कठफोड़वा, कौए गायब और अब बया भी हो रहा दुर्लभ


नरसिंहपुर जिले में बया पक्षी और अन्य प्रजातियों जैसे कठफोड़वा, कौवे, और गिद्ध की संख्या तेजी से घट रही है। बदलते मौसम, रासायनिक खेती और कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के कारण इन पक्षियों का अस्तित्व संकट में है। पहले बड़ी संख्या में दिखने वाले बया पक्षी अब विलुप्ति की कगार पर हैं, जिससे जिले की जैव विविधता पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार, यह संकट रासायनिक पदार्थों और पर्यावरणीय बदलावों से जुड़ा हुआ है।


ब्रजेश शर्मा
हवा-पानी Updated On :

यदि आप बया पक्षी के घोंसले को देखेंगे तो मन खुश हो जाएगा। यह पक्षी सूखे तिनकों को गूंथकर अपना शानदार और अनोखा घरौंदा बनाता है। घोंसले बनाने की उसकी प्राकृतिक कारीगरी के सामने आधुनिक इंजीनियरी भी फीकी पड़ जाती है। परंतु अब कठफोड़वा, कौवे, नीलकंठ और गिद्ध की तरह यह पक्षी भी प्रकृति से दुर्लभ होता जा रहा है। जल्द ही इसका अस्तित्व हमारे आसपास के वातावरण से मिट सकता है।

 

बया पक्षी, जिसे अंग्रेजी में बया वीवर (Baya Weaver) कहा जाता है, बड़ी कुशलता से पेड़ की टहनियों के निचले भाग पर अपना घोंसला बनाता है। सूखे तिनकों की महीन कारीगरी से बनाए गए उसके घोंसले दो से चार फुट लंबे होते हैं और इतने मजबूत होते हैं कि कई किलोग्राम का भार सहन कर सकते हैं।

कठफोड़वा को जानिए

इन घोंसलों की विशेषता यह है कि बया पक्षी के अंडे और उसके बच्चे इनमें पूरी सुरक्षा के साथ रहते हैं। इनके अंडों और चूजों को सांप या अन्य पक्षी नुकसान नहीं पहुंचा सकते। ग्रामीणों के अनुसार, इन घोंसलों को बनाने में बया के नर पक्षी की विशेष भूमिका होती है। वह तिनकों को चुन-चुनकर इन्हें बुनता है। जब घोंसले तैयार हो जाते हैं, तब मादा बया बारी-बारी से उन्हें देखती है और जो उसे पसंद आता है, उसमें अंडे देती है। विशेष बात यह है कि यदि मादा को लगता है कि घोंसले में कुछ सुधार की आवश्यकता है, तो वह भी उसे पूरा करने में सहयोग करती है।

बया पक्षी

ग्रामीण बताते हैं कि आमतौर पर बया पक्षी समूह में रहते हैं और एक ही पेड़ पर अपने घोंसले बनाते हैं। जब किसी पेड़ पर घोंसलों की संख्या अधिक हो जाती है, तो वे आसपास के इलाकों में नए पेड़ तलाशते हैं। ऐसे पेड़ प्रायः खेतों के आसपास होते हैं, जो बहुत ऊंचे नहीं होते।

 

नरसिंहपुर जिले के कई गांवों और आसपास के वन क्षेत्रों में बया पक्षी के घोंसले पहले अधिक दिखाई देते थे, पर अब प्रकृति के ये अनूठे कारीगर लगभग समाप्ति की कगार पर हैं। आमगांव नरसिंहपुर के रास्ते निवारी गांव के निकट कई पेड़ों पर इन पक्षियों के घोंसले लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। निवारी वह ग्रामीण क्षेत्र है जहां पान की खेती होती है।

 

जैव विविधता अब अस्तित्व संकट में

नरसिंहपुर जिला आमतौर पर जैव विविधता के मामले में काफी समृद्ध रहा है। यहां गाडरवारा में शक्कर नदी के तट पर कुछ समय पहले डायनासोर के अंडे पाए गए थे। नर्मदा से लगे ग्रामीण क्षेत्रों में कई तरह के जीवाश्म भी मौजूद हैं। परंतु अब यह जैव विविधता वाला इलाका तेजी से बदलती आबोहवा, जलवायु परिवर्तन और खेती-बाड़ी के नए तरीकों से प्रभावित हो रहा है। शायद यही कारण है कि जिले में पहले बड़ी संख्या में पाए जाने वाले कठफोड़वा, कौवे, नीलकंठ और गिद्ध लगभग गायब हो गए हैं। अब चिड़िया और बया पक्षी का अस्तित्व भी संकट में है और इनकी संख्या धीरे-धीरे घट रही है।

 

नरसिंहपुर में उपसंचालक पशु चिकित्सा सेवाएं डॉ. असगर खान के अनुसार, प्रकृति के सफाई कर्मी कहे जाने वाले गिद्ध भी पशुओं के इलाज में दी जाने वाली दवा डाइक्लोफेनाक के बढ़ते प्रयोग से संकट में पड़ गए हैं, जिससे गिद्ध की प्रजाति जिले से लगभग विलुप्त हो गई है।

 

कृषि विज्ञानी, कीट रोग नियंत्रण एवं पादप संरक्षण विशेषज्ञ डॉ. एस. आर. शर्मा का कहना है कि कौवों की संख्या घटने का एक कारण यही हो सकता है। डॉ. शर्मा के अनुसार, फसल उत्पादन में रासायनिक पदार्थों के बढ़ते उपयोग और जलवायु परिवर्तन का असर इनके जनसंख्या पर पड़ रहा है। पशुओं को दिए जाने वाले चारे में भी अब अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है।

 

उधर, खेतों और फसलों में लगातार बढ़ रहे उर्वरक और कीटनाशकों के कारण प्रभावित कीड़े-मकोड़े जब कठफोड़वा, चिड़िया या बया जैसे पक्षियों के भोजन बनते हैं, तो उनके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है। शायद इसी वजह से इनकी संख्या घट रही है। जिले में तितलियों की भी कई प्रजातियां पहले ही समाप्त हो चुकी हैं।

 





Exit mobile version