राजनीति की पाठशाला है दमोह का उपचुनाव


यहां कुछ भी स्थायी नहीं है, मतलब साफ है जो कल था वो आज नहीं है और जो आज है वो कल नहीं होगा…


Manish Kumar
राजनीति Updated On :

दमोह उपचुनावों की ख़बरें लगातार सुर्खि़यां बनी हुई हैं।  पिछले छह महीनों के दौरान यहां की राजनीति में जो कुछ देखने को मिला है वह एक तरह से राजनीति का सबक है जिसे सभी को सीखना चाहिये। राजनीति का सबक जो कहता है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं होता, न दोस्ती और न दुश्मनी।

तीन साल पहले यहां राहुल सिंह लोधी के लिए वोट मांगने वाले कमलनाथ अब उनके खिलाफ वोट मांग रहे हैं। वहीं पूर्व कांग्रेसी राहुल सिंह लोधी जो कभी अजय टंडन को गुरु बताते थे वे अब अपने गुरु के सामने मुकाबले दार हैं और उन्हें राजनीति का कच्चा खिलाड़ी बता रहे हैं जो अपने वार्ड से भी कभी पूरे वोट नहीं ले पाए।

इसी तरह राहुल सिंह लोधी जो कभी कमलनाथ को पिता तुल्य बताते थे वे अब उन्हें बतौर मुख्यमंत्री विधायकों पर ध्यान न देने वाला नेता कहते हैं जिन्होंने प्रदेश के विकास पर भी ध्यान नहीं दिया।

दरअसल दमोह चुनाव भाजपा के प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी के कारण ही बेहद दिलचस्प बने हुए हैं। राहुल सिंह कांग्रेस की नाव से उतरने वाले आखिरी विधायक थे लेकिन उन्होंने इससे पहले काफी बड़े दावे किये थे। खुद को किसी भी तरह से कमलनाथ का साथ न छोड़ने वाला उनका सैनिक बताया था। ऐसे में अब राहुल सिंह की इस बदली हुई छवि पर ही कांग्रेस अपना चुनाव लड़ रही है।

दमोह की राजनीति में सब कुछ अस्थायी होने के कई दूसरे उदाहरण भी देखने को मिल रहे हैं। इनमें से एक बड़ा नाम है जयंत मलैया का। कभी दमोह की राजनीति का निर्णय करने वाले मलैया आज कहीं नहीं हैं। कभी चुनावों से पहले मलैया के दरवाज़े पर टिकट चाहने वाले नेताओं की कतार होती थी लेकिन इस बार मलैया को खुद कतार में लगना पड़ा। करीब चालीस साल तक दमोह की राजनीति का केंद्र बिंदू बने रहे मलैया अब यहां हाशिये पर हैं।

इसी तरह उनके बेटे सिद्धार्थ मलैया जो कभी दमोह की राजनीतिक प्रचार की कमान संभालने वालों की अगली कतार में होते थे आज वे टिकट न मिलने से निराश हैं और कहते हैं कि पार्टी अगर कहेगी तो आगे आकर काम करेंगे वर्ना अपने ही वार्ड में तो काम करेंगे ही।

इस बार कांग्रेस के प्रत्याशी बनाए गए अजय टंडन मलैया परिवार के करीबी तो रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनके कारण ही कभी विधायक भी नहीं बन पाए लेकिन अब टंडन को शायद मलैया परिवार से ही उम्मीदें होंगी। अब तक वे चुनाव में जिस परिवार के खिलाफ़ थे आज उन्हें उसी परिवार के साथ की ज़रुरत है।

कहा जाता है कि इन सभी कारणों के मूल में जो कारण है उसका ज़िक्र चुनावों में सबसे कम हो रहा है। दरअसल 2014 में प्रह्लाद सिंह पटेल के बतौर सांसद यहां आने के बाद से ही यह बदलाव शुरू हुए हैं। पटेल यहां आए तो उन्होंने अपनी जगह पूरी मज़बूती से बनाई और इसका असर यह हुआ कि दूसरे नेता यानी जयंत मलैया की जगह कम होती गई।

जयंत मलैया कभी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बड़े करीबी थे लेकिन शिवराज ने भरी सभा में राहुल सिंह लोधी के नाम का ऐलान करके मलैया का दिल सबके सामने ही तोड़ दिया।

सरल स्वभाव वाले जयंत मलैया ने खुद को इस बदलाव के लिए तैयार नहीं किया था लिहाज़ा वे सिमटते चले गए। 2018 के चुनावों में ऐसी ही मिलती-जुलती कहानी एक दूसरे नेता के साथ भी घटी थी जो पहले हाशिये पर गए और अब तक नहीं लौटे।

जयंत मलैया के लगातार जीतते रहने के कारण दमोह सीट को जैन समाज की मजबूत जगह माना जाता था, हालांकि मलैया के पास लगभग सभी समाजों का सर्मथन था लेकिन क्योंकि वे खुद जैन समाज से आते हैं इसलिए जैन समाज के लोग उन्हें खुद से ज्यादा करीबी मानते रहे हैं लेकिन प्रह्लाद पटेल के सांसद बनने के बाद यहां उनके लोधी समाज का वर्चस्व बढ़ा और अब इसे राहुल सिंह के पक्ष में एक मज़बूत फैक्टर माना जा रहा है।

दमोह का उपचुनाव वास्तव में राजनीति की एक पाठशाला नज़र आ रहा है जहां की किताब के हर पन्ने में कहानी बदल रही है। चुनाव कोई भी जीते या हारे लेकिन यह पिछले उदाहरणों के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि यह तस्वीर बदलती रहनी चाहिए।

इनपुट सौजन्य – लक्ष्मीकांत तिवारी 


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