पंजाब के हजारों किसान दो गज नहीं बमुश्किल दो इंच की दूरी पर बैठे हैं, एक दूसरे के साथ सट कर!


बेशक मैं फिलहाल इन सब सावधानियों जैसे सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क पहनना को जारी रखने के पक्ष में हूं , पर अब हमें इसकी लागत के बारे में भी बात करना चाहिए । हर काम का एक कॉस्ट बेनिफिट रेशियो होता है । लाभ- लागत अनुपात ! हम कोरोना से बचाव के जो साधन अपना रहे हैं , सम्भव है उससे कुछ फायदा हो, लेकिन बदले में हम उसकी बहुत बड़ी कीमत अदा कर रहे हैं ।


संजय वर्मा
अतिथि विचार Updated On :

हमें बताया गया है , कि भीड़ में कोरोना फैलता है , यदि यह सच है तो इतना बड़ा जमावड़ा इस सच का एसिड टेस्ट होने वाला है ! मुझे लगता है ऐसा कुछ नहीं होगा और ऐसा क्यों नहीं हुआ इसका कोई नया एक्सप्लेनेशन आ जायेगा।
कोरोना के ले कर हमारे डॉक्टर वैज्ञानिक रोज अपने बयान बदल रहे हैं । ऐसा लगता है जैसे किसी प्राइमरी स्कूल के बच्चे को एम. ए. के इम्तहान का पर्चा पकड़ा दिया गया हो ।

हर रोज कोरोना को लेकर एक नई थ्योरी आ जाती है। अब एक नया शब्द आया है – R नम्बर ! यानी कोरोना वाइरस का रीप्रोडक्टिव रेट , जो अब डॉक्टरों के मुताबिक उतना नहीं है , जितना पहले बताया गया था। मायावी कोरोना के सामने हमारी डॉक्टर और वैज्ञानिक बिरादरी बचकानी साबित हो रही है। वह मायावी नित नए रूप धर आता है ,और हमारे वैज्ञानिक उसका सामना करना तो दूर उसका रूप-रंग, गुण-धर्म तक ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं । मुझ जैसे लोग जो विरासत में मिले आस्था और विश्वासों को छोड़कर विज्ञान की शरण में आये थे उनके लिए यह दोहरा नुकसान है। कभी कभी डर लगता है कि कहीं ये विज्ञान भी …!

कभी कहते हैं सर्फेस कांटेक्ट से कोरोना वायरस फैलता है कभी कहते हैं, नहीं फैलता ! कभी कहते हैं, कि लॉक डाउन से कोरोना काबू में आता है मगर पाकिस्तान में लॉक डाउन न होने के बावजूद भी मृत्यु दर कोई ज़्यादा नहीं है ,जबकि उनका हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर हमसे ज्यादा तबाह है ! सोशल डिस्टेंसिंग अगर अनिवार्य उपाय है ,तो शादियों में , चुनावी रैलियों में ,धरना आंदोलन में इकट्ठे हो रहे हजारों लोगों को एक साथ कोरोना हो जाना चाहिए था जबकि कुछ एक को ही हो रहा है । जब हजारों लाखों मजदूर पैदल अपने गांव लौट रहे थे तब उन्हें रोकने की कोशिश इस बिना पर की गई कि वह गांव में कोरोना फैला देंगे मगर वैसा कुछ नहीं हुआ।

एक तरफ हमारे डेटा साइंटिस्ट इन दिनों बिग डाटा की बात कर रहे हैं जिसके इस्तेमाल से वे आपसे पूछे बगैर यह भी बता देंगे कि आपको अंडरवियर कौन से कलर का पसंद है , और यहां ,जहां जिंदगी और मौत का सवाल है ,वह यह तक नहीं बता पा रहे कि कोरोना का व्यवहार क्या है ? ऐसा क्यों है , कि गरीबों ,भिखारियों पर कोरोना का कोई असर नहीं हुआ ? क्या कोरोना का कीड़ा भी इस भेदभाव वाली दुनिया में आकर रंग , नस्ल ,गरीबी अमीरी , मजहब, देश की बिना पर फर्क करना सीख गया है ? या कि ,वह जलवायु ,तापमान, वातावरण की नमी , गर्मी सर्दी का कोई लिहाज करता है ? हमारे वैज्ञानिकों के पास कोई उत्तर नहीं है ! निष्कर्ष निकालना तो बाद की बात है ,अभी तो वे ठीक-ठीक डाटा ही इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं । हम अभी तक नहीं जानते कि पिछले साल इतने ही समय में कितने लोगों की मृत्यु हुई थी और कोरोना के बाद कितने ज्यादा लोग मरे ।

कोरोना अपनी पहली सालगिरह मनाने को है ,पर मृत्यु पर जल्द ही विजय पाने का दावा करने वाले बड़बोले वैज्ञानिकों के हाथ साल भर बाद भी खाली हैं । वह बस अब तक इतना कर पाए हैं कि कोरोनावायरस के चलाए तीरों से पैदा हुए घावों ( निमोनिया और खून में थक्के होना) को किसी तरह भर सकें । बाकी हमारे पास उसे समझने का अब तक कोई उपाय नहीं है । कोई बात है जो डब्ल्यू एच ओ समेत पूरा वैज्ञानिक समुदाय मिस कर रहा है । कहीं कोई बहुत बड़ी भूल हो रही है समझने में हमसे ।

बेशक मैं फिलहाल इन सब सावधानियों जैसे सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क पहनना को जारी रखने के पक्ष में हूं , पर अब हमें इसकी लागत के बारे में भी बात करना चाहिए । हर काम का एक कॉस्ट बेनिफिट रेशियो होता है । लाभ- लागत अनुपात ! हम कोरोना से बचाव के जो साधन अपना रहे हैं , सम्भव है उससे कुछ फायदा हो, लेकिन बदले में हम उसकी बहुत बड़ी कीमत अदा कर रहे हैं।

कोरोना एक बायोलॉजिकल समस्या थी , जिसे हम पहले ही आर्थिक और राजनीतिक समस्या बना चुके हैं और अब हम तेजी से इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी देखेंगे । आज अखबार में खबर है कि जापान में 1 महीने में 2000 से अधिक लोगों ने आत्महत्या की । यह संख्या उनके औसत के मुकाबले 9 गुनी है ।
हम बचपन से पढ़ते आए हैं ,- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ! यह सामाजिक प्राणी अपने समाज से कटकर अकेलापन और तनहाई ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं कर पाएगा । भावनात्मक समस्याओं को कोरोना से निपटने के लिए किए जा रहे उपायों की लागत में जोड़ा जाना चाहिए ।

इस आफत से निपटने में दुनिया भर के सियासतदानों ने तो खैर हमें निराश किया ही है , पर बड़ा दुख इस बात का है कि इस बार विज्ञान ने भी नेताओं की तरह गोल-मोल बातें करना शुरू कर दिया है।
डॉक्टरों, वैज्ञानिकों प्लीज़ कुछ करो ! तुम्हे उस खुदा का वास्ता जिसे छोड़कर लोग तुम्हारी शरण में आते हैं !