मप्र में वन मंत्रालय की राजनीति: नए मुखिया बना रहे अपनी नई पट्टी, रावत के ज़रिए आदिवासियों तक पहुंचने की कोशिश


रामनिवास रावत और नगर सिंह चौहान के बीच वन मंत्रालय का प्रभार बदलने की इस राजनीति में भाजपा का उद्देश्य स्पष्ट है। आदिवासी बहुल इलाकों में चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए यह कदम उठाया गया है। आदिवासी समाज के समर्थन के बिना विजय असंभव है, और इसलिए भाजपा ने वन मंत्रालय का उपयोग एक राजनीतिक उपकरण के रूप में किया है।



मध्यप्रदेश की राजनीति में फिलहाल भाजपा को कुछ बैकफुट पर देखा जा रहा है। इसकी वजह भाजपा में उभर रहे विरोध के स्वर हैं जिन्हें गंभीर माना जा रहा है। आदिवासी नेता नागर सिंह चौहान का यह विरोध फैलने की आशंकाएं भी जताई जा रहीं हैं हालांकि इसके पीछे भी एक बड़ा एजेंडा है।

दरअसल रावत को वन मंत्रालय देना आसान नहीं था, क्योंकि नगर सिंह चौहान भी एक महत्वपूर्ण नेता रहे हैं। हालांकि, चौहान आदिवासी नेता होने के कारण उनसे वन विभाग लेना अपेक्षाकृत आसान समझा गया। इसके साथ ही नागर सिंह चौहान पूर्व सीएम और अब केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान से भी करीबी थे और माना जा रहा है कि इस समय में नए मुख्यमंत्री अपने लिए एक नई राजनीतिक पट्टी बना रहे हैं जिन्हें केवल उनके नाम से पहचाना जाए।

संघ और भाजपा की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि नागर सिंह चौहान और रामनिवास रावत को बारी-बारी से वन मंत्री का दायित्व देने में समानता है। चौहान से वन मंत्रालय का प्रभार लेकर रावत को देने से चौहान का राजनीतिक कद कम नहीं हुआ है। चुनावी राजनीति, खासकर जनजातीय या वनवासी बहुल इलाकों में, संघ के नेतृत्व में भाजपा हर हाल में चुनाव जीतने के लिए प्रयोग कर रही है, और इसका माध्यम मध्य प्रदेश सरकार का वन मंत्रालय बन गया है।

रावत को श्योपुर जिले की विजयपुर सीट से विधायक फिर बनाना है और इसके लिए इस विधानसभा क्षेत्र के 65 हजार से अधिक आदिवासी मतदाताओं का समर्थन हासिल करना जरूरी है, खासकर भाजपा के लिए क्योंकि भाजपा यहां से लगातार दो बार विधानसभा चुनाव हार चुकी है।

रावत के समक्ष भी भाजपा ने तैयारी के साथ अपना उम्मीदवार उतारा लेकिन जीत नहीं पाई इसलिए रावत को अपने साथ ले आई। विजयपुर सीट के कुल 2 लाख 10 हजार से अधिक मतदाताओं में से 30% से अधिक आदिवासी मतदाता हैं और इनको अपने प्रभाव में लेने के लिए भाजपा सरकार ने रावत को वन विभाग का दायित्व सौंप दिया। आदिवासी समाज के लिए वन विभाग और पुलिस हमेशा से भयभीत करने वाले विभाग रहे हैं।

विधायक नगर सिंह चौहान को भी वन मंत्रालय देने के पीछे कुछ इसी तरह की राजनीति बताई जाती है। चौहान जिस झाबुआ रतलाम संसदीय क्षेत्र से आते हैं, वहां लोकसभा चुनाव में चुनौतीपूर्ण मुकाबले का सामना करना पड़ता है। इस बार भी कांग्रेस इस सीट पर मजबूत स्थिति में थी लेकिन हार गई।

झाबुआ रतलाम सीट के लिए भाजपा को योग्य आदिवासी उम्मीदवार की तलाश हमेशा रही लेकिन काबिल नेता नहीं मिला। इस बार भी चुनाव में जीत आसान नहीं थी। इसलिए नगर सिंह को वन मंत्रालय दिया गया और फिर उनकी पत्नी को लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी बनाया गया, वह चुनाव जीत गईं। कहा जाता है कि भाजपा के लिए आदिवासी बहुल इलाके में यह प्रयोग सफल रहा, इसीलिए संभव है कि आदिवासी बहुल विजयपुर सीट पर भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए रावत को वन मंत्रालय का जिम्मा दिया गया है।

यह कदम दिखाता है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय और आदिवासी समुदायों का महत्व कितना बढ़ गया है। वन मंत्रालय का यह दांव भाजपा के लिए कितना सफल होता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि चुनावी रणनीति में यह एक महत्वपूर्ण मोड़ है। भाजपा की यह नीति न केवल आदिवासी मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास है, बल्कि राजनीति के खेल में नए समीकरण बनाने की भी कोशिश है।