मक़बूल फ़िदा हुसैन या एम एफ़ हुसैन साहब का आज जन्मदिन है। साल 1990-91 से लेकर 2003-2006 के बीच इंदौर, मुंबई और अहमदाबाद में उनके साथ बिताने के लिये मिले वक्त की एक फ़ेहरिस्त है। फ़ेहरिस्त इंदौर में अंग्रेज़ी दैनिक ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के संपादन के दौरान उनके द्वारा घर और दफ़्तर को दी गई मुलाक़ातों, कई बार की चर्चाओं, फ़िल्म ‘गजगामिनी’ के रशेज़ मुंबई में उनके साथ देखने,’ इंदौर में ‘दै. भास्कर’ में कार्यकाल के दौरान दफ़्तर के सामने की खुली जगह पर ‘हुसैन की दीवार’ बनाने के प्रस्ताव के सिलसिले में उनके द्वारा काग़ज़ पर खींची गईं लकीरों और अहमदाबाद में ‘दिव्य भास्कर’ के संपादन के समय हुई बातचीतों तक फैली हुई है।
हुसैन साहब द्वारा इंदौर में बिताए गए प्रारम्भिक सालों का ठिकाना भी घर के नज़दीक और हमारे ही मोहल्ले उषागंज में था। उनके सबसे अज़ीज़ दोस्त मिट्ठूलाल अग्रवाल हमारे घर के नज़दीक ही रहते थे।मिट्ठूलाल जी का बेटा मेरा मित्र था। मुझे आज भी याद है मैं हुसैन साहब को किस तरह मिट्ठूलालजी के घर लेकर गया था और वे परिवार के लोगों से अत्यंत आत्मीयता से मिले थे।
एक निहायत ही शरीफ़ इंसान को उसकी शानदार पेंटिंग्स के लिए धर्म और संस्कृति के नाम पर किस तरह से प्रताड़ित कर देश छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, हुसैन साहब की ज़िंदगी के आख़िरी कुछ साल इसके गवाह हैं। इस कृत्य के लिए किसी ने कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं की। वे एक शानदार पेंटर, हिंदू धर्म और दर्शन के ज्ञाता और एक नेकदिल धर्म-निरपेक्ष इंसान थे।
अपनी हाल की एक टिप्पणी में मैंने कहा था कि कोई पच्चीस साल पहले इंदौर में उनके साथ हुई लंबी बातचीत अभी अप्रकाशित है किसी दिन शेयर करूँगा। उनके जन्मदिन से बेहतर दिन और वर्तमान से ज़्यादा ख़राब सांप्रदायिक माहौल उसे शेयर करने के लिए नहीं हो सकता था।
बातचीत को प्रश्नोत्तर के बजाय आलेख के रूप में दे रहा हूँ जिससे उस अद्भुत कलाकार के सोच की पूरी झलक मिल सके। उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि हुसैन साहब से चर्चा के दौरान नामी शायर स्व. राहत इंदौरी साहब के भाई स्व.आदिल क़ुरैशी(जो तब मेरे साथ ‘दैनिक भास्कर’ में सहयोगी थे) नोट्स लेने में मदद कर रहे थे। बातचीत लंबी है इसलिए आज उसका पहला भाग दे रहा हूँ। कल दूसरा भाग शेयर करूँगा :
‘’मैं नास्तिक या मुनकिर यानि ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाला नहीं हूँ। हर वह चीज जिसमें सच्चाई हो, ख़ूबसूरती हो मैं उसे मानता हूँ। धर्म के बारे में विश्वास पर मुझसे जब सवाल किया जाता है मैं ई एम फोस्टर की बात दोहराता हूँ।उन्होंने कहा था : ’मैं भगवान पर विश्वास नहीं करता मगर हे भगवान मेरे इस अविश्वास को शक्ति देना।’ ज़िंदगी जीने के लिए बहुत ज़्यादा व्यवस्थित तौर-तरीक़ों से मैं दूर रहता हूँ। मगर मैं बाग़ी नहीं हूँ। मेरे ख़यालात से जो लोग सहमत नहीं हैं मैं उनसे लड़ना नहीं चाहता बल्कि उनके साथ रहना चाहता हूँ।
अच्छे और बुरे सभी तरह के लोग शुरू से ही दुनिया में रहे हैं। समुद्र मंथन में सिर्फ़ देवताओं से काम नहीं चल सकता था। उसमें दानवों की भी ज़रूरत थी। इंसान से इंसान का जो ताल्लुक़ होता है उससे भी ज़्यादा गहरा ताल्लुक़ इंसान का ज़मीन से होता है ! फ़ैज़ के लफ़्ज़ों में कहें तो ‘जिलावतन’ होने पर वतन से दूरी का अहसास हुआ। मुल्क में मेरे ख़िलाफ़ जब नाराज़गी का माहौल था तब मुझे भी डर लगने लगा था कि मैं कभी भारत लौट पाऊँगा कि नहीं ! उस वक्त मैं लंदन में था।
कुछ लोगों ने कहा था जब तक मैं माफ़ी नहीं माँग लूँ, मुझे भारत की ज़मीन पर पैर नहीं रखने दिया जाएगा ! अपनी सफ़ाई में मैंने कहा था मैंने जो कुछ किया है अपने विवेक से किया है, प्रेमपूर्वक किया हैं ! अगर इस प्रक्रिया में किसी को ठेस पहुँची हो तो मुझे अफ़सोस है(Art less, humanity more)।ज़िंदगी में ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया जब मैं डर गया हूँ।
दक्षिण भारत के एक मौनव्रत धारण किए साधु मुझे दस साल से देख रहे थे। उन्होंने मुझे अपने आश्रम में रहने के लिए प्रस्ताव दिया। मैं उनकी इज्जत करता था मगर ऐसा कभी सोचा नहीं था कि उनके आश्रम में रहने जाऊँ। क्योंकि मैं जब पेंटिंग करता हूँ तो भी बहुत एकाग्रता की ज़रूरत होती है। यह ध्यान की तरह ही है। हज़ारों लोग भी उस वक्त आसपास हों तो लगता नहीं कि कोई आसपास है।अगर आप बीस कैनवास भी रख दें तो मुझे सोचना नहीं पड़ेगा कि क्या बनाऊँ ! मुझे लगता है कि अभी तक जो कुछ भी मैंने दिया है ,जो कुछ भी बाहर निकला है वह सिर्फ़ एक प्रतिशत है। अभी 99 प्रतिशत बाहर आना बाक़ी है !’’ (बाक़ी बातचीत अगली दो किश्तों में )