उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा लाई जाने वाली प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण नीति देश के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य में जनसंख्या पर लगाम लगाने की एक ईमानदार कोशिश है अथवा महज एक राजनीतिक शोशेबाजी है, जो प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की गई है?
यह देश की एक ज्वलंत समस्या के समाधान की दिशा में उठाया जा रहा जरूरी कदम है या फिर देश की दूसरी गंभीर समस्याओं से ध्यान हटाने भाजपा के धारणा प्रबंधन (परसेप्शन मैनेजमेंट) का नया चैप्टर है? यह देश की बेलगाम होती जनसंख्या के प्रति लोगों को सचेत करने की गंभीर पहल है या आगामी चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण की नई चतुर चाल है?
ये तमाम सवाल इसलिए क्योंकि जिस मोदी सरकार ने पिछले साल देश में दो संतान नीति लागू करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर अपने हलफनामे में कहा था कि सरकार की ऐसी नीति लाने की कोई मंशा नहीं है। उसके साल भर बाद ही यूपी में दो संतान नीति लागू करने की बात की जा रही है।
हालांकि यह नीति भी नई नहीं है, देश के आधा दर्जन राज्यों में मर्यादित रूप में यह पहले से लागू है। लेकिन इस गंभीर सामाजिक समस्या पर भी राजनीतिक-धार्मिक आधार पर जो तलवारबाजी होनी थी, वो शुरू हो चुकी है। बढ़ती आबादी के खोल में अपना-अपना वोट बैंक बचाने का सियासी बटन दबाया जा रहा है।
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रस्तावित नीति का ड्राफ्ट जारी करते हुए कहा कि इसके तहत अब राज्य में जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे, वे न तो सरकारी नौकरी के लिए योग्य होंगे और न ही कभी स्थानीय चुनाव लड़ पाएंगे।
गौरतलब है कि इस मसौदे की सिफारिश उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने की है जिसके मुताबिक ‘एक संतान’ नीति अपनाने वाले माता-पिता को कई तरह की सुविधाएं दी जाएं, वहीं दो से अधिक बच्चों के माता-पिता को सरकारी नौकरियों से वंचित रखा जाए। इतना ही नहीं, उन्हें स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने से रोकने समेत कई तरह के प्रतिबंध लगाने की सिफारिश इस प्रस्ताव में की गई है।
आयोग ने इस मसौदे पर 19 जुलाई तक लोगों से आपत्तियां व सुझाव मांगे हैं। इस पर विचार के बाद अंतिम ड्राफ्ट तैयार किया जाएगा। राज्य सरकार इसे मान्य करती है तो इसे उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण एवं कल्याण) एक्ट 2021 के नाम से जाना जाएगा और यह 21 वर्ष से अधिक उम्र के युवकों और 18 वर्ष से अधिक उम्र की युवतियों पर लागू होगा।
मसौदे का लुब्बो-लुआब यह है कि किसी दंपती का एक ही बच्चा होने पर सरकार की ओर से कई सुविधाएं जैसे निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा सुविधा व वेतनवृद्धि आदि मिलना शामिल है। ये सुविधा खास तौर पर बीपीएल के लिए हैं। लेकिन दो से ज्यादा बच्चे होने पर माता-पिता इन सुविधाओं से वंचित रहेंगे, उनकी सबसिडी बंद होगी, उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल सकेगी तथा स्थानीय निकाय चुनाव भी वो नहीं लड़ सकेंगे।
इसमें दो राय नहीं कि दो दशक बाद ही हम दुनिया की सर्वाधिक आबादी वाले देश होंगे और यह कोई गर्व की बात नहीं होगी क्योंकि देश में बेतहाशा बढ़ती आबादी के कारण पहले ही हमारे संसाधनों का बंटवारा होता जा रहा है और वो लगातार घटते या समाप्त होते जा रहे हैं। आर्थिक मोर्चे पर हासिल उपलब्धियां जनसंख्या वृद्धि से बेअसर हो जाती हैं। लोगों के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार और गरीबी खत्म करने का लक्ष्य धरा का धरा रह जाता है।
अच्छी बात केवल यह है कि सामाजिक जागरूकता और आर्थिक विवशताओं के चलते देश के उच्च और मध्यम वर्ग में सीमित परिवार के प्रति रुझान बढ़ा है। यानी दो से ज्यादा बच्चे होना अब आश्चर्य का विषय है। अलबत्ता समाज के निम्न वर्ग में अभी भी इसको लेकर उदासीनता और बच्चा होने को ‘भगवान की देन’ मानने की प्रवृत्ति ज्यादा है।
दुर्भाग्य से देश में जनसंख्या वृद्धि का मुद्दा उठाने और उसे काबू करने की कोई भी पहल सियासी बियाबान में भटक जाती है। इमर्जेंसी में संजय गांधी ने इसकी गंभीरता को समझते हुए पुरुष/महिला की नसबंदी को तत्कालीन सरकार का प्रमुख कार्यक्रम बनाया था, तब देश की कुल आबादी करीब 60 करोड़ थी, जो आज की तुलना में आधी से भी कम थी। लेकिन नसंबदी कार्यक्रम बेरहमी से क्रियान्वित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं।
उसके बाद तो राजनीतिक दलों ने जनसंख्या नियंत्रण को अछूत विषय मानना शुरू कर दिया। उल्टे अटलजी की एनडीए सरकार के समय कुछ भाजपा नेताओं ने यह तर्क देना शुरू किया कि भारत की विशाल आबादी उसके विशाल संसाधन का प्रतीक है, बस इसके सही इस्तेमाल की तमीज चाहिए।
अब जो यूपी में हो रहा है, उसका उलटा है। कुछ लोग इस जनसंख्या नीति के पीछे सरकार की नीयत और टाइमिंग पर सवाल उठा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इसका असली मकसद जनसंख्या नियंत्रण के बजाए हिंदू-मुस्लिम वोटों को नियंत्रित और लामबंद करना है।
जाहिर है कि यह ड्राफ्ट सामने आते ही मुसलमानों का एक वर्ग खुलकर मुखालिफत करने लगा है। जबकि कुछ हिंदू संगठन भी इसलिए विरोध कर रहे हैं कि यदि यह नीति लागू हुई तो ज्यादा नुकसान हिंदुओं का ही होगा। उनकी संख्या और घटेगी।
धार्मिक आधार पर आबादी का अनुपात असंतुलित होगा। हालांकि यह विरोध रणनीतिक ज्यादा लगता है। जहां तक इस पहल के पीछे नीयत का सवाल है तो प्रत्यक्ष तौर पर यह किसी एक धर्म या समुदाय को ध्यान में रखकर नहीं लाई जा रही है।
कुछ लोग चीन का हवाला देकर इस पहल का विरोध कर रहे हैं। 1970 से 1980 के बीच वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने देश में युवा दंपती के एक से अधिक संतान पैदा करने पर ही रोक लगा दी थी। जिससे चीन में आबादी वृद्धि दर तो नियंत्रित हुई, लेकिन प्रजनन दर घट गई और लैंगिक असंतुलन बहुत बढ़ गया।
भारत की तरह चीनी मां बाप भी केवल बेटे को ही प्राथमिकता देने लगे। इस नीति के दुष्परिणामों से घबराई चीन सरकार ने अब चीनी दंपतियों को तीन बच्चे पैदा करने की छूट दे दी है, लेकिन बरसों से एकल संतान के माहौल में पले-बढ़े युवा अब खुद ही ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करना चाहते। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि चीन जल्द ही सबसे ज्यादा बूढ़ों का देश होगा।
जाहिर है कि भारत में ऐसी सख्त नीति कोई भी नहीं लागू कर सकता। लिहाजा यही नीति परोक्ष रूप से लाई जा रही है, जो ‘डबल डोज’ की तरह काम करेगी। जहां एक तरफ नेता मुसलमानों में यह भय पैदा करेंगे कि उनकी आबादी पर लगाम कसने यह नीति लाई जा रही है, वहीं हिंदुओं में यह संदेश दिया जाएगा कि सरकार उनकी बहुसंख्या को कायम रखने जी जान से जुटी है।
नतीजा यह होगा कि चुनाव आते-आते एक जनसंख्या वृद्धि जैसी गंभीर सामाजिक समस्या राजनीतिक पकौड़े में तब्दील हो जाएगी और योगी या मोदी सरकार की नाकामियां इस गरम भजिए की महक में खो जाएंगी।
अगर ये मुद्दा चल गया और भाजपा यूपी में सत्ता में लौटी तो यही मोदी सरकार का अगला चुनावी मुद्दा भी बन सकता है। हो सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव ‘जनसंख्या नियंत्रण’ और ‘समान नागरिक संहिता’ के मुद्दों पर फोकस करके लड़ा जाए जिसका होमवर्क शुरू हो चुका है।
वैसे भी एक से ज्यादा बच्चा पैदा करने पर कानूनी रोक तथा दो से ज्यादा संतान पैदा करने को हतोत्साहित करने में गुणात्मक अंतर है। यानी कोई ज्यादा बच्चा पैदा करना ही चाहता है तो करे, लेकिन फिर सरकार से मदद की उम्मीद न रखे।
बहरहाल, राजनीति से अलग बढ़ती आबादी के मसले को जमीनी हकीकत और आंकड़ों के आईने में देखें तो देश में आबादी वृद्धि दर कमोबेश सभी धार्मिक समुदायों में घट रही है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की पिछली रिपोर्ट बताती है कि हिंदुओं और ईसाइयों में यह 16 फीसदी तक घटी है, वहीं मुसलमानों में यह घटत 14 फीसदी है।
प्रजनन दर में सर्वाधिक 22 फीसदी कमी जैन समुदाय में देखी गई है। इसका अर्थ यह है कि धार्मिक समुदाय कोई सा भी हो, जैसे जैसे शिक्षित हो रहा है, उसकी आर्थिक स्थिति में बदलाव हो रहा है, वैसे वैसे सीमित संख्या में संतान पैदा करने की वृत्ति भी बढ़ रही है।
हालांकि मुसलमानों में गरीब तबके की संख्या काफी ज्यादा है। उसी प्रकार हिंदुओं में दलित समुदाय और आदिवासियों में भी बहुत गरीबी है, इसलिए उनमें सीमित परिवार को लेकर जागरूकता कम है। लेकिन समय के साथ यह यह बढ़ रही है, इसके पीछे कारण सीमित आमदनी और महंगा होता जीवन स्तर ज्यादा है।
बहरहाल यूपी की प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण नीति आबादी के साथ साथ वोट नियंत्रण का रिमोट कंट्रोल भी सिद्ध हो सकती है। होगी या नहीं, इसकी सियासी टेस्टिंग तो उत्तर प्रदेश की विधानसभा चुनाव की ‘लैब’ में होगी।
(यह आलेख वेबसाइट मध्यमत से साभार लिया गया है)