अब साढ़े सात नदियों को बचाने का जिम्मा! इंसानी जरूरत की प्यास बुझाने की जिम्मेदारी ढोती नर्मदा


नर्मदा नदी पर शहरों की निर्भरता बढ़ रही है, वहीं नर्मदा के आसपास का इकोसिस्टम बिगड़ रहा है और आने वाले कुछ दशकों में इसकी स्थिति भयावह हो सकती है।


निमाड़ अंचल में नर्मदा नदी


देश और ख़ासकर मध्यप्रदेश की सबसे उपजाऊ जमीनों की बात की जाए तो मालवा के पठार बसे इलाकों इसमें ज़रुर आएंगे। यह कोई नई बात नहीं बल्कि सदियों पुराना एक ईकोसिस्टम है। यही वजह है कि इस धरती का परिचय एक पुरानी कहावत से दिया जाता है, मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी डग-डग नीर यानी मालवा की माटी गंभीर है यहां पैदा होने वाले इंसान या फसल दोनों ही खास होते हैं और यह मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि हर कदम पर रोटी या कहें रोज़गार और पानी मिल जाता है। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। मालवा की माटी गहन-गंभीर है और यहां रोटी भी है लेकिन पानी लगातार कम हो रहा है क्योंकि यहां की नदियां सूख रहीं हैं, इसकी वजह लगातार खत्म होते जंगल और नदियों का बिगड़ता ईकोसिस्टम है।

इंदौर से मुंबई जाने के हाईवे पर एक सूखा नाला दिखाई देता है। यह नाला तीन राज्यों से हेकर 965 किमी दूर यमुना में मिलने वाली एक ऐतिहासिक नदी की शुरुआत है जिसे चंबल कहते हैं। यह नाला प्रदेश की तीसरी और मालवा के पठार की दूसरी सबसे उंची चोटी जानापाव से नीचे आता है। हिन्दू पौराणिक मान्यता है कि जानापाव पर ऋषि परशुराम का जन्म हुआ था। चंबल की ही इस चोटी से गंभीर, चोरल, अजनार, नखेड़ी, कारम, रंगरेड जैसी दूसरी नदियां हैं और चम्लो नाम की एक आधी नदी है, आधी इसलिए क्योंकि यह आधी दूरी तक जाती है और फिर इसकी धारा विलुप्त हो जाती है।

जानापाव स्थित कुंड

इस तरह जानापाव साढ़े सात नदियों का उद्गम स्थल कहा जाता है। नदियों का उद्गम जानापाव पर बने एक पवित्र कुंड से माना जाता है। यहां से निकली गंभीर नदी भी राजस्थान तक जाती है। अब स्थिति यह है कि चोरल को छोड़ दें कुछ साल पहले तक लगातार बहने वाली ये नदियां अब जानापाव (महू तहसील) में बारिश के अलावा शायद ही कभी नज़र आती हैं।

जानापाव द्वार

इस इलाके में सालों से रहने वाले पुराने लोग बताते हैं कि उन्होंने इन नदियों को बहते हुए देखा है उनके पानी का इस्तेमाल किया लेकिन इसे भी दशकों हो गए। मांगी लाल नाम के एक सत्तर वर्षीय बुज़ुर्ग बताते हैं कि तब जानापाव की पहाड़ी घनी होती थी गर्मी में जब पेड़ों के पत्ते पीले भी पड़ जाते थे तो भी हरी घास से पहाड़ी ढ़की रहती थी और इसमें से पानी रिस्ता रहता था और फिर नदियां दिखाई देती थीं लेकिन अब ऐसा नहीं है। जानापाव की पहाड़ी अब सूखी नजर आती है। इस पर पेड़ तो हैं लेकिन घास नहीं, वनस्पति नहीं बची है। ऐसे में मिट्टी बारिश के पानी के साथ बह गई और पहाड़ी जैसे वीरान हो गई।

इस इलाके के किसान अच्छी और मुनाफेदार खेती के लिए जाने जाते हैं। सिंचाई के लिए इस इलाके में जमीनी पानी के अलावा कोई और दूसरा साधन नहीं है। ऐसे में पिछले करीब पंद्रह साल से इन साढ़े सात नदियों को पुर्नजीवित करने की मांग चल रही है। इन नदियों को देबारा जीवित करने के लिए कोई ईकोसिस्टम तो तैयार नहीं किया जा रहा है बल्कि करीब 50 किमी दूर नर्मदा से पानी लाने की योजना है। इस योजना पर करीब छह हजार करोड़ रुपये की लागत आएगी और इसका हर महीने का बिजली खर्च ही करीब 6-9 करोड़ रुपये होगा। किसानों के मुताबिक ऐसा होता है तो उनके इलाके हरे-भरे हो जाएंगे और नदियां जिंदा हो जाएंगी।

जानापाव के नजदीक हासलपुर गांव के एक समृद्ध किसान अशोक वर्मा कहते हैं कि पानी आने से इस इलाके की सूरत बदल जाएगी क्योंकि उनकी जमीनें उपजाऊ हो जाएंगी। भारतीय किसान संघ के एक स्थानीय नेता सुभाष पाटीदार कहते हैं कि महू में अगर नर्मदा का पानी आता है तो यहां के करीब 173 गांवों में सिंचाई की सुविधा बढ़ जाएगी। वे कहते हैं कि माइक्रो इरिगेशन तकनीक के माध्यम से इस पानी का इस्तेमाल करेंगे ताकि ज्यादा खर्च न हो और इस तरह पानी की बर्बादी भी बचेगी।

पिछले दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस योजना को मजूरी भी दे दी। अब किसान खुश हैं हालांकि उन्हें नहीं पता कि पानी कब तक आएगा लेकिन उम्मीद है कि आने वाले कुछ सालों में योजना पूरा हो जाएगी।

इंदौर के लिए नर्मदा से पानी लेना कोई नई बात नहीं है। यहां रिवर इंटरलिकिंक जैसी कई योजनाएं लाई जा चुकी हैं। इंदौर के लोग इस समय अपने पीने के पानी के लिए नर्मदा पर ही निर्भर हैं। पिछले करीब 25 वर्षों के दौरान सौ किमी दूर मंडलेश्वर से इंदौर तक पानी लाने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करके तीन पाइप लाइन बिछाई जा चुकी हैं।

इस समय इंदौर शहर के लोग जो पानी पी रहे हैं। नर्मदा से पानी  लाने का खर्च सरकार को 80 रुपये प्रति हजार लीटर आ रहा है वहीं इसकी ऐवज़ में लोगों से लिया जाने वाला राजस्व केवल 24 रुपये प्रति हजार लीटर है। ऐसे में यह पानी बेहद महंगा है लेकिन लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए इसे ठीक माना जा सकता है।

इंदौर शहर को पानी देने वाली नर्मदा पाइपलाइन (फोटो: साभार)

इसके अलावा यहां नर्मदा का पानी सिंचाई के लिए भी लाया जा रहा है। इसके लिए करीब 2200 करोड़ रुपये खर्च करके एक नर्मदा गंभीर सिंचाई परियोजना पर काम जारी है। जो महू से होकर ही निकलती है और उज्जैन जिले की सीमा तक जाती है।   इस योजना से करीब पचास हजार हैक्टेयर में सिंचाई हो पाएगी। इस योजना के आने से रास्ते में पड़ने वाले कई गांव भी खुशहाल हो चुके हैं। इन गांवों में अब सिंचाई के लिए बेहतर स्थिति बन चुकी है। ऐसे में कई इलाकों के लोग नर्मदा से पानी की मांग कर रहे हैं।

महू में जानापाव पर नर्मदा का पानी लाकर नदियों को बचाने और सिंचाई सुविधा बढ़ाने की मांग पंद्रह सालों से हो रही है। यहां के किसान इस बारा काफी गंभीरता से नर्मदा का पानी लाने की मांग कर रहे हैं हालांकि यह इलाका संपन्न है लेकिन किसान चाहते हैं कि पानी की बेहतर सुविधा हो ताकि वे और फसल ले सकें। ऐसे में नर्मदा का पानी लाना ही एक मात्र उपाय है। जिसकी योजना कई बार बनाई जा चुकी है। इस बार फिर इस योजना पर काम शुरु हो रहा है। हालांकि इन मामलों के जानकार इसे दूरदर्शिता वाला विचार नहीं मानते। इन विशेषज्ञों का मत है कि स्थानीय स्तर पर बिना ठोस पर्यावरणीय उपाय किए हुए हर बार नर्मदा के पानी पर निर्भर रहना इस महान नदी के लिए ठीक नहीं होगा।

जल जीवन मिशन के साथ काम कर रहे जियोलॉजिस्ट सुनील श्रीवास्तव भी नर्मदा से पानी लेने की योजना को गलत बताते हैं। वे कहते हैं कि नर्मदा आपके पास एक वॉटर बैंक की तरह है लेकिन अगर आप बिना सोचे समझे, उसके बिना रखरखाव के ही उसका दोहन करते रहेंगे तो यह वॉटर बैंक कभी न कभी तो खत्म होने लगेगा जो कि एक अच्छी स्थिति नहीं है।

महू में जो नर्मदा का पानी लाने की मांग की जा रही है, उसे लेकर किसानों का बड़ा दबाव राजनेताओं पर बनाया जाता रहा है और संभव है कि मंजूरी देने  के बाद अब आने वाली सरकारें भी इसे जल्दी शुरू करने के लिए मान भी जाएं। हालांकि जानकार नदियों के इंटर बेसिन ट्रांसफर को पहले ही विशेषज्ञों ने गलत बताया है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरुआत से जुड़े रहे नदियों के जानकार रहमत कहते हैं कि यह हर तरह से नुकसान वाला काम काम है। वे कहते हैं कि जानापाव से नदियों के उद्गम की जहां तक बात है वह एक भौगोलिक क्षेत्र एक रिज यानी घाटी है जहां पानी के आगे बढ़ने के लिए आदर्श स्थिति बनी और अलग अलग दिशाओं में नदियां निकल पड़ी। अब यह स्थिति नहीं है। इसकी वजह है कि वन खत्म हो रहे हैं और यहां का पर्यावरण बदल रहा है ऐसे में नदियां खत्म हो रहीं हैं।

रहमत कहते हैं कि हर बार अपनी जरुरत के लिए नर्मदा का पानी उधार लेना ठीक नहीं है क्योंकि नर्मदा खुद भी उन्हीं खतरों से गुज़र रही है जिनसे गुजरकर ये छोटी नदियां खत्म हो गईं। नर्मदा के आसपास उसे बारामासी नदी बनाने वाला ईकोसिस्टम अब पहले जैसा नहीं रहा। नदी खुलकर नहीं बह रही है और यह आदर्श स्थिति नहीं है। ऐसे में नर्मदा से बार बार पानी लेना उसकी स्थिति कमजोर कर रहा है।

ऐसे में कि यह पाइप लाइन अगर बनती है तो संभव है कि आने वाले कुछ सालों से अच्छी तरह चले लेकिन लंबे वक्त तक इस पर निर्भर रहना अक्लमंदी नहीं है। रहमत बताते हैं कि इंटर लिंकिंक और इंटर बेसिन ट्रांसफर को वैज्ञानिकों ने पहले ही खारिज कर दिया था लेकिन यह व्यवहारिक रुप से सफल नहीं है। नर्मदा और मालवा के पठार के बीच एल्टिट्यूड का काफी अंतर है। इसमें बिजली का खर्च ज्यादा है। जो हर महीने देना होगा।

इंदौर के रहने वे पर्यावरणविद अभिलाष खांडेकर इंडिया रिवर फोरम की कोर कमेटी और मप्र में वेट लैंड अथॉरिटी के सदस्य हैं। वे कहते हैं कि नदियों को उनके प्राकृतिक स्वरुप में ही बचाना जरुरी है न कि उन्हें इस तरह से किसी और नदी का पानी लाकर पानी मिला देना।

अभिलाष खांडेकर

खांडेकर कहते हैं कि नर्मदा का पानी सिंचाई के अलावा लोगों के पीने के लिए भी लिया जा रहा है। इसके अलावा नर्मदा की इकॉलॉजी, कैचमेंट और जंगलों को बचाकर ही नदी का संरक्षण करना होगा है। खांडेकर के मुताबिक जानापाव की इन नदियों को बचाने का एक मात्र तरीका है कि इन्हें अपने मौजूदा हाल में ऱखा जाए और उनके आसपास पर्यावरण को सुधारा जाए। खांडेकर कहते हैं कि इस मामले में अन्य विशेषज्ञों का मत है कि अगर लगातार पानी लिया जाता रहा और नर्मदा के आसपास के इलाकों का ईकोसिस्टम नहीं सुधरा तो अगले बीस पच्चीस साल में नर्मदा सूखने लगेगी।

जानापाव से निकलने वाली ये नदियों का सूखना कोई बहुत बड़ी बात नहीं लेकिन ज्यादातर का अस्तित्व ही खतरे में है और यह एक परेशान करने वाली बात है। हालांकि इसमें खुद इंसानी दखल ही जिम्मेदार है।

महू में ही नदियों के रास्तों को नुकसान पहुंचाया गया और उनमें बड़ी मात्रा में शहरी और औद्योगिक गंदगी फेंकी गई ऐसे में ये नदियां जैसे खत्म होती जा रही हैं। जानापाव से निकलने वाली गंभीर महू शहर से होकर गुजरती है जहां इसमें फेंका जाने वाला शहरी कचरा इसे किसी प्लास्टिक की नदी जैसा बना देता है। गंभीर नदी के इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि कैसे नदी के ईकोसिस्टम को बिगाड़कर उसे एक नाले में तब्दील किया जाता है।

इस तस्वीर में महू के जानापाव से निकलने वाली गंभीर नदी है और नर्मदा के पानी को इंदौर शहर तक पहुंचाने वाली पाइपलाइन भी दिखाई दे रही है।

नदियों के इसी ईकोसिस्टम को बचाने के लिए कुछ साल पहले मप्र सरकार ने भी कवायद की और इसके किनारों पर 15 करोड़ पेड़ पौधे लगाए। इनमें छोटे पौधे के अलावा बड़े पेड़ भी शामिल थे। इस अभियान में प्रदेश में नर्मदा के सभी किनारों पर पौधारोपण हुआ था हालांकि अब इनमें से ज्यादातर पौधे खत्म हो चुके हैं। दरअसल जानकार कहते हैं कि पेड़ लगाना कोई उपाय नहीं है बल्कि जरुरी है नदियों के आसपास की वनस्पति बचाना उनमें होने वाला खनन रोकना और उसकी सहयोगी धाराओं-नदियों को बिना छेड़छाड़ के बहने देना।

देश के जाने माने हाइड्रोलॉजिस्ट सुधींद्र मोहन शर्मा जानापाव की नदियों के खत्म होने को भी इसी ईकोसिस्टम से जोड़ते हैं। हालांकि उनके पास इस ईकोसिस्ट के खत्म होने का एक और कारण है। वे कहते हैं कि गांवों में पशुओं की संख्या बढ़ने से यहां की पहाड़ियां उनकी चारागाह बन गईं और इस तरह से यहां की प्राकृतिक वनस्पति खत्म होने लगी और इसके साथ मिट्टी बहती रही और पहाड़ों की बाहरी सतह पर पत्थर रह गए।

सुधींद्र मोहन शर्मा

यही वजह रही कि धरती ने पानी सोखना कम कर दिया। ऐसे में अगर जानापाव पहाड़ी को वहां की वनस्पति को बचाया जाए तो कुछ अलग कहने की जरुरत नहीं ये नदियां अपने आप अगले कुछ सालों में बहने लगेंगी।

नर्मदा के पानी को यहां लाने के सवाल पर वे कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो यह एक कॉस्मेटिक या सिंथेटिक एक्ससाइज़ होगी क्योंकि यह उपरी तौर पर किया गया काम है जो कभी सफल नहीं होगा। नर्मदा का पानी इन नदियों में लाना एक तरह से उधार का पानी और उधार की पहचान लेना है।

ऐसे में नदियां कितने दिनों तक बची रहेंगी और पानी खेतों तक कितने दिनों तक आएगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि इसका खर्च लगातार बढ़ता रहेगा। वे कहते हैं कि इस इलाके में हर कहीं एक एकड़ जमीन पर बारिश का एक करोड़ लीटर पानी जुटाया जा सकता है ऐसे में किसान सरकार से इस पानी को जुटाने की व्यवस्थाएं बनाने की मांग करें क्योंकि उधार के पानी से अपनी खत्म की हुई नदियों को जिंदा करना आने वाली पीढ़ियों के लिए ठीक नहीं होगा।

 

 


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