किसी भी समाज की मजबूत नींव उसकी शिक्षा व्यवस्था से होती है। खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा में क्या पढ़ाया जा रहा है, यह भविष्य को तय करता है और जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत वर्ष की चर्चा करते हैं तो यह यक्ष प्रश्र की तरह हमारे समक्ष खड़ा रहता है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां हर फैसले राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से तय किया जाता है, वहां की प्राथमिक शिक्षा को भी इसी तराजू पर तौल कर देखा जाता है। यह सवाल आज के दौर में सामयिक हो चला है क्योंकि केन्द्र सरकार की अभिनव योजना ‘अग्निपथ’ कटघरे में है।
सवालों में घिरी ‘अग्निपथ’ योजना को लेकर संशय और नकरात्मक भाव बना हुआ है। हालांकि ‘अग्निपथ’ को राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। कुछ पल के लिए इस बात को बिसरा भी दें तो सबसे पहले सवाल उठता है कि हमारी सिविल सोसायटी पुलिस और सेना के बारे में क्या और कितना जानती है?
यह सवाल इसलिए भी कि जब आपकी प्राथमिक कक्षाओं में कभी पुलिस और सेना को पढ़ाया ही नहीं गया तो हम उनके बारे में जानते ही नहीं हैं। हां, एक लक्ष्मण रेखा पुलिस और सेना को लेकर खींच दी गई है कि ये सिविल सोसायटी से दूर रहेंगे।
इसी सिलसिले में न्यायपालिका को भी रखा गया है। ‘अग्निपथ’ योजना के बहाने ही सही, इन पर चर्चा करना जरूरी है क्योंकि यही चर्चा ‘अग्निपथ’ योजना की प्रासंगिकता को उचित अथवा अनुचित प्रमाणित करेगा।
भारत ही समूचे विश्व में रोजगार का संकट गहरा रहा है। काम के अवसर खत्म हो रहे हैं और जहां काम के अवसर हैं, वहां नयी नियुक्तियां नहीं होkरही है। ऐसे में एक लोकतांत्रिक सरकार का कर्तव्य हो जाता है कि वह संकट में समाधान तलाश कर संकट को भले ही खत्म ना करे, कम करने की कोशिश तो कर सकती है।
एक जानकारी के अनुसार लम्बे समय से सेना में भर्ती नहीं हुई है. सेना का मसला निश्चित रूप से संवेदनशील है अत: कड़े परीक्षण के बाद ही भर्ती का रास्ता खुलता है। केन्द्र सरकार ने ‘अग्निपथ’ योजना के माध्यम से प्रतिवर्ष करीब 45 हजार युवाओं की भर्ती का रास्ता प्रशस्त किया है। हालांकि उनकी यह भर्ती चार वर्षो के लिए होगी।
अब इस बात को लेकर बहस-मुबाहिसा शुरू हो गया है कि चार वर्ष बाद युवा बेरोजगार हो जाएंगे और आगे का रास्ता उनका कठिन होगा। यह सवाल बेमानी नहीं है लेकिन वर्तमान स्थितियों पर नजर डालें तो समझ में आएगा कि आलोचना का जितना स्वर गंभीर है उसके मुकाबले ‘अग्निपथ’ योजना बेकार नहीं है।
पहली बात तो यह कि युवाओं के मन में हम राष्ट्रीयता की भावना देखना चाहते हैं जो सिविल सोसायटी में रहते हुए अपने लक्ष्य से दूर है जिसकी पूर्ति ‘अग्निपथ’ योजना के माध्यम से हो सकेगी। चार वर्ष की अवधि में वह सेना की कार्यवाही देखने के बाद युवाओं में देश के प्रति प्रेम का संचार होगा।
वह सेना की चुनौतियों को समझ सकेंगे। साथ में चार वर्ष की अवधि में उन्हें ओपन स्कूल और ओपन यूनिवर्सिटी से शिक्षा हासिल करने की सुविधा भी होगी. एक बात थोड़ी कड़ुवी है लेकिन सच यह है कि सेना में जाने वाले युवा मध्यमवर्गीय परिवारों से होते हैं. ऐसे में 45 हजार परिवारों के मन में आश्वस्ति का भाव रहेगा कि उनके बच्चे भविष्य बनाने का अवसर मिल रहा है।
इस नाते ‘अग्निपथ’ उनके लिए लाल कार्पेट बिछा हुआ स्वागत करता भारत होगा. ये 45 हजार युवा जब चार वर्ष सेना में अनुभव हासिल कर लौटेंगे तो समाज में होने वाले अपराधों के खिलाफ भी खड़े होंगे। यह तो एक साल की बात है, यह आगे और आगे चलती रहेगी और सिविल सोसायटी को इसका लाभ मिल सकेगा।
चूंकि हमने प्राथमिक शिक्षा में पुलिस और सेना पढ़ाया नहीं है अत: उनके संघर्ष और चुनौतियों से सिविल सोसायटी के युवा परिचित नहीं हैं। लेकिन यह चार वर्ष का अनुभव उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाने में सहयोग करेगा। सिविल सोसायटी के अधिकांश लोग इस बात से भी अपरिचित हैं कि ‘अग्निपथ’ योजना से इतन सेना में भर्ती होने वाले युवा भी सोलह साल की नौकरी के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर वापस लौट आते हैं।
एक बड़ा सवाल ‘अग्निपथ’ को लेकर किया जा रहा है कि चार साल बाद सेना से वापस आने वाले युवा मार्ग ना भटक जाएं तो यह भी बहुत हद तक बेमानी शंका है क्योंकि सेना का शिक्षण-प्रशिक्षण ऐसा होता है कि वो देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं सोचते हैं।
यह और बात है कि कुछ अपवाद आपको मिल सकते हैं लेकिन संदेह की बुनियाद पर ‘अग्निपथ’ जैसी योजना को देखना अनुचित प्रतीत होता है। यह सवाल भी खड़ा किया जा रहा है कि सेना से चार वर्ष बाद आने वाले युवा प्रतियोगी परीक्षा के लिए उम्र पार कर चुके होंगे तो क्या सवाल उठाने वाले इस बात की गारंटी देते हैं कि इन 45 हजार युवा प्रतियोगी परीक्षा में सफल होंगे?
यह संभव नहीं है. इसे इस नजर से देखा जाना चाहिए कि 45 हजार युवाओं को रोजगार मिलता है तो वह अवसादग्रसित नहीं होंगे। अवसाद ग्रसित नहीं होने से वे स्वयं इतने सक्षम होंगे कि बेहतर रास्ता तलाश लेंगे।
एक बात यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि सेना में जाना रोजगार नहीं बल्कि एक अनुभव हासिल करने के चार वर्ष होंगे। ऐसे अनेक बेमानी सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि हम स्वतंत्रता के बाद से प्राथमिक शिक्षा में पुलिस, सेना और न्यायपालिका, कार्यपालिका का पाठ नहीं पढ़ाया।
अब समय आ गया है कि आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर जब हम नई शिक्षा नीति लेकर आ गए हैं तब प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में इन्हें शामिल किया जाए। बदलते भारतीय समाज में आज इसकी जरूरत है वरना राजनीतिक चश्मे से देखी जाने वाली हर योजना अपने समय के साथ अपना औचित्य गंवा देगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं सुपरिचित शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)