
विचित्र है, जिस प्रकृति-पर्यावरण की मेहरबानी से इंसान न सिर्फ जीवित है, बल्कि फल-फूल रहा है, उसी प्रकृति-पर्यावरण के प्रति इंसान में गहरी कटुता और जहर कैसे, कहां से पैदा हो गया? इतना जहर कि उसे जानते-बूझते, तिल-तिलकर मारते जरा भी संकोच नहीं होता? लगातार बढ़ती प्रकृति की इसी बदहाली को याद करने के लिए सालभर कई दिवस मनाए जाते हैं। पृथ्वी दिवस भी उसमें से एक है।
पृथ्वी का निर्माण करीब 4.6 अरब साल पहले और उस पर जीवन का विकास करीब 460 करोड़ वर्ष पहले हुआ था, परन्तु धरती तो तब से संकट में है, जब से मनुष्य उसका मालिक बन बैठा है। उसने यह मानने से इंकार कर दिया है कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का साथ और सहयोग ही पृथ्वी को हरा-भरा और खूबसूरत बना सकता है, लेकिन हम सभी इसको भूलते जा रहे हैं। मनुष्य की बढ़ती लालसाओं का ही परिणाम है कि जल, जंगल और जमीन की समस्या आज केंद्रीय समस्या बनकर उभर रही है।
पृथ्वी केवल मनुष्य की ही नहीं, बल्कि इस जगत में व्याप्त सभी प्राणियों की है। इन सभी के सहयोग व सहचर्य के कारण पृथ्वी जीवित है। आज व्यक्ति व सामाजिक हितों की टकराहट के कारण पृथ्वी में असंतुलन की स्थितियां पनप रही हैं।
आधुनिक जीवनशैली की प्रवृत्तियों ने प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे स्थिरता में कमी आई है। यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है और इसका समाधान यही है कि हम प्रकृति के साथ ऐसा संबंध स्थापित करें जो उसके सम्मान, संरक्षण एवं संतुलन को बनाए रखे। हमें प्रकृति के साथ ऐसे रहना होगा जैसे हम भी उसका एक साधारण अंश मात्र हैं।
आधुनिकता के चलते मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है, जिससे कई समस्याएं पैदा हो रही है। इंग्लैंड स्थित ‘यूटिलिटी बिडर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीस वर्षों में भारत ने 6,68,400 हेक्टेयर जंगल गंवा दिया है। वर्ष 1990 से 2020 के बीच वनों की कटाई की दर में भारत दुनिया के दूसरे सबसे बङे देश के रूप में उभरा है।
‘ग्लोबल फारेस्ट वाच’ ने यह भी बताया है कि 2013 से 2023 तक 95 प्रतिशत वनों की कटाई प्राकृतिक वनों में हुई है। पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे भारत में जल-संकट गहरा रहा है। ‘वेटलैंड इंटरनेशनल’ के अनुसार भारत की करीब 30 प्रतिशत आर्द्रभूमि (वैटलेंड) पिछले तीन दशकों में विलुप्त हो चुकी है। यह कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर तापमान कम करने और प्रदूषण घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
जैव-विविधता पर ‘अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति मंच’ (आईपीबीईएस) के अनुसार, पृथ्वी की सतह का तीन-चौथाई हिस्सा पहले ही मानव जाति के उपभोग के कारण काफी हद तक बदल चुका है और दो-तिहाई महासागरों का क्षरण हो चुका है। बीसवीं सदी के दौरान आबादी में तीन गुना वृद्धि हुई है और दुनिया का ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) बीस गुना बढ़ा है।
ऐसे विस्तार ने पृथ्वी की पारिस्थितिकी पर लगातार दबाव बढ़ाया है। हर जगह जब हम वायुमंडल, समुद्र, जलाशय, जंगल, मिट्टी को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि पारिस्थितिकी में बहुत तेजी से गिरावट हो रही है।
देखा जाए तो व्यक्ति खुद की इच्छाओं की बजाए उत्पादन की ‘ट्रेडमिल’ से चलता है, जो पर्यावरण की मुख्य दुश्मन है। यह ‘ट्रेडमिल’ इस ग्रह के बुनियादी पारिस्थितिकी-चक्र से उल्टी है। ऐसा लगता है कि पर्यावरण के लिहाज से हमारे पास उत्पादन के ‘ट्रेडमिल’ का प्रतिरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
जब ‘ग्लोबल-वार्मिंग’ को धीमा करने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी की बात आती है तो पूंजीपति वर्ग विभाजित हो जाता है। अमरीका में शासक वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अधिक कुशल प्रौद्योगिकी पर विचार करने की बात करने लगता है।
मार्च 2025 दुनिया के इतिहास में दूसरा सबसे गर्म मार्च था, जिसमें धरती की सतह पर वायु का औसत तापमान 14.06 डिग्री सेल्सियस था, जो 1991-2020 के औसत से 0.65 डिग्री सेल्सियस अधिक और पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.60 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह पिछले 21 महीनों में से 20वां महीना था, जिसमें सतह का औसत वायु तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक था।
‘पॉट्सडेम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पेक्ट रिसर्च’ द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया भर में कार्बन-चक्र प्रक्रियाओं के कारण इस सहस्राब्दी में पिछले अनुमानों के मुकाबले गर्मी में कहीं अधिक इजाफा हो सकता है।
वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रखने के ‘पैरिस समझौते’ को हासिल करना केवल बहुत कम उत्सर्जन से ही संभव है। एक अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ ही सदी के अंत तक वैश्विक ‘जीडीपी’ में करीब 40 फीसदी तक की कमी आ सकती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक तापमान में होते इजाफे से अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंच रहा है। दुनिया के बढ़ते तापमान का असर रहा कि 2022 में कृषि पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आई है।
‘आईआईटी-मुंबई’ के प्रोफेसर चेतन सोलंकी के अनुसार जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है, हम खुद को ठंडा रखने के लिए अधिक-से-अधिक फ्रिज, कुलर, एसी, पंखे का इस्तेमाल करते हैं। इसमें उर्जा की खपत होती है। इस उर्जा का अधिकांश हिस्सा जीवाश्म ईंधन, खासकर कोयले को जलाने से आता है जो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीन-गैसों का उत्सर्जन करता है।
जाहिर है, गर्मी से बचने की हमारी कोशिशें, उल्टे गर्मी को बढ़ा रही हैं।
पृथ्वी पर तापमान बढ़ने के पीछे मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसें हैं। इन गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, सीएफ़सी और नाइट्रस ऑक्साइड शामिल हैं। इनके बढ़ने से ग्रीनहाउस का प्रभाव बढ़ता है और पृथ्वी गर्म होती है। ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ के मुताबिक दुनिया में रोजाना एक करोड़ 70 लाख मीट्रिक टन कार्बन पैदा हो रही है।
‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट’ के मुताबिक 2017 में कार्बन उत्सर्जित करने वाले प्रमुख चार देशों की हिस्सेदारी 59 प्रतिशत (चीन-27%, अमेरिका-15%, यूरोपियन युनियन-10% और भारत-7%) थी, जबकि बाकी के देशों की 41 प्रतिशत।
‘ग्लोबल वार्मिंग’ और जलवायु-परिवर्तन के कारण भारत में तापमान बढ़ोतरी, बारिश के पैटर्न में बदलाव, सूखे की स्थिति में बढ़ोतरी, भूजल स्तर का गिरना, ग्लेशियर का पिघलना, तीव्र चक्रवात, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं आदि प्रमुख हैं।
जंगल काटने, नदियों को प्रदूषित करने, अवैध खनन से पहाड़ों का सीना छलनी करने तथा अंधाधुंध पानी के दोहन से वातावरण को प्रदूषित कर हम प्रकृति का अस्तित्व खत्म करने के साथ ही अपने जीवन और आने वाली पीढ़ी के लिए खतरनाक वातावरण बना रहे हैं।
ऐसे में हमें ऐसे विकल्पों का अनुसरण करना चाहिए जो मुनाफे की हवस की बजाए लोगों की वास्तविक जरूरतों और सामाजिक-पारिस्थितिकीय टिकाऊपन से संचालित हों। राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ