आजादी के बाद कुछ ऐसी अवधारणाएँ पतंगों की तरह उड़ाई गईं, जिनका कोई सिर-पैर था नहीं। इनसे एक ऐसी दूषित दृष्टि पैदा हुई, जिसके साइड इफेक्ट अंतहीन हुए। मैं सबसे पहले रखूंगा- ‘गंगा-जमनी रवायत’ को। कौमी एकता के लिए रचा गया एक ऐसा बनावटी गान, जिसकी पोल खुल चुकी है।
गंगा-जमनी एकता की लाँचिंग कब और किसने किस तरह की थी, इसकी तलाश में मैं इतिहास में गया। ज्यादा दूर नहीं जाना था। केवल हजार साल की यात्रा करनी थी। यह दो संस्कृतियों के महामिलन का एक लुभावना रूपक था। गंगा तो यहीं की थी। मुझे लगा कि पीछे जाने पर कहीं गजनवी-गौरी या तुगलक-तैमूर कहीं दूर अरब से जमना जी को किसी अंडरग्राउंड टनल के जरिए लाते हुए और प्रयागराज में संगम पर समारोहपूर्वक गंगा में उसे मिलाने के साथ गले मिलते हुए दृष्टिगोचर होंगे। कौमों की एकता कोई मामूली काम तो है नहीं। उसे ऐसे ही भगीरथी प्रयासों की जरूरत होगी।
मगर बड़े अफसोस से कहना पड़ता है कि मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा। बीते हजार सालों में मुझे कहीं गंगा-जमनी नाम की कोई चिड़िया किसी सेक्युलर घोंसले में कौमी एकता के अंडे देते हुए दिखाई नहीं दीं। वहां कुछ और ही चलता हुआ नजर आया, जिसे इतिहास की किताबों में हमारी नजरों से पूरी तरह बचाया गया। सेक्युलरिज्म भी इसी गंगा-जमनी रवायत का एक उत्कृष्ट उत्पाद है, जो अब एक्सपायरी डेट की दवा की तरह सिस्टम की दराज में शोभायमान है। कुछ बेवकूफियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें ढोने में ही भलाई लगने लगती है।
इन आधारहीन अवधारणाओं का असर सिनेमा में यह पड़ा कि हमने आजादी के डेढ़ दशक बाद ही बड़े परदे पर रंगारंग और भव्य मुगले-आजम के दीदार किए। अपने समय के प्रभावशाली अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के चेहरे पर अकबर को चिपकाया गया और अकबर के तीन नशेड़ी बेटों में से एक सलीम को जहाँगीर की शक्ल में हमने एक और बड़े अभिनेता दिलीप कुमार में देखा। पचास साल बाद वह अकबर आजाद भारत की तीसरी पीढ़ी तक आते-आते और स्मार्ट और चमकदार हो गया। अब हमने उसे जोधा-अकबर में ऋतिक रोशन के चेहरे पर चिपकाया। भले ही जोधा जैसी कोई किरदार इतिहास में हो या नहीं!
अकबर के हरम में स्त्रियों की कोई कमी नहीं थी। हरम यानी गोदाम। वेयरहाऊस, जहां लगातार बढ़ती संख्या में लड़कियां जमा की जाती थीं। अकबर के गोदाम में राजस्थान के ही कई राजघरानों की लड़कियां थीं। मध्यप्रदेश में जबलपुर के पास रानी दुर्गावती के बलिदान के बाद उनके महलों से भी दो लड़कियों को ले जाया गया था। सारंगपुर में जब वह आया तो लड़कियों की छीनाझपटी का एक मजेदार दृश्य है। इनमें जोधा नाम की कोई नहीं है। मगर अकबर मुगले-आजम है। एक समय वह पृथ्वीराज कपूर जैसा प्रभावी है और फिर ऋतिक रोशन जैसा चमकदार भी। आजाद भारत के कल्पनाशील इतिहासकारों के ख्वाबों में तैरती गंगा-जमनी रवायत की एक महान मूर्ति!
मैंने पिछले साल इतिहासकार इरफान हबीब और रोमिला थापर को एक पत्र लिखा था। यह केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर कसा गया तंज नहीं था। मेरे ढाई दशक के अध्ययन के बाद अनुभव में आए तथ्यों के आधार पर उठाए गए कुछ प्रश्न थे। एक जिज्ञासु के नाते मुझे अपने आचार्यों से प्रश्न करने का अधिकार है।
मैंने उन्हें लिखा था कि भारत के मध्यकाल का इतिहास एक ऐसी शोले की तरह रचा गया, जिसमें गब्बरसिंह, सांभा और कालिया मिलकर रामगढ़ के विकास की योजनाएं बना रहे हैं। बहन बसंती ने गब्बर को राखी भेजी है और तोहफे में रामगढ़ की आटा चक्की वह बसंती के नाम कर रहा है। जय और वीरू बेचारे रामगढ़ की किसी गली में बसंती की घोड़ी धन्नो को घास खिलाने के काम में लगे हैं!
इतिहासकारों ने मध्यकाल में ‘सल्तनत और मुगलकाल’ नाम के दो आकर्षक फिल्मिस्तानी सेट लगाकर हमें बताया कि सल्तनतकाल में सुलतान और मुगलकाल में बादशाहों ने भारत पर हुकूमत की। सच्चाई यह है कि सल्तनत और मुगलकाल जैसा कुछ है ही नहीं। इन्हें सुलतानों, बादशाहों, नवाबों और निजामों के ताज हमने पहना दिए। वह भयावह इस्लामी अंधड़ों से भरा हुआ भारत का कलंकित और व्यर्थ संघर्षों से भरा हुआ कालखंड है, जिसकी परिणति मजहब के आधार पर हुए देश के टुकड़ों में भी नहीं हुई। वह धीमी गति का जहर भारत की नसों में दौड़ता ही रहा।
वह ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ नहीं है, वह ‘क्राइम हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ है और अपने समय के उन दुर्दांत आतंकी-अपराधियों का इतिहास 1947 की 16 अगस्त से इसी ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए था। वह गुनाहों का रोजनामचा है। दिल्ली कोई राजधानी नहीं थी, बल्कि वह इनके शातिर गिरोहों का एक अड्डा बना दी गई थी, जहां से वे पूरे देश के शिकार पर निकलते थे। मगर दानिशमंद इतिहासकार अलाउद्दीन खिलजी की बाजार नीतियों का यशगान करने ऐसे बैठ गए, जैसे खिलजी के कारण शेयर मार्केट ऊपर ही रहा और विदेशी निवेश उसके बाद कभी उस स्तर पर नहीं आ पाया!
सरकारी नीतियों में इसके साइड इफेक्ट अंतहीन है। फिर माइनॉरिटी का पर्याय मुस्लिम बन गए। दुनिया के किसी देश में 15-20 करोड़ की लगातार तेजी से बढ़ती आबादी अल्पसंख्यक नहीं है। मगर भारत अपने आत्मघात में जितना उत्सुक दिखाई दिया, उतना कोई देश नहीं रहा होगा। फिर अल्पसंख्यक मंत्रालय चाहिए। पार्टियों में प्रकोष्ठों की प्रतिष्ठा आवश्यक हो गई। यह आर्केस्ट्रा पर्सनल लॉ बोर्ड का बैंड भी ले आया और एक्शन कमेटियों के साथ वक्फ बोर्ड के फनकार भी फन फैलाकर बैठ गए। दिल्ली में बैठकर भारत के हजारों सालों के ज्ञात इतिहास की महिमा केवल कुतुबमीनार से ताजमहल तक सिमट गई।
हमारे समय के एक महान मनीषी प्रधानमंत्री को यह कहते हुए कोई संकोच नहीं था कि भारत के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। और गीता से जो ज्ञान पांच हजार साल के अतीत में आचार्य शंकर से लेकर स्वामी विवेकानंद तक, अरविंदो से लेकर आचार्य रजनीश तक, तिलक से लेकर गांधी तक किसी को नहीं मिला, वह सेक्युलर दृष्टि से संपन्न एक नेता अभी-अभी खोज लाया। उसे गीता में जिहाद के दर्शन हो गए। इससे यह सिद्ध हो गया कि ईश्वर और अल्लाह एक ही हैं। राम और रहीम में कोई फर्क नहीं है। जैसी कुरान, वैसी गीता। देखिए इधर भी जिहाद की तालीमें हैं और वो भी गीता में!
मीडिया तो समाज का आइना है। आइने की अपनी आंख नहीं होती। आइने के पास दिमाग भी नहीं पाया जाता। वह तो जैसा है वैसा ही दिखाता-बताता है। और उसने क्या दिखाया-बताया? फैजल अगर आईएएस बन गया है तो उसके पूरे परिवार की नामजद डिटेल के साथ वह फ्रंट पेज हेडलाइन है। और अगर वह किसी क्राइम में पकड़ा गया है तो वह समुदाय विशेष के तीन युवकों में से एक है।
अब यह समुदाय विशेष या वर्ग विशेष का आविष्कार भी कमाल का साइड इफेक्ट है! किसी ने कभी नहीं पूछा कि ये विशेष समुदाय होता क्या है? उसकी पाँच प्रमुख विशेषताएं बता दें? वह कहां पाया जाता है? उसकी पहचान क्या है? उसके दर्शन कब और कहां ठीक से किए जा सकते हैं? विशेष प्रकार का बनने के लिए उनकी शिक्षा कहां से होती है? हम उनके मार्ग पर चलकर विशेष प्रकार के बने, इसके लिए किससे संपर्क करना होगा?
दिलचस्प यह भी है कि विशेष समुदाय के किसी बुद्धिमान ने भी यह सवाल नहीं उठाया कि उन्हें विशेष वर्ग क्यों कहा या लिखा जाता है? आप नाम लिख दीजिए। लोग स्वयं समझ जाएंगे कि वह वाकई विशेष प्रकार है या नहीं। मगर मीडिया की अपनी दृष्टि रही है। नेत्र का दृष्टि से कोई संबंध वैसे भी नहीं होता। पिछले तीस सालों में दुनिया भर में हुई आतंकी हमलों और धमाकों के गुनाहगारों की सूची देख लीजिए। एक जैन, बौद्ध, पारसी, सिख नहीं मिलेगा मगर भारत में अगर आप हैं तो हर दिन गुनगुने पानी के साथ यह मंत्र याद रहे कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता!
एक हास्यास्पद साइड इफेक्ट उस तरफ भी दिल-दिमाग पर असरदार रहा है और वो है-‘हमने इस मुल्क पर 800 साल हुकूमत की है!’ मैंने हजार साल के दस्तावेजों में इसकी भी पड़ताल की। छलपूर्वक और बलपूर्वक हुए धर्मांतरण को अभी एक तरफ रखिए। इब्नबतूता ने मुझे मोहम्मद तुगलक के ईद के जलसों के लाइव विवरण दिए, जिनमें हर साल हजारों की संख्या में लड़कियां तोहफों में बांटी गईं। इब्नबतूता ने बताया कि ये पराजित छोटे-छोटे हिंदू राजघरानों की लड़कियां हैं।
जियाउद्दीन बरनी हमें दिल्ली में गुलामों की मंडी में ले गया, जहां 10-20 तनकों पर बिकने वाली लड़कियों और औरतों के दीदार उसने कराए। तुगलक 27 साल दिल्ली पर लदा रहा। लूट के माल की तरह उठाई गईं वे हजारों-हजार बेबस लड़कियां कोई खरीदकर ले गया। उनके बच्चे हुए होंगे। बच्चों के बच्चे हुए होंगे। आज इक्कीसवीं सदी के पाकिस्तान, बांग्लादेश और बचे-खुचे भारत में उनके वंशजों की पहचान किन चेहरों में की जाए?
आठ सौ साल हुकूमत कौन कर रहा है और वह उन बदकिस्मत बाशिंदों के साथ क्या कर रहा है, जिनके वंशज आठ सौ साल बाद इस हसीन वहम के मासूम शिकार होंगे कि हमने आठ सौ साल हुकूमत की है! गढ़ी गई अवधारणाएं ठोस दिमागों में काई की तरह जम गईं और उसने एक विशाल समुदाय का सामान्य विवेक भी छीन लिया। सच्चे इतिहास को एक मजार बनाकर सेक्युलरिज्म की चादर डाल दी गई। फिर अपने भूले-बिसरे सच को जानने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इतना विवेक भी नहीं बचा कि हम यह जान सकें कि हमें किन बातों पर गर्व करना चाहिए, किन पर शर्म आनी चाहिए और किन पर क्रोध लाजमी है। कोई खुद को गाली देकर खुद ही खुश कैसे हो सकता है!
(फेसबुक पोस्ट से साभार)