैं।

3. भारत, विकास हेतु कम-कार्बन रणनीतियों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध है और राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुरूप सक्रिय रूप से इनका अनुसरण कर रहा है।

4. भारत को जलवायु सहनशील होने की जरूरत है।

राष्ट्रीय परिस्थितियों के आलोक में, समानता, साझा एवं अलग-अलग जिम्मेदारियों और सम्बन्धित क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांतों के साथ-साथ “जलवायु न्याय” और “स्थायी जीवन शैली” के दो विषय, जिन पर भारत ने पेरिस में जोर दिया था; कम कार्बन, कम उत्सर्जन वाले भविष्य के केंद्र में हैं।

इसी तरह, एलटी-एलईडीएस को वैश्विक कार्बन बजट के एकसमान और उचित हिस्से के लिए भारत के अधिकार से जुड़े फ्रेमवर्क में तैयार किया गया है, जो “जलवायु न्याय” के लिए भारत के आह्वान का व्यावहारिक कार्यान्वयन है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि पर्यावरण की रक्षा करते हुए भारत के तीव्र विकास और आर्थिक परिवर्तन के दृष्टिकोण को साकार करने में कोई अवरोध न हो।

एलटी-एलईडीएस को पर्यावरण के लिए जीवन शैली- लाइफ (एलआईएफई) की दृष्टि से भी जोड़ा गया है, जो विश्वव्यापी प्रतिमान में बदलाव का आह्वान करता है, ताकि संसाधनों के नासमझ और विनाशकारी उपभोग के स्थान पर सचेत और सोच-विचारकर किए जाने वाले उपभोग को जीवन शैली में अपनाया जा सके।

 

साभार: Climate कहानी   

 

 


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