पितृसत्तात्मक समाज का चेहरा बदले बगैर नहीं बदलेंगी ये परिस्थितियां


यह ध्यान रखना होगा कि महिलाओं या बेटियों की जिम्मेदारी पुलिस, सरकार या कार्यपालिका पर डालने से कुछ नहीं होगा। यह आधी आबादी हमारे घरों की है। हमारी है और जब तक पितृ सत्तात्मक समाज का चेहरा हम नहीं बदलेंगे तब तक ये परिस्थितियां नहीं बदलेंगी और इसके लिए हम जहां हैं वहीं से शुरुआत करना होगी।


संदीप नाईक
अतिथि विचार Updated On :
patriarchal society

“औरत से ताल्लुकात रखने हों तो भावनाओं को अलग रखना होगा”

अमरीश पुरी का यह डायलॉग फिल्म निशांत में था। जब गांव का जागीरदार अपने बेटे नसीरुद्दीन शाह को समझाता है। समानांतर फिल्मों के 1975 के दौर में बनी और रिलीज़ हुई इस फिल्म में जो फिल्माया गया है, उसमें और आज में कमोबेश कोई जमीनी फर्क नहीं आया है। यह बात इस निष्ठुर होते समय और बेगैरत होते जा रहे समाज में हम भलीभांति समझ सकते हैं।

जनसंख्या में किस तरह से लड़कियों की संख्या दिनों दिन कम होते जा रही है। इस बात का इशारा हाल ही में दिवंगत हुई समाज विज्ञानी और लम्बे समय तक सामाजिक बदलाव से जुड़ी डॉक्टर इलिना सेन ने अपनी पीएचडी के दौरान ही सन अस्सी के शुरुआती दौर में बता दिया था और बाद में जिस अंदाज में जेंडर अनुपात हर दस वर्षों में कम हुआ, वह ना मात्र चिंताजनक था बल्कि हिंसात्मक होते जा रहे समाज की एक बानगी पेश करता था। 2011 के आते-आते भारत का औसत जेंडर अनुपात 943 महिलायें प्रति 1000 पुरुषों के प्रति रह गया जोकि बेहद चिंताजनक आंकडा था।

हम सबने दहेज़ से लेकर स्त्री समानता और स्त्री शिक्षा के आलेख लिखे हैं। दर्जनों गोष्ठियां और कार्यशालाएं की हैं और खूब सारे आंकड़े हमारे पास हैं पर इसके ठीक विपरीत महिलाओं के खिलाफ होने वाले आंकड़े बढे हैं। इस बात का सबूत है राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा जारी की जाने वाली रिपोर्ट्स जो हर साल लगातार महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 से लेकर निर्भया हत्याकांड के बाद जो कानूनों में आमूलचूल बदलाव हुए उसका भी अब हमें खौफ नही रहा है। किसी को दोष देने के बजाय हम सिर्फ यह देखें कि सन 2010 और अब हम 2020 के खत्म होते जा रहे साल के मुहाने पर खड़े हैं।

अगले हफ्ते से दुर्गा पूजा की धूमधाम फिर शुरू हो जायेगी पर क्या हम सच में “यत्र पूज्यन्ते नारी, रमन्ते देवता तत्र” वाले देश के सभी नागरिक हैं। देश की आधी आबादी को अभी हम संपत्ति में हिस्सा देना तो दूर, बराबरी, समता मूलक समाज या एक व्यक्ति होने का दर्जा भी नहीं दे पाएं हैं। ऐसे में हम उम्मीद करें कि समाज, देश खुशहाल होगा और सब कुछ अच्छा अच्छा होगा। यह कितना बड़ा पाखंड है!

कहने को 23 अप्रैल 1993 को महिलाओं को 33 % आरक्षण से सुशासन में और कालान्तर में 50 % भागीदारी दी थी परन्तु आज क्या हश्र है, आखिर क्यों हाथरस, बलरामपुर, खरगोन, दिल्ली या कही और बलात्कार हो रहे हैं या महिलाओं का सड़कों पर निकलना दूभर हो गया है। सवाल कई हैं। जवाब भी हमारे पास ही हैं। यह ध्यान रखना होगा कि महिलाओं या बेटियों की जिम्मेदारी पुलिस, सरकार या कार्यपालिका पर डालने से कुछ नहीं होगा। यह आधी आबादी हमारे घरों की है। हमारी है और जब तक पितृ सत्तात्मक समाज का चेहरा हम नहीं बदलेंगे तब तक ये परिस्थितियां नहीं बदलेंगी और इसके लिए हम जहां हैं वहीं से शुरुआत करना होगी।





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