नियम विरुद्ध की जा रहीं ग़ैर-ज़रूरी नियुक्तियों के चलते वित्तीय संकट में फंसा आंबेडकर विश्वविद्यालय


आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्याय में सलाहकारों की नियुक्तियां की गई हैं। इन पर सालाना पचास लाख से अधिक खर्च होंगे। ये नियुक्तियां तब की जा रहीं हैं जब विश्वविद्यालय के पास अपने खर्चे के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं हैं। इन नियुक्तियों को लेकर कुलपति और कुलसचिव के बीच कई मतभेद भी हैं।


अरूण सोलंकी
पढ़ाई-लिखाई Updated On :

भोपाल। इंदौर में महू के डॉ. आंबेडकर समाजिक एवं विज्ञान विवि में पिछले कुछ दिनों में पांच परामर्शदाताओं  यानी सलाहकारों की भर्ती  की गई है। इन परामर्शदाताओं पर हर महीने एक बड़ी राशि खर्च की जा रही है। यह नियुक्तियां उस समय की गई हैं जब विश्वविद्यालय भयंकर आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा है।

परामर्शदाताओं की ज़रूरत भी समझ से बाहर है क्योंकि जिन कामों के लिए इन्हें नियुक्ति दी गई है उन कामों को करने की ज़िम्मेदारी पहले ही दूसरे सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों पर है। इन नियुक्तियों में ज़रूरी कार्य परिषद की स्वीकृति भी नहीं ली गई है। हालांकि इससे बेफ़िक्र विश्वविद्यालय के ज़िम्मेदारों ने कई और पदों पर परामर्शदाताओं की नियुक्ति के लिए एक नया विज्ञापन भी जारी कर दिया है।

महू के बड़गौंदा थाने में कुछ दिनों पहले एक व्यक्ति द्वारा दिए गए आवेदन के बाद आंबेडकर विश्वविद्यालय में की गई नियुक्तियों पर लोगों का ध्यान गया। गबूर सिंह नाम के एक व्यक्ति के द्वारा दिया गया ये आवेदन विश्वविद्यालय में हो रही परामर्शदाताओं की नियुक्तियों के संबंध में था। जिन्हें अवैधानिक बताया गया था।

विश्वविद्यालय में अब तक पांच परामर्शदाताओं की नियुक्तियां  की गई हैं। इन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है। तीसरी श्रेणी के परामर्शदाता को करीब 32 हज़ार रुपये दिए जा रहे हैं। दूसरे श्रेणी के परामर्शदाता को करीब 65 हज़ार रुपये दिए जा रहे हैं और पहली श्रेणी के परामर्शदाता को करीब 75 हज़ार रुपये दिए जा रहे हैं।

इन परामर्शदाताओं में इंदौर के एक डॉक्टर ऋतुराज टोंगिया हैं जो विश्वविद्यालय के लिए शुरु किए गए एक फर्स्टऐड मेडिकल कोर्स के लिए बुलाए गए हैं। यह मेडिकल कोर्स तीन महीने का है। जिसमें चार विद्यार्थियों ने दाख़िला लिया है।  इस कोर्स का शुल्क कुल तीन हज़ार रुपये हैं।

इस तरह विश्वविद्यालय को इस कोर्स से बारह हज़ार रुपये की आय हुई है। वहीं एक वर्ष की संविदा पर रखे गए परामर्शदाता डॉक्टर पर करीब साढ़े आठ लाख रुपये खर्च होंगे।

इसकी तरह कानपुर से एक रिटायर्ड इंजीनियर भी आए हैं। डीसी त्रिपाठी पहले उप्र में लोकनिर्माण विभाग में सब इंजीनियर थे। रिटायरमेंट के बाद वे यहां आए हैं और यहां दूसरी श्रेणी के परामर्शदाता हैं।

विश्वविद्यालय में चल रहे या होने वाले सभी निर्माण कार्य लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों की देखरेख में होते हैं लेकिन इन्हीं कामों के लिए विश्वविद्यालय में एक अलग इंजीनियर को बुलाया गया है।

हालांकि अगर इतने वेतन में विश्वविद्यालय पूरे वैधानिक तरीके से नियुक्ति करता है तो एक एग्ज़िक्यूटिव इंजीनियर स्तर के सेवानिवृत्त अधिकारी को भर्ती किया जा सकता था।

इस दौरान यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्वविद्यालय को लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों के आगे इस तरह के स्वतंत्र इंजीनियर की कोई ज़रूरत नहीं होती है।

विश्वविद्यालय में एक अन्य नियुक्ति  डॉ. बिंदिया टाटेड़ की हुई है। वे सूचना प्रद्योगिकी की विशेषज्ञ बताई जाती हैं। बिंदिया को पहली श्रेणी की परामर्शदाता के रुप में रखा गया है। बताया जाता है कि वे राजस्थान से आईं हैं।

आंबेडकर विश्वविद्यालय में आईटी की किसी तरह की पढ़ाई नहीं होती है और न ही यहां आईटी से संबंधित इतने महत्वपूर्ण काम हैं कि इतने अधिक खर्च पर लोगों को रखा जाए। ऐसे में इन पर सालाना साढ़े आठ लाख रुपये खर्च करने का औचित्य कितना है यह समझ से बाहर है।

आईटी के काम में डॉ. बिंदिया टाटेड़ अकेली नहीं हैं उनके साथ डॉ. नवरतन बोथरा  नाम के एक अन्य व्यक्ति की भी नियुक्ति हुई है। हालांकि वे तीसरी श्रेणी के परामर्शदाता हैं और उन्हें 32 हज़ार रुपये प्रतिमाह दिये जा रहे हैं।

कौशलेंद्र मिश्रा नाम के एक अन्य परामर्शदाता भी हैं जो प्रशासनिक परामर्शी हैं यानी वे कुलपति और कुलसचिव को परामर्श देंगे। वे दूसरे दर्जे के परामर्शदाता हैं और अपनी सेवाओं के लिए प्रतिमाह करीब 62हज़ार रुपये पाते हैं।

वे मध्यप्रदेश से ही हैं और पहले देवी अहिल्याबाई विश्ववद्यालय में तीसरे वर्ग के अस्थायी कर्मी थे। आंबेडकर विश्वविद्यालय में निर्णायकों ने उन्हें इस बार काफी बड़ी ज़िम्मेदारी दी है और उन्हें दीर्धअनुभवी कुलपति और कुलसचिव को समस्याओं के समाधान देने होंगे।

इसके अलावा विश्वविद्यालय द्वारा पिछले दिनों करीब छह अंशकालिक और दो पूर्ण कालिक परामर्शदाताओं को नियुक्त करने के लिए विज्ञापन जारी किए गए हैं।

खबर है कि अंशकालिक परामर्शदाताओं को 32 हजार रुपये और पूर्ण कालिक परामर्शदाताओं को 75 हज़ार रुपये प्रतिमाह दिये जाएंगे।

इन परामर्शदाताओं के अलावा  एक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी को भी यहां रखा गया है। कर्नल बत्रा नाम के इन अधिकारी को एनसीसी और एनएसएस की ज़िम्मेदारी दी गई है हालांकि इसके लिए विश्वविद्यालय में दो अधिकारी पहले से मौजूद हैं। कर्नल बत्रा को इसके लिए 32 हज़ार रुपये प्रति माह दिए जा रहे हैं।

पिछले विज्ञापन की तरह इस बार के विज्ञापन में भी मध्यप्रदेश के लोगों को तवज्जो देने की बात कही जा रही है। हालांकि पिछली बार की गई भर्ती में पांच में तीन लोग राजस्थान और उत्तरप्रदेश से बताए जाते हैं।

विश्वविद्यालय में यह मामला संजीदा और विवादित हो चला है। इन सभी परामर्शदाताओं से बात करने का प्रयास किया गया लेकिन इनसे संपर्क नहीं हो सका।

इन्हें दिये गए पद और वेतन के बारे में विश्वविद्यालय से जानकारी एकत्र करने में काफी समय लगा। इस बीच कई लोगों ने इस बारे में जानकारी  देने से ही मना भी कर दिया।

इन सभी तेरह परामर्शदाताओं को रखने पर विश्विविद्यालय पर करीब 57 लाख रुपये प्रतिवर्ष का खर्च आएगा। इस बीच विश्वविद्यालय को वित्त विभाग की ओर से भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि इस बार कोरोना के चलते विश्वविद्यालयों के सालाना खर्चों में भी कटौती की गई है।

विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. डीके शर्मा के मुताबिक उन्हें इस साल केवल आठ करोड़ रुपये ही दिए जा रहे हैं लेकिन उनके खर्चे करीब साढ़े ग्यारह करोड़ रुपये के हैं।

इस बीच विश्वविद्यालय करीब चार करोड़ रुपये के ओवरड्राफ्ट में चल रहा है। बताया जाता है कि इन परेशानियों को लेकर लगातार पत्राचार भी किया जा रहा है।

 

विश्वविद्यालय में वित्त से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक अगर इन नए परामर्शदाताओं को पैसा देना पड़ा तो ज़ाहिर है कि विश्वविद्यालय के कर्मचारियों को वेतन देने में खासी परेशानियां आएंगी। ऐसे में सरकार की मदद ज़रूरी होगी लेकिन सरकार से पहले से कोई अनुमति ली नहीं गई है। ऐसे में खर्चे शुरु करने के बाद मदद मिलना फिलहाल संभव नज़र नहीं आ रहा है।

कुलसचिव शर्मा इन नियुक्तियों के बारे में पूरी जानकारी नहीं देते हैं। उनके मुताबिक यह नियुक्तियां पूरी तरह कुलपति डॉ. आशा शुक्ला के द्वारा की गई हैं और वे इस बारे में ज़्यादा नहीं बता सकेंगी।

हालांकि वे बताते हैं इन नियुक्तियों के बारे में शासन से कोई अनुमति नहीं ली गई है और न ही इनके लिए किसी तरह का बजट ही प्रस्तावित है।

बताया गया कि इसे लेकर कुलसचिव शर्मा और पूर्व वित्त अधिकारी वीणा जैन अपनी आपत्ती जता चुके हैं। बताया जाता है कि दोनों ने लिखित में अपनी ओर से कुलपति को आपत्ती सौंपी है लेकिन इसके बाद वित्त अधिकारी जैन और कुलसचिव शर्मा दोनों के ही तबादले हो गए। जैन से उनका पक्ष लेने का प्रयास किया गया लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया।

हालांकि इसके बाद कुलसचिव डॉ शर्मा हाईकोर्ट से तबादले का अपना आदेश निरस्त करवा लाए लेकिन वीणा जैन नहीं लौटीं। बताया जाता है कि फिलहाल नई वित्त अधिकारी भी छुट्टी पर चली गईं हैं।

हाईकोर्ट के आदेश के बाद कुलसचिव शर्मा जब पिछले दिनों अपने कार्यालय में लौटे तो उन्हें दो दिनों तक अपने कार्यालय की चाबी नहीं मिली।

इस पर उन्होंने कुलपति पर आरोप लगाए। हालांकि कुलपति ने कहा कि मौजूदा कुलसचिव अजय वर्मा चाबी लेकर छुट्टी पर चले गए हैं और जब वे आएंगे तो चाबी भी मिल जाएगी।

इस बीच शर्मा अपने ही कक्ष के बाहर लगी कुर्सियों पर बैठे और बाद में परिसर में लगी डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा के नीचे बैठकर उन्होंने सांकेतिक विरोध जताया।

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कुलपति पर जिन परामर्शदाताओं की नियुक्तियों के लिए आरोप लगाया जा रहा है उनके बारे में शासन को कितनी बार लिखित जानकारी दी गई है इसके बारे में फिलहाल ज़िम्मेदार अधिकारी बात नहीं कर रहे हैं।

कुलसचिव  डॉ. दिनेश शर्मा के मुताबिक उनके उपर कुलपति हैं और वे अपनी ओर से आपत्ती जता चुके हैं और अब कुलपति को ही आगे तय करना है। हालांकि अगर नियुक्तियों को खुद डॉ शर्मा द्वारा गलत कहा जा रहा है तो उनकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

कुलसचिव के तौर पर डॉ शर्मा राज्य शासन के प्रतिनिधि हैं और उन्होंने शासन को इस बारे में जानकारी क्यों नहीं दी यह सवाल उन पर भी उठ रहा है।

डॉ. आशा शुक्ला, कुलपति

देखिए,  नियुक्तियों पर जो सवाल उठाए जा रहे हैं वे पूरी तरह बेबुनियाद हैं। नियुक्तियां पूरी तरह तय नियमों का पालन करते हुए की गई हैं।

डॉ. आशा शुक्ला, कुलपति, आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय

आंबेडकर विश्वविद्यालय की स्थापना उच्च आदर्शों के साथ सामाजिक न्याय जैसे विषयों के बारे में लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से की गई थी लेकिन यह विश्वविद्यालय लगातार विवादों में ही रहा है।

यहां पीएचडी के शोधार्थियों के तबादले दूसरे विश्वविद्यालयों में कर दिये गए। जिसके बाद यहां काफी दिनों तक धरना चला। पढ़ाई की गुणवत्ता के जितने वादे इस विश्वविद्यालय के द्वारा किये गए उनमें सफलता का प्रतिशत भी कम ही रहा।

इस विश्वविद्यालय को लेकर उच्चशिक्षा विभाग और राजभवन भी खास गंभीर नहीं है। विश्वविद्यालय पर आरोप लगते रहे हैं लेकिन इस पर उच्च शिक्षा विभाग ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है।

वहीं राजभवन तक भी कुछेक मामलों में शिकायत की गई लेकिन नतीजा सिफ़र रहा। ऐसे में विश्वविद्यालय के अधिकारी किसी भी कार्रवाई को लेकर ख़ास उम्मीदमंद भी नहीं हैं।

डॉ. आशा शुक्ला की नियुक्ति के संबंध में भी विवाद जारी है। उन पर भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय से फर्ज़ी एनओसी लेकर आने का आरोप है। ऐसे में उनकी नियुक्ति को भी अवैध कहा जा रहा है।

इस बारे में भोपाल के एक थाने में एफआईआर भी दर्ज करवाई गई थी लेकिन मामला ठंडे बस्ते में चला गया। हालांकि पिछले दिनों बरकतउल्ला विश्वविद्यालय से स्पष्ट किया गया है कि डॉ. आशा शुक्ला उनकी पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं रहीं ऐसे में यह बात भी शुक्ला के खिलाफ़ जा सकती है। हालांकि डॉक्टर शुक्ला इन आरोपों को भी पूरी तरह गलत बताती हैं।

 

 


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