सरयूसुत मिश्र।
कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करने के लिए अध्यक्ष के चुनाव की रणनीति ने ही कांग्रेस में गांधी परिवार की अहमियत को तार-तार कर दिया है। राजस्थान से शुरू हुआ बवंडर अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। पार्टी में राहुल गांधी की कार्यशैली से नाखुश नेताओं को मनाने के लिए अध्यक्ष के उम्मीदवार के चुनाव में सोनिया गांधी ने राहुल गांधी की भी बात नहीं मानी।
राजस्थान में मुख्यमंत्री के चयन के लिए कांग्रेस हाईकमान की ओर से संगठन महामंत्री वेणुगोपाल ने यह ऐलान किया था कि दो दिन में राजस्थान में नए मुख्यमंत्री की घोषणा हो जाएगी। यह दो दिन भी बीत चुके हैं। अभी तक तो जयपुर में विधायक दल की बैठक की तिथि तक का ऐलान नहीं हुआ है। इसके विपरीत मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हाईकमान से माफी मांगने का दिखावा करने के बाद जयपुर पहुंचकर फिर बगावती सुर अलाप रहे हैं।
अपने मुख्यमंत्री के लिए विधायकों की बगावत को शोध का विषय बताते हुए गहलोत इशारा कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके पास ही रहेगी। कांग्रेस हाईकमान स्पष्ट रूप से कह चुका है कि नए मुख्यमंत्री के बारे में शीघ्र निर्णय लिया जाएगा और दूसरी तरफ गहलोत हाईकमान को चुनौती देते दिखाई पड़ रहे हैं।
कांग्रेस में गांधी परिवार की हैसियत नेता से ज्यादा मालिक जैसी अभी तक रही है। साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद धीरे-धीरे गांधी परिवार पार्टी में कमजोर होता गया और अब तो ऐसे हालात हो गए हैं कि उनकी कमजोरी हर मौके पर उजागर हो रही है।
गांधी परिवार जब तक राजस्थान में नया नेतृत्व स्थापित नहीं कर देता तब तक देश में यह संदेश बना रहेगा कि पार्टी पर गांधी परिवार की पकड़ कमजोर हो गई है। हाईकमान अशक्त और बेजान हो गया है। क्षत्रपों में घमासान मचा है। ऐसे हालात बन गए हैं कि गांधी परिवार को भी अपनी बात मनवाने के लिए मान मनौव्वल करनी पड़ रही है।
कांग्रेस में राहुल गांधी के उभार के बाद वरिष्ठ नेताओं में उनकी कार्यशैली से नाराजगी कई बार सामने आई है। हाल ही में गुलाम नबी आजाद ने तो अपना त्यागपत्र देते हुए राहुल गांधी पर बहुत आक्रामक आरोप लगाए थे। यह अजीब बात है कि कांग्रेस से बाहर जाने वाला और कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट रहने वाला कोई भी नेता सोनिया गांधी पर आरोप नहीं लगाता। हर नेता राहुल गांधी को ही निशाने पर लेता है। पार्टी में जी-23 के नाम से जो नेता सक्रिय रहे हैं, उन सबकी नाराजगी राहुल गांधी की स्टाइल ऑफ फंक्शनिंग ही है।
अशोक गहलोत से शुरू होकर दिग्विजय सिंह से होते हुए अध्यक्ष उम्मीदवार के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की उपस्थिति गांधी परिवार में ही मतभेद को प्रदर्शित कर रही है। राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से इस यात्रा के समन्वयक दिग्विजय सिंह को अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में चुनकर नामांकन भरने दिल्ली भेजा था।
ऐसा बताया जाता है कि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी दोनों से सहमति लेने के बाद दिग्विजय सिंह अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी पर आगे बढ़ रहे थे। फिर एन मौके पर परिस्थितियां क्यों उनके खिलाफ हुई? दिग्विजय सिंह को नामाकंन भरने की सुबह तक यह नहीं पता था कि मल्लिकार्जुन खड़गे चुनाव लड़ने जा रहे हैं।
ऐसा बताया जाता है कि पार्टी के कई बड़े नेताओं, जिसमें मध्यप्रदेश से भी जुड़े नेता भी शामिल थे, ने जी-23 के असंतुष्ट नेताओं को मनाने के नाम पर राहुल गांधी के उम्मीदवार को पीछे धकेलने का काम किया। सोनिया गांधी ने पार्टी में राहुल गांधी के विरोध में बढ़ती नाराजगी को देखते हुए अध्यक्ष के चुनाव में उनके उम्मीदवार को पीछे करने की शर्त पर शायद असंतुष्ट नेताओं को मनाने को वरीयता दी।
अशोक गहलोत के मामले में भी ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। राहुल गांधी निश्चित रूप से सचिन पायलट को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। राजस्थान में विधायकों ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुख्यमंत्री का निर्णय कांग्रेस हाईकमान पर छोड़ने तक के लिए विधायक तैयार नहीं हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में यहां भी सोनिया गांधी, राहुल गांधी को गहलोत को बनाये रखने के लिए समझाने की कोशिश कर सकती हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी को तो स्वीकार करने को तैयार हैं, लेकिन राहुल गांधी को लेकर उनकी नाराजगी साफ-साफ दिखाई पड़ रही है। राहुल गांधी का पार्टी पर कब्जा तभी हो सकता है जब जनता के बीच में उनकी स्वीकार्यता बढ़े। चुनावी राजनीति में जब यह परसेप्शन बनेगा कि राहुल गांधी में चुनाव जिताने की क्षमता है तभी नेताओं में उनके प्रति विश्वास बढ़ेगा।
भारत जोड़ो यात्रा का शायद यही लक्ष्य है कि जनता के बीच राहुल गांधी की आवाज बुलंद हो। विभिन्न राज्यों में आने वाले महीनों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत की संभावना फिलहाल बहुत कम दिखाई पड़ रही है। अगर हालात इसी तरह से रहे तो गांधी परिवार को कांग्रेस पार्टी में अपना वजूद बचाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
कांग्रेस में क्षेत्रीय क्षत्रपों द्वारा कब्जा कर लिया गया लगता है। हर राज्य में जो भी नेता पार्टी पर काबिज़ है, वहां चाहे सरकार हो या चाहे नहीं हो, कमोबेश हर राज्य में कोई न कोई एक नेता पार्टी की कमान अपने हाथ में लिए हुए है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल कांग्रेस के खेवनहार बने हुए हैं तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ कांग्रेस के पालनहार के रूप में अपने को स्थापित किए हुए हैं।
भूपेश बघेल तो राहुल गांधी का समर्थन खुलेआम करते दिखाई पड़ते हैं लेकिन कमलनाथ और राहुल गांधी के बीच में मनमुटाव की खबरें लंबे समय से आती रही हैं। कमलनाथ जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब भी कई अवसरों पर राहुल गांधी से उन्होंने किनारा किया था। जिनकी खबरें सार्वजनिक रूप से सामने आई थी। अभी भी हालात ऐसे ही बने हुए हैं।
कमलनाथ अब तक ना तो भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुए हैं और ना ही पार्टी पर आए संकट के समाधान की ओर कोई कदम बढ़ाया है। इसके विपरीत हाईकमान के बुलावे पर दिल्ली पहुंचे कमलनाथ ने ऐलान कर दिया था कि वह तो मध्यप्रदेश में ही रहेंगे। अध्यक्ष पद का चुनाव ना लड़ेंगे और ना राजस्थान संकट के समाधान पर किसी से बात करेंगे। राजस्थान में तो अशोक गहलोत ने खुद को आलाकमान घोषित ही कर दिया लगता है।
राहुल गांधी की पार्टी में कमजोर हो रही पकड़ को देखते हुए एक बार फिर सोनिया गांधी ने असंतुष्ट नेताओं को साधने की कोशिश की है। अध्यक्ष उम्मीदवार के जरिए असंतुष्ट नेताओं को संतुष्ट किया गया है। कांग्रेस में वरिष्ठ नेताओं की खींचतान आगे भी जारी रहेगी। जहां भी चुनाव होने वाले हैं वहां प्रत्याशियों के चयन में ऐसे ही हालात बनने की संभावना है जैसे कि राजस्थान में बने हैं।
राहुल गांधी के खिलाफ वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी को देखते हुए सोनिया गांधी इस प्रयास में लगी हैं कि किसी तरह से इस संकट का समाधान निकाला जाए। राहुल गांधी की पार्टी में मजबूती के साथ वापसी तभी संभव है जब उनकी चुनाव जिताऊ क्षमता साबित हो। जब तक वह जनता के बीच कांग्रेस को जिताने की अपनी हैसियत को मजबूत नहीं करेंगे तब तक पार्टी में बड़े नेताओं और हाईकमान के बीच लड़ाई जारी रह सकती है।
दिग्विजय सिंह जैसे गांधी परिवार के कट्टर समर्थक नेता भी राहुल विरोधी नेताओं का शिकार बनते रहेंगे। इन हालात को नहीं संभाला गया तो धीरे-धीरे गांधी परिवार से कटने वाले नेताओं की संख्या बढ़ती ही जाएगी। कांग्रेस को जोड़ने का जो भी दम ख़म है वह गांधी परिवार के पास ही है। ऐसे में गांधी परिवार यह क्षमता भी खो देगा तो पार्टी का ‘भविष्य उज्ज्वल’ कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है।
इससे पहले भी ऐसी स्थितियां बनी हैं जब कांग्रेस बुरे समय से गुज़री हो तब भी गांधी परिवार ही कांग्रेस का संबल बना था। राजीव गांधी की हत्या के बाद के दौर में भी कांग्रेस बिखरती दिख रही थी तब सोनिया गांधी ने ही आगे आकर न सिर्फ कांग्रेस को मजबूत किया था बल्कि सत्ता तक भी पहुंचाया था।
(आलेख सोशल मीडिया से साभार)
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