यूपी में नगर निकाय चुनाव के प्रचार का आज अंतिम दिन है। आगामी 11 मई को दूसरे व अंतिम चरण के लिए मतदान होगा। कर्नाटक विधानसभा सहित यूपी में लोकसभा की दो सीटों के लिए होने वाले उप-चुनाव के साथ यूपी नगर निकाय चुनाव के नतीजे 13 मई को घोषित होंगे।
अमूमन लोकसभा चुनाव से पहले होने वाले किसी भी चुनाव को उसका सेमीफानल बताना मीडिया की फितरत है। यूपी या कर्नाटक चुनाव को भी इसी तरह प्रचारित करने के पीछे टीआरपी और व्यूज़ पाने की लालसा मुख्य वजह है।
यूपी में नगर निकाय चुनाव को हम भले ही लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल न मानें लेकिन, यह बीजेपी-कांग्रेस सहित यूपी के दो प्रमुख राजनीतिक दलों सपा और बसपा के साथ आम आदमी पार्टी के लिए भी बेहद अहम साबित होने वाला है। ऐसा क्यों है?
आइए जानते हैं इसकी वजह…
1. यूपी में पिछले नौ सालों में पांच चुनाव हुए हैं। इसमें 2017 और 2022 का विधानसभा चुनाव, 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव और 2018 का नगर निकाय चुनाव शामिल है। इन पांच चुनावों में बीजेपी विजेता या सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी रही है।
2. बीजेपी के अब तक के प्रदर्शन में 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले के सभी चुनावों में बीजेपी के बेहतर प्रदर्शन का क्रेडिट मोदी मैजिक और अमित शाह की रणनीति को दिया गया। यह पहला ऐसा चुनाव है जिसमें मोदी से लेकर अमित शाह और बीजेपी का पूरा केंद्रीय नेतृत्व कर्नाटक विधानसभा चुनाव में लगा हुआ है। ऐसे में इस चुनाव में योगी आदित्यनाथ के पिछले छह साल के नेतृत्व और उनके प्रभाव की भी परीक्षा होगी।
अगर इस चुनाव में बीजेपी अच्छा करती है तो इस बार पूरा श्रेय अकेले योगी आदित्यनाथ को मिलने वाला है। क्या योगी इस परीक्षा में सफल हो पाएंगे? यह देखने वाली बात होगी। हालांकि, इसका उलटा भी हो सकता है।
3. सपा प्रमुख अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद (2017) से यूपी में सभी पांच चुनावों में उनकी पार्टी को या तो मुंह की खानी पड़ी या उन्हें उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली। इस बार के नगर निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सामाजिक न्याय का नया दांव चला है।
पार्टी ने ज्यादातर जगहों पर मुस्लिम या यादवों की जगह दूसरी जाति या संप्रदाय के लोगों को टिकट देकर मुस्लिम-यादव पार्टी वाली अपनी पुरानी छवि को तोड़ने का प्रयास किया है। योगी की तरह अखिलेश के लिए भी यह चुनाव उनके इस एक्सपेरिमेंट की परीक्षा साबित होने वाला है।
4. अखिलेश यादव 2012 में यूपी के मुख्यमंत्री बने थे। तब से लेकर मुलायम सिंह यादव के देहांत तक उनके परिवार और पार्टी पर उनकी पकड़ को लेकर सवाल उठते रहे हैं। खासतौर पर अपर्णा यादव और चाचा शिवपाल यादव उनके लिए सिरदर्द बने रहे हैं।
माना जा रहा है कि अखिलेश ने बहुत हद तक पारिवारिक विवाद को सुलझा लिया है और इस बार उनके चाचा शिवपाल यादव भी उनके साथ हैं। इस चुनाव में यह भी पता चलेगा कि अखिलेश से नाराज उनके रिश्तेदारों सहित पुराने नेता क्या सच में अखिलेश के साथ खड़े हैं या नहीं।
5. यूपी में 2012 के बाद से बहुजन समाज पार्टी की लोकप्रियता और उसके वोटो में लगातार गिरावट हो रही है। पिछले साल विधानसभा चुनाव में तो पार्टी को तो केवल एक सीट पर जीत मिली। पार्टी सुप्रीमो मायावती ने आईसीयू में पड़ी अपनी पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए इस बार दलित-मुस्लिम समीकरण साधने की कोशिश की है।
इसकी पुष्टि महापौर के 17 सीटों पर 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने से होती है। माना जा रहा है कि मायावती के इस कदम से कई शहरी निकायों में समाजवादी पार्टी को नुकसान हो सकता है। क्या यह चुनाव बहुजन समाज पार्टी के लिए संजीवनी साबित होगा? इसका पता तो 13 मई को ही चलेगा।
6. यूपी में जयंत चैाधरी की पार्टी रालोद, चंद्रशेखर रावण की आजाद समाज पार्टी, ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा और आम आदमी पार्टी सहित कांग्रेस पार्टी कुछ क्षेत्रों में अपनी पकड़ का दावा रही है। इस चुनाव में इन पार्टियों के दावे और स्थानीय स्तर पर इनके काडर और कार्यकर्ताओं के पकड़ की भी परीक्षा होने वाली है।
कहा जा रहा है कि इस बार दलित और अल्पसंख्यक वोटों में होने वाले बंटवारे का सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को हो सकता है। आगामी 13 मई को इस दावे की सच्चाई भी सामने आ जाएगी।
7. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले छह सालों के अपने कार्यकाल में अपनी छवि बुलडोजर बाबा की बनाई है। प्रयागराज में अतीक अहमद के बेटे सहित उसके चार गुर्गों का एनकाउंटर और अतीक व अशरफ की सनसनीखेज हत्या ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। योगी को अब एनकाउंटर बाबा भी कहा जाने लगा है।
हालांकि, उन पर एक खास वर्ग या संप्रदाय विशेष के लोगों को टारगेट करने का भी आरोप लग रहा है। क्या योगी आदित्यनाथ की इस छवि का उन्हें फायदा हुआ है या इससे उन्हें नुकसान होने वाला है? निकाय चुनाव नतीजों से इन सवालों के भी जवाब मिल सकते हैं।
8. योगी राज को अतीक और अशरफ की हत्या के पहले और बाद के काल में बांटा जा रहा है। माना जा रहा है कि यह घटना यूपी खासतौर पर पूर्वांचल की राजनीति की दिशा बदलने वाली घटना है।
आने वाले चुनावों में अपराध और अपराधियों की जाति या धर्म को चुनावी मुद्दा बनाया जाएगा या नहीं इस सवाल का जवाब भी निकाय चुनाव के नतीजों से मिलने की संभावना है।
असल में चुनाव केवल इस बात का संकेत नहीं होते कि किस पार्टी के पक्ष में हवा है बल्कि, इस बात का भी संकेत हैं कि चुनाव के असल मुद्दे क्या हैं। कहने को यह नगर निकाय के चुनाव हैं लेकिन, क्या यह सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं? ऐसा बिलकुल नहीं है।
गांवों की तुलना में शहरों के मतदाता राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय मुद्दों से शायद ज्यादा प्रभावित होते हैं और उनके वोटिंग पैटर्न पर इनका असर भी पड़ता है। क्या इस बार के चुनाव में भी ऐसा होगा? इस सवाल के जवाब के लिए 13 मई तक इंतज़ार करना होगा।