किसान संसार का अन्नदाता है लेकिन आज की व्यवस्था में वह स्वयं प्राय: दाने-दाने को तरस जाता है. उसकी कमाई से कस्बों से लेकर नगरों में लोग फलते-फूलते हैं पर उसके हिस्से में आपदाएं ही आती हैं। सूखे की मार से फसल सूख जाती है। बाढ़ से खेत डूब जाते हैं. लेकिन दोनों से बड़ी आपदा तब आती है जब साल भर की मेहनत से घर आई फसल की कीमत इतनी कम मिलती है कि लागत-खर्च भी नहीं निकलता. … अगर आज किसान बदहाल है तो इसके लिए पूरी तरह सरकारों की किसान-विरोधी नीतियां ही जिम्मेदार हैं जो गावों को उजाड़ कर महानगरों के एक हिस्से को अलकापुरी बनाने में लगी हैं. … देश के पायेदान पर गांव हैं और नगरों के पायेदान पर गांवों से उजाड़े गए लोगों का निवास होता है। (‘खेती-किसानी की नई नीति’, सच्चिदानंद सिन्हा, समाजवादी जन परिषद्, 2004)
पिछले तीन दशकों से देश में शिक्षा से लेकर रक्षा तक, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से लेकर छोटे-मंझोले-खुदरा व्यवसाय तक, सरकारी कार्यालयों से लेकर संसद भवन तक और संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से लेकर साहित्य-कला-संस्कृति केंद्रों तक को निगम पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत समाहित करने की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में कृषि जैसा विशाल क्षेत्र इस प्रक्रिया के बहार नहीं रह सकता। संवैधानिक समाजवाद की जगह निगम पूंजीवाद की किली गाड़ने वाले मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमंत्री, और बाद में बतौर प्रधानमंत्री, इस प्रक्रिया को शास्त्रीय ढंग से चलाया। विद्वान अर्थशास्त्री और कुछ हद तक आज़ादी के संघर्ष की मंच रही कांग्रेस पार्टी से संबद्ध होने के चलते उनकी आंखें हमेशा खुली रहती थीं। कवि-ह्रदय अटलबिहारी वाजपेयी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में कभी आंखें मीच लेते थे, कभी खोल लेते थे।
नरेंद्र मोदी आंख बंद करके निगम पूंजीवाद की प्रक्रिया को अंधी गति प्रदान करने वाले प्रधानमंत्री हैं। वे सत्ता की चौसर पर कारपोरेट घरानों के पक्ष में ब्लाइंड बाजियां खेलते और ताली पीटते हैं। इस रूप में अपनी भूमिका की धमाकेदार घोषणा उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही कर दी थी – कांग्रेस ने 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के पक्ष में कुछ संशोधन किए थे। मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही उन संशोधनों को अध्यादेश लाकर पूंजीपतियों के पक्ष में निरस्त करने की पुरजोर कोशिश की।
केंद्र सरकार द्वारा कोरोना महामारी के समय लाए गए तीन कृषि-संबंधी अध्यादेश – कृषि-उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020, मूल्य का आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश 2020, आवश्यक वस्तु संशोधन अध्यादेश 2020 – उपर्युक्त प्रक्रिया और उसमें मोदी की विशिष्ट भूमिका की संगती में हैं। दरअसल, उपनिवेशवादी व्यवस्था के तहत ही कृषि को योजनाबद्ध ढंग से ईस्ट इंडिया कंपनी/इंग्लैंड के व्यापारिक हितों के अधीन बनाने का काम किया गया था। नतीज़तन, खेती ‘उत्तम’ के दर्जे से गिर कर ‘अधम’ की कोटि में आती चली गई। आज़ादी के बाद भी विकास के लिए कृषि/गांव को उद्योग/शहर का उपनिवेश बना कर रखा गया। हालांकि संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की रोशनी में समतामूलक समाज कायम करने के संकल्प के चलते उपनिवेशवादी दौर जैसी खुली लूट की छूट नहीं थी। उद्योग (इंडस्ट्री) के मातहत होने के बावजूद कृषि-क्षेत्र ने आर्थिक संकट/मंदी में बार-बार देश की अर्थव्यवस्था को सम्हाला। अब मोदी और उनकी सरकार कृषि को पूरी तरह कारपोरेट घरानों के हवाले करने पर आमादा है। कारपोरेट घराने मुनाफे का कोई भी सौदा नहीं चूकते। नवउदारवादी नीतियों के रहते विशाल कृषि-क्षेत्र उनकी मुनाफे की भूख का शिकार होने के लिए अभिशप्त है।
छोटी पूंजी के छोटे व्यावसाइयों के बल पर पले-बढ़े आरएसएस/भाजपा बड़ी पूंजी की पवित्र गाय की तरह पूजा करने में लगे हैं। मोदी-भागवत नीत आरएसएस/भाजपा ने कारपोरेट घरानों को और कारपोरेट घरानों ने आरएसएस/भाजपा को मालामाल कर दिया है। जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा नज़र आता है, वे भ्रम फ़ैलाने में लगे रहते हैं कि वास्तव में कारपोरेट-हित में बनाए गए श्रम और कृषि-कानून मज़दूरों/किसानों को भी मालामाल कर देंगे! बड़ी पूंजी की पूजा का मामला आरएसएस/भाजपा तक सीमित नहीं है। कोई अर्थशास्त्री, राजनेता, यहां तक कि मजदूर/किसान नेता भी अड़ कर यह सच्चाई नहीं कहता कि कारपोरेट घरानों की बड़ी पूंजी राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधनों, कृषि और सस्ते श्रम की लूट का प्रतिफल है। यह लूट उन्होंने देश के शासक-वर्ग की सहमती और सहयोग से की है। फर्क यह है कि पहले कारपोरेट घराने पार्टियों/नेताओं की गोद में बैठने का उद्यम करते थे, अब पार्टी और नेता कारपोरेट घरानों की गोद में बैठ गए हैं। भारत में ‘गोदी मीडिया’ ही नहीं, ‘गोदी राजनीति’ भी अपने चरम पर है।
बड़ी पूंजी की पूजा के नशे की तासीर देखनी हो तो आरएसएस/भाजपा और उसके समर्थकों का व्यवहार देखिए। किसान कहते हैं कृषि-कानून उनके हित में नहीं हैं, लेकिन प्रधानमंत्री कहते हैं इन कानूनों में किसानों के लिए अधिकार, अवसर और संभावनाओं की भरमार है। किसान खुद के फैसले के तहत महीनों तक कृषि कानूनों के विरोध में धरना-प्रदर्शन करते हैं और ‘दिल्ली चलो’ की घोषणा करके संविधान दिवस (26 नवंबर) के दिन राजधानी में दस्तक देने के लिए कूच करते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री लगातार प्रचार करते हैं कि किसानों को विपक्ष द्वारा भ्रमित किया गया है – ऐसा विपक्ष जिसने 70 सालों तक किसानों के साथ छल किया है। किसानों को प्रतिगामी और मरणोन्मुख तबका तो सैद्धांतिक रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा में भी माना जाता है; लेकिन मोदी और उनके अंध-समर्थक उन्हें बिना सोच-समझ रखने वाला प्राणी प्रचारित कर रहे हैं।
मोदी और उनकी सरकार की शिकायत है कि कृषि-कानूनों के खिलाफ केवल पंजाब के किसान हैं, गोया पंजाब भारत का प्रांत नहीं है। कहना तो यह चाहिए कि पंजाब के किसानों ने अध्यादेश पारित होने के दिन से ही उनके विरोध में आंदोलन करके पूरे देश को रास्ता दिखाया है। पंजाब के किसानों की शायद इस हिमाकत से कुपित होकर उन्हें ‘खालिस्तानी’ बता दिया गया है। देश के संसाधनों/उपक्रमों को कारपोरेट घरानों/बहुराष्ट्रीय कंपनियों को औने-पौने दामों पर बेचने में बिचौलिए की भूमिका निभाने वाला शासक-वर्ग किसान-मंडी के बिचौलियों के बारे में ऐसे बात करता है, गोया वे जघन्य अपराध में लिप्त कोई गुट है! बड़ी पूंजी की पूजा का नशा जब सिर चढ़ कर बोलता है तो हर सिख खालिस्तानी, हर मुसलमान आतंकवादी, हर मानवाधिकार कार्यकर्ता अर्बन नक्सल और हर मोदी-विरोधी पाकिस्तानी नज़र आता है। प्रधानमंत्री का आरोप है कि लोगों के बीच भ्रम और भय फ़ैलाने का नया ट्रेंड देखने में आ रहा हैं। लेकिन उन्हें देखना चाहिए कि उन्होंने खुद पिछले सात सालों से एक अभूतपूर्व ट्रेंड चलाया हुआ है – कारपोरेट-हित के एक के बाद एक तमाम फैसलों का यह शोर मचा कर बचाव करना कि देश में पिछले 65 सालों में कुछ नहीं हुआ।
किसान पुलिस द्वारा लगाए गए विकट अवरोधों, पानी की बौछारों और आंसू गैस का सामना करते हुए संविधान दिवस पर दिल्ली के प्रमुख बॉर्डरों तक पहुंच गए। लेकिन पुलिस ने उन्हें दिल्ली में नहीं घुसने दिया. दबाव बनने पर केंद्र और दिल्ली सरकारों के बीच बनी सहमति के तहत किसानों को पुलिस के घेरे में बुराड़ी मैदान में जमा होने की अनुमति दी गई। लेकिन तय कार्यक्रम के अनुसार जंतर-मंतर पहुंच कर प्रदर्शन करने की मांग पर अडिग किसानों ने बुराड़ी मैदान में ‘कैद’ होने से इनकार कर दिया। उन्होंने दिल्ली के सिंघु और टीकरी बॉर्डरों पर धरना दिया हुआ है। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान कृषि कानूनों के विरोध में गाजीपुर बॉर्डर पर धरना देकर बैठे हैं।
सरकार और पंजाब के किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच 1, 3 और 5 दिसंबर को हुई बातचीत पहले हुई 13 नवंबर 2020 की बातचीत की तरह बेनतीजा रही है। अब 9 दिसंबर को फिर बातचीत होगी, जिसकी आगे जारी रहने की उम्मीद है। इस बीच किसान संगठनों ने 8 दिसंबर को भारत बंद का आह्वान किया है। किसानों ने अपना धरना उठाया नहीं है, और कई किसान संगठनों, मज़दूर संगठनों और नागरिक समाज मंचों ने आंदोलन के समर्थन की घोषणा कर दी है। किसान 6 महीने के राशन के इंतजाम के साथ आए हैं, और अपनी मांगों के पूरा होने से पहले वापस नहीं लौटेंने का संकल्प दोहराते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी दर्ज़ा देने की मांग तो है ही, साथ में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग भी है। आंदोलन की यह खूबी उल्लेखनीय है कि वह पूरी तरह शांतिपूर्ण और शालीन है, और उसके नेता सरकार के साथ बातचीत में भरोसा करने वाले हैं।
सरकार अभी या आगे चल कर किसानों की मांगें मानेगी या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि आंदोलनकारी किसान एक समुचित राजनैतिक चेतना का धरातल हासिल करने के इच्छुक हैं या नहीं। जिस तरह से दुनिया और देश में तेजी से बदलाव आ रहे हैं, खेती से संबद्ध कानूनों, संचालन-तंत्र (लोजिस्टिक्स) और संस्थाओं आदि में बदलाव लाना जरूरी है। आज के भारत में खेती को उद्योग के ऊपर या समकक्ष स्थापित नहीं किया जा सकता. उसके लिए गांधी के ग्राम-स्वराज और लोहिया के चौखम्भा राज्य की विकेंद्रीकरण पर आधारित अवधारणा पर लौटना होगा। देश का प्रबुद्ध प्रगतिशील तबका ही यह ‘पिछड़ा’ काम हाथ में नहीं लेने देगा। खेती को सेवा-क्षेत्र के बराबर महत्व भी नहीं दिया जा सकता। अभी की स्थिति में इतना ही हो सकता है कि बदलाव संवैधानिक समाजवादी व्यवस्था के तहत हों, न कि निगम पूंजीवादी व्यवस्था के तहत। किसान खुद पहल करके पूरे देश में को-आपरेटिव इकाइयां कायम कर सकते हैं, जहां ताज़ा, गुणवत्ता-युक्त खाद्य सामान उचित दर पर उपलब्ध हो सके। इससे उसकी आमदनी और रोजगार बढ़ेगा। देश भर के किसान संगठन इसमें भूमिका निभा सकते हैं।
किसान देश का सबसे बड़ा मतदाता समूह है। किसान का वजूद खेत मज़दूरों, जो अधिकांशत: दलित जातियों के होते हैं, और कारीगरों (लोहार, बढ़ई, नाई, धोबी, तेली, जुलाहा आदि) जो अति पिछड़ी जातियों के होते हैं, से मिल कर पूरा होता है। भारत के आदिवासी आदि-किसान भी हैं। खेती से जुड़ी इस विशाल आबादी में महिलाओं की मेहनत पुरुषों से ज्यादा नहीं तो बराबर की होती है। जातिवाद, पुरुष सत्तावाद और छुआछूत की मानसिकता से मुक्त होकर ही किसान निगम पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एकजुट और लंबी लड़ाई लड़ सकता है। आपसी भाई-चारा और सामुदायिकता का विचार/व्यवहार उसे विरासत में मिला हुआ है। निगम पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए समाज में सांप्रदायिकता का जो ज़हर फैलाया जा रहा है, उसकी काट किसान ही कर सकता है। आज़ादी के संघर्ष में किसान शुरू से ही साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना का दुविधा-रहित वाहक था, जबकि सामंत और नवोदित मध्य-वर्ग के ज्यादातर लोग अंत तक दुविधा-ग्रस्त बने रहे। आंदोलन में शरीक कई किसानों के वक्तव्यों से पता चलता है कि वे देश पर कसे जा रहे नव-साम्राज्यवादी शिकंजे के प्रति सचेत हैं। किसानों की यह राजनीतिक चेतना स्वतंत्रता, संप्रभुता, स्वावलंबन की पुनर्बहाली के लिए जरूरी नव-साम्राज्यवाद विरोधी चेतना का आधार हो सकती है।
(प्रो. प्रेम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)