महू (इंदौर)। बदलती जरुरतों के साथ हमारी दुनिया भी काफी बदल रही है। अब दुनिया में सरल जीवन जैसी बातें करना भी कठिन है। महात्मा गांधी का कहना था कि प्रकृति के पास आपकी जरूरत के लिए सब कुछ है, लेकिन आपके लालच के लिए नहीं। आज प्रकृति से लालच की खुराक ज्यादा ली जा रही है और इसका असर हमें बेहद साफ नज़र आ रहा है। फिलहाल हमारी दुनिया के पर्यावरण की स्थिति निराश करने वाली है, लेकिन इस निराशा में संतोषजनक जीवन जीने के लिए कुछ उपाय मौजूद हैं।
इंदौर के नज़दीक महू छावनी में रहने वाले ले. कर्नल (रिटा) अनुराग शुक्ला भी ऐसे ही हैं जिन्होंने 21 साल की नौकरी करते हुए सन् 2005 में रिटायरमेंट के बाद अपनी आगे की जिंदगी सादगी से जीने की सोची है। अपनी जरुरतों को समेटकर जब उन्होंने प्रकृति के साथ जीवन जिया तो प्रकृति ने उन्हें निराश नहीं किया।
अनुराग शुक्ला और उनकी पत्नी अर्चना आज पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल जीवन जी रहे हैं। महू छावनी के नज़दीक अपने एक एकड़ के फार्म हाउस में उनका घर भी है और इसी धरती पर वे करीब तीन सौ पेड़ों के बीच पचास से अधिक किस्म की फसल और दूसरे उत्पाद लेते हैं। उनका पूरा जीवनचक्र अपनी इसी दुनिया के इर्द-गिर्द घूमता है।
ये दंपत्ति अपनी इस सस्टेनेबल लाइफस्टाइल के लिए जाने जाते हैं। वे कहते हैं कि प्रकृति उन्हें वह सब कुछ दे रही है जिसकी उन्हें जरूरत है और बदले में वे बस इतना कर रहे हैं कि प्रकृति को अपनी इच्छा के अनुरूप बदलने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। अनुराग बताते हैं कि उनमें और प्रकृति में यही एक समझौता है और इसी के बदौलत दोनों के बीच अच्छी बन रही है।
एक एकड़ का फार्म और उसमें मकान और तमाम तरह के इंतज़ाम, ऐसे में खेती के लिए करीब आधा एकड़ के आसपास ही जमीन बचती है, लेकिन इसमें भी वे सालाना करीब दो-तीन लाख रुपये की कमाई और बचत कर लेते हैं। ये सुनने में आश्चर्य भरा है, लेकिन सच है। इस परिसर में पूरी तरह प्राकृतिक खेती होती है और स्वच्छ उर्जा का उपयोग होता है।
यहां सूरज की रोशनी से ही बिजली, जलती है और खाना पकता है। पूरी खेत में होने वाली पूरी उपज बिना किसी रासायनिक खाद के उगाई जाती है और उसी से एक तरह के उत्पाद बनाकर उन्हें बेचकर कुछ पैसा और उगाकर तथा इस्तेमाल करके सेहत भी मिल जाती है।
अनुराग समझाते हुए कहते हैं कि
वे ऐसा अपनी जमीन पर झूम फार्मिंग से मिलता-जुलता तरीका अपनाकर खेती कर रहे हैं। इस तरह एक हिस्से की जमीन को खाली छोड़ देते हैं और उसमें वनस्पति उगने देते हैं और इस दौरान दूसरे हिस्से पर खेती करते हैं। इसके करीब दो-तीन वर्षों बाद उस जमीन पर से सारी वनस्पति हटाकर उसी जमीन की निदाई और सफाई कर उसमें कई तरह के बीजों की बुआई कर दी जाती है। ऐसे में दो तीन साल तक जब तक उस जमीन में उर्वरकता बनी रहती है उस जमीन पर खेती की जाती है और फिर बाद में जमीन के दूसरे हिस्से को इसी तरह उपयोग में लिया जाता है और एक हिस्से को आराम दिया जाता है।
वे बताते हैं कि इंसान और जंगल का सहअस्तित्व जरूरी है और इस तरह जमीन को आराम भी मिलता है और फिर उसमें जो भी फसल लगाई जाती है वह बेहद अच्छा उत्पाद देती है। खेत के चारों ओर लगे पेड़ों के नीचे कई कंद और बोए जाते हैं और उनकी लताएं इन पेड़ों पर जाती हैं।
अनुराग बताते हैं कि
यह खेती का आदिम तरीका है जो उनके लिए कारगर साबित हुआ है। वे बताते हैं कि वे पुराने तरीकों से खेती करना पसंद करते हैं और कई तरीके अपनाते रहे हैं। अपनी छोटी सी जमीन में फिलहाल उन्होंने करीब पंद्रह से अधिक तरह की फसलें लगा रखी हैं। इनमें हल्दी, सोंफ, अलसी, तुअर, गराड़ु, शकरकंद, स्वीट पोटेटो, अजवाइन और भी कई तरह की फसलें हैं।
अनुराग बताते हैं कि वे अपनी अनाज की जरूरत भी कई बार इसी जमीन से पूरी कर लेते हैं। इस तरह खेती करने से उपज भी बड़ी अच्छी होती है और बीज को मिट्टी और पर्यावरण का पूरा पोषण मिलता है। इसकर असर बहुत साफ दिखाई देता है। कुछ समय पहले इसी खेत में सौ किलोग्राम से अधिक का एक गराड़ु (एक कंद) पैदा हुआ था।
पौधों को पूरा पोषण देने के लिए उन्होंने इस बार बोरियों में खेती करने की कोशिश भी है और अब तक यह प्रयोग सफल दिखाई दे रहा है। वे कहते हैं कि इस तरह खेत से अलग पड़ी जमीन पर भी खेती कर सकते हैं। यह प्रयोग जबलपुर की जवाहर लाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय में हो चुका है और कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि इसकी मदद से किसान आधा एकड़ में खेती करके पचास हजार रुपये तक का लाभ कमा सकते हैं। इस मॉडल को जवाहर मॉडल कहते हैं।
अनुराग बताते है कि
इस खेती में हल्दी की सबसे ज्यादा मांग होती है। हल्दी, जो एक बेहद उपयोगी फसल है, उसे लोग इसे पूरी तरह ऑर्गेनिक चाहते हैं। वे कहते हैं कि जमीन के एक हिस्से में वे काफी मात्रा में हल्दी उगा लेते हैं और फिर हर बार उनके पास इसके लिए तय ग्राहक होते हैं। इसी तरह कुछ दूसरे उत्पादों के लिए भी उनके पास तय ग्राहक रहते हैं।
इसके बाद उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा सूरज के सहारे बनता है। दरअसल यहां उगाए जाने वाले ज्यादातर उत्पादों को लंबे समय तक रखने के लिए उन्हें सोलर ड्राय करके रखा जाता है। इस तरह यहां अजवाइन को सुखाकर ओरेगेनो बनाया जाता है तो केले को सुखाकर उसके चिप्स, नींबू, आंवला, कठहल, सुरजना, पपीता आदि तमाम तरह के उत्पाद सुखाकर रख लिए जाते हैं और फिर उनकी मांग सालभर बनी रहती है। इस तरह ये उत्पाद खराब भी नहीं होते और इनसे कमाई भी होती रहती है। कई बार इन उत्पादों की मांग इतनी होती है कि इन्हें पूरा करना भी मुश्किल हो जाता है। वे अब तक रबड़ी को भी ड्राय करके उसे पाउडर फार्म में बदल चुके हैं। अनुराग बताते हैं कि यह मांग उन लोगों की होती है जो अच्छा और स्वस्थ भोजन करना पसंद करते हैं और कई उत्पाद इस बार विदेश भी गए हैं। वहीं भारत के महानगरों में रहने वाले उनसे जुड़े लोग अक्सर इनकी मांग करते रहते हैं।
सोलर ड्राय करने के लिए घर की छत पर कई तरह के उपकरण रखे हुए हैं जिनमें काम लगातार चलता रहता है। हालांकि बारिश के दौरान यह काम काफी हद तक कम हो जाता है या कहें कि रुक भी जाता है।
इस परिवार ने अपनी एलपीजी की जरूरत का भी हल निकाला है। लोग जहां महंगे गैस सिलेंडर से परेशान रहते थे तो वहीं शुक्ला परिवार ने बायो गैस के सहारे अपना खाना बनाना शुरू कर दिया। बायो गैस के लिए गोबर उन कुछ गायों से आता है जिन्हें परिवार ने अपनी डेयरी उत्पादों की जरूरत पूरी करने के लिए पाला है।
हालांकि इन दिनों उनका बायो गैस बंद है और काम सोलर से ही हो रहा है। इनके पास सोलर उर्जा से चलने वाले प्रेशर कुकर और खाना पकाने के दूसरे उपकरण हैं। परिवार के मुताबिक इनका उपयोग करने पर काफी बचत होती है और खाना भी पूरी तरह शुद्ध उर्जा से ही बनता है।
बिजली के खर्च का हल भी सोलर उर्जा ही है। वे बताते हैं कि करीब आठ साल पहले उन्होंने घर पर एक किलोवाट का सोलर प्लांट लगाया था। इससे बिजली बनने लगी और इसके बाद उन्होंने इसे पांच किलोवाट तक कर दिया। अब वे 25 यूनिट तक प्रतिदिन की बिजली बना लेते हैं और इसमें से करीब 10-12 यूनिट बिजली प्रतिदिन इस्तेमाल करते हैं।
अनुराग अपने जीवन का फलसफा बताते हुए कहते हैं कि
शाश्वत जीवन शैली में पांच चीजें जरुरी हैं। ये हैं हवा, पानी, खाना, ठिकाना और आवरण और अगर ये आप अपने आसपास ही बना लें तो आपको बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं होती क्योंकि इनके आसपास होने से सभी तरह की उर्जा और पैसा बचता है।
आसपास के कई ग्रामीण खेती का यह तरीका देखने आते हैं। अनुराग बताते हैं कि ऐसी खेती करना या इसके बारे में सोचना भी आसान नहीं है क्योंकि पहले तो पूरी तरह ऑर्गेनिक खेती के लिए काफी समय चाहिए और दूसरा कि प्रकृति से मिलने वाले उत्पादों को संतोष के साथ लेने की समझ जो सभी में नहीं होती। हालांकि कई लोग उनके साथ आगे बढ़ रहे हैं और आसपास के बहुत से परिवारों ने अब सोलर कुकिंग शुरू कर दी है वहीं कई किसान सौर उर्जा का उपयोग भी करने लगे हैं।
ऐसे में उनके पास आने वाले किसान उनकी खेती के कुछेक तरीके अपनाते हैं, लेकिन पूरे नहीं। खेत के एक हिस्से में एक छोटा सा तालाब बनाया गया है। इस तालाब में बारिश का पानी एकत्रित करके छोड़ दिया गया है। इसे कभी छेड़ा नहीं जाता तो इसका असर भी नजर आता है। तरह-तरह के पक्षी अक्सर इस छोटे से तालाब में पानी पीने आ जाते हैं।
अनुराग की पत्नी अनीता बताती हैं कि
पानी की जरूरत जमीन से पूरी होती है। हालांकि यहां पास में ही इंदौर की ओर जाने वाली नर्मदा की पाइपलाइन निकल रही है, लेकिन वे इसका पानी नहीं लेना चाहते हैं। नर्मदा का पानी लेने से अपराध बोध होता है कि वे बिना खास जरूरत के ही नदी का कीमती पानी उपयोग कर रहे हैं।
इस तरह यह घर पूरी तरह सौर उर्जा, बायो उर्जा और इंसानों की मांसपेशीय जनित उर्जा से चलता है। यह उर्जा का सबसे स्वच्छतम स्तर माना जाता है। हमारे जीवन में प्रकृति कितनी जरुरी और कारगर साबित हो सकती है, यह इस परिवार की जीवन शैली से समझा जा सकता है।