केरल के वायनाड जिले में मेप्पाङी के पास पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन से 45 लोगों की मौत और 70 लोगों के घायल होने की खबर है। आंकड़ों में बढ़ोतरी संभावित है। केरल में इसके पहले भी 2018 में 104 और 2019 में 120 मौतें भूस्खलन से हुई हैं।
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, केरल के पूरे क्षेत्रफल का 43 प्रतिशत हिस्सा भूस्खलन संभावित क्षेत्र है। वैज्ञानिकों द्वारा 17 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के 147 जिलों में वर्ष 1998 से 2022 के बीच 80,000 भूस्खलनों की घटनाओं के आधार पर जोखिम का आकलन किया गया है। जिसमें पता चला कि उत्तराखंड, केरल, जम्मू और कश्मीर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में सबसे अधिक भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं।
सर्वाधिक भूस्खलन वाले राज्यों की सूची में पहले नंबर पर मिजोरम, दूसरे पर उत्तराखंड और तीसरे पर केरल है। भारत विश्व के शीर्ष पांच भूस्खलन संभावित देशों में से एक है।
भूस्खलन के प्राकृतिक कारण जैसे अतिवृष्टि, भूकंप, बाढ़ आदि तो हैं ही, परंतु पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में आबादी बढ़ने के साथ ही भूस्खलन को सतत विकास के दृष्टि से भी समझना आवश्यक है। इसमें अनियंत्रित उत्खनन, पहाड़ियों और पेड़ों की कटाई, अत्यधिक बुनियादी ढांचे का विकास, जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का पैटर्न बदल जाना शामिल है। कई पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण से जुड़े नियम नहीं हैं, और अगर हैं तो उनका प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन नहीं होता है।
हिमालय पर्वतों से भी पुरानी पश्चिम घाट, जो कि गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु से गुजरती है, के संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा 2011 में गाडगिल और 2013 में कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया गया था।
बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ मांग करता है कि दोनों समितियों के सुझावों को तत्काल लागू किया जाए, जो इस प्रकार हैं: “सभी पश्चिम घाट पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में घोषित किए जाएं। केवल सीमित क्षेत्रों में सीमित विकास की अनुमति हो। खनन, उत्खनन और रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए।”
(वरिष्ठ पर्यावरण कार्यकर्ता राज कुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हुए हैं।)
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