सरयूसुत मिश्रा
राजनीति में जीत-हार के बीच बदलती सियासी धारा हिंदुत्व पर टिक गई है। कर्नाटक में कांग्रेस ने भी बजरंगबली के मंदिर बनाने का वायदा करके हिंदुत्व की धारा में बड़ी छलांग लगाई है। अब बेंगलुरु में शपथ समारोह में प्रतीकात्मक रूप से बजरंगबली के दर्शन अगर मिलें तो आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं होगी। राजनीति की राष्ट्रीय धारा में खड़े रहने के लिए हिंदुत्व की धारा को छोड़ना अब किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं लगता है।
हिंदुत्व की राजनीति के लिए बीजेपी को निशाने पर लेने वाली कांग्रेस हिंदुत्व पर दांव लगाकर ही नए सिरे से राजनीतिक बिसात बिछाने में लग गई है। चुनावी राजनीति में हिंदुत्व की माला-तिलक और टीका अब टोपी पर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है। राजनीतिक पंडितों की ज्योतिषीय गणना में साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है कि राजनीतिक दल कोई भी हो राजनीति का एजेंडा हिंदुत्व ही रहेगा। सियासी धारा में आए इस बदलाव का श्रेय बीजेपी को ही दिया जाएगा।
कर्नाटक के बाद इस साल के अंत में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले चुनाव के लिए कांग्रेस हिंदुत्व के सहारे मैदान में उतरने का मन बना चुकी है। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस को फिलहाल किसी तीसरे दल की चुनौती नहीं लग रही है। यहां कांग्रेस बीजेपी के साथ सीधा मुकाबला मान रही है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि इन राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं की भाजपा विरोधी मानसिकता और तीसरे दल के अभाव के कारण इनके एकमुश्त मत कांग्रेस को ही मिलेंगे। कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम इन तीनों राज्यों में हिंदुत्व और धार्मिक प्रतीकों को जोड़कर अपने नेतृत्व को सनातन और हिंदुत्व का चेहरा प्रदर्शित कर रही है।
कांग्रेसी नेता अपनी सभाओं में जय बजरंगबली और सनातन धर्म के देवी-देवताओं के जयकारे लगाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। एमपी कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ तो स्वयं को बजरंगबली का सबसे बड़ा भक्त बताकर चुनावी दांव चलने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। हिंदू मंदिरों में चुनावी दर्शन हर राजनेता का राजनीतिक जीवन बन गया है। एमपी के लोगों ने पहली बार कांग्रेस मुख्यालय को भगवा ध्वज से पटा हुआ देखा था जब पुजारियों का सम्मेलन आयोजित किया गया था।
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार राष्ट्रीय रामायण मेला आयोजित कर रही है। इसके पीछे भी हिंदुत्व की राजनीतिक सोच ही काम कर रही है। कांग्रेस की सरकार सरकारी धन खर्च कर अपनी यह उपलब्धि प्रचारित कर रही है कि भगवान राम की माता कौशल्या का मंदिर उनकी सरकार ने बनाया है। राम वन पथ गमन से जुड़े धर्म स्थलों को सुधारने का दावा भी भूपेश बघेल सरकार कर रही है।
राजस्थान में भी अशोक गहलोत हिंदुत्व की छवि पेश करने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। इन राज्यों में कांग्रेस के नेता ऐसा मानते हैं कि मुस्लिम मतदाता चूँकि बीजेपी को मतदान नहीं करेंगे और यहां तीसरे दल का कोई जनाधार नहीं है इसलिए कांग्रेस द्वारा हिंदुत्व के खुले राजनीतिक प्रदर्शन के बाद भी मुस्लिम मतदाताओं के सामने कांग्रेस के पक्ष में मतदान के अलावा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं होगा।
कांग्रेस हिंदुत्व की राजनीति करे इसमें कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। राजनीतिक दल अपनी विचारधारा जनादेश के लिए रखते हैं। अंतिम निर्णय तो जनता द्वारा ही लिया जाता है। कांग्रेस या दूसरे भाजपा विरोधी दल एक तरफ भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति करने के लिए कटघरे में खड़ा करते हैं और दूसरी तरफ उसी तरह की राजनीति को आगे बढाते हैं। देश की राजनीति में आए बदलाव से एक बात तो यह साबित हो रही है कि कोई भी राजनीतिक दल अब बिना हिंदुत्व के एजेंडे के सरवाइव नहीं कर सकता। बीजेपी को तो हिंदुत्व के एजेंडे का जनक माना जाता है लेकिन अब धीरे-धीरे सभी राजनीतिक दल उसी एजेंडे पर आगे बढ़ने को मज़बूर दिख रहे हैं।
क्षेत्रीय राजनीतिक दल जरूर अभी हिंदुत्व की राजनीति से ज्यादा जाति की राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। विभिन्न राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दल जाति के आधार पर ही खड़े हुए हैं। क्षेत्रीय दलों का आधार उन राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं के साथ उनके साथ जुड़ी कुछ हिंदू जातियां हैं। हिंदी भाषी राज्यों में हिंदुत्व और जाति की राजनीति में टकराहट साफ देखी जा रही है। बीजेपी जहां इस प्रयास में लगी रहती है कि हिंदुत्व को जातियों में बांटने से रोका जाए। हिंदू एकता बीजेपी को चुनावी फायदे का समीकरण लगता है। इसी समीकरण को तोड़ने के लिए राज्यों में क्षेत्रीय दल और बीजेपी के बीच में कड़ी टक्कर देखी जा रही है।
उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा जैसे दल अगर मुस्लिम और जाति आधारित राजनीति पर टिके रहते हैं तो बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति को और सफल बनाने में कामयाब हो सकती है। बिहार में भी जेडीयू ,आरजेडी और बीजेपी के बीच इसी तरह की खींचतान मची हुई है। पटना में बागेश्वरधाम के धीरेन्द्र शास्त्री की हाल ही में हुई हनुमंत कथा के कार्यक्रम से हिंदूवादी ताकतों की मजबूती देखने को मिली है।
महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ गठबंधन जो पहले कभी सोचा नहीं जा सकता था वह बीजेपी से मुकाबले के लिए खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र में दोनों प्रमुख गठबंधन हिंदुत्व की राजनीति पर ही अपने भविष्य की रणनीतियों को अंजाम दे रहे हैं।
उत्तर और दक्षिण के बीच में हिंदुत्व की राजनीति को भी अलग-अलग नजरिए से देखा जा रहा है। कर्नाटक के चुनाव परिणामों के बाद दक्षिण में हिंदुत्व की राजनीति को कमजोर होता बताया जा रहा है। बीजेपी की सरकार कर्नाटक में नहीं बनने से हिंदुत्व की राजनीति कैसे कमजोर होगी? कांग्रेस सरकार कर्नाटक में जब बजरंगबली का मंदिर बनाने का कार्य करेगी तो राजनीति की धारा तो हिंदुत्व की ही रहेगी।
दक्षिण के राज्यों में जाति की राजनीति ज्यादा हावी दिखाई पड़ती है। वहां भाषा भी एक कारण है। हिंदी भाषा को लेकर दक्षिण में विरोध भी देखा जाता है। इस सबके बावजूद वहां की राजनीतिक धारा के बारीक तत्वों को ध्यान से देखा जाए तो हिंदुत्व की धारा मजबूती के साथ आगे बढ़ रही है।
कर्नाटक के चुनाव परिणामों में कांग्रेस की बढ़त के साथ ही प्रियंका गांधी शिमला में हनुमान मंदिर में पहुंचकर हिंदुत्व के प्रति आस्था का ही संदेश देने की कोशिश कर रही थीं। अगर बीजेपी के नेता ऐसा करें तो उन्हें हिंदुत्व की राजनीति के लिए आरोपी ठहराया जा सकता है। अब तो सारे राजनेता यही राजनीति करते दिखाई पड़ रहे हैं।
राजनीति में मुख्य रूप से तीन पक्ष देखे जा रहे हैं। एक पक्ष मुस्लिम पक्ष है। दूसरा पक्ष हिंदुत्व का है और तीसरा पक्ष हिंदुत्व में जाति की राजनीति करने वाले दलों का है। जहां तक मुस्लिम पक्ष का सवाल है तो इस पक्ष के जनादेश में बीजेपी का कोई खास दखल नहीं माना जाता। इसके लिए कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय दलों में रस्साकशी चलती रहती है। हिंदुत्व पक्ष की राजनीति की मुख्य सूत्रधार बीजेपी ही मानी जाती है। बीजेपी की राजनीतिक यात्रा में उनके हिंदुत्व की विचारधारा का सबसे बड़ा योगदान देखा जाता है। कुछ राज्यों में चुनावी हार-जीत को हिंदुत्व की विचारधारा की हार जीत के रूप में देखना सही नहीं है।
अब तो बीजेपी और कांग्रेस के बीच में हिंदुत्व की राजनीति में ही एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा शुरु हो गई है। बीजेपी का जनाधार बहुसंख्यक हिंदुओं में ही माना जाता है। दूसरे राजनीतिक दलों के पास इस जनादेश में हिस्सेदारी के साथ ही मुस्लिम जनसंख्या का एकमुश्त वोट बैंक उपलब्ध होता है। जब हिंदुत्व की ही राजनीति देश की मुख्यधारा बन गई है तो कभी न कभी मुसलमानों को यह तय करना होगा कि जब इसी धारा में रहना है तो किसी एक दल के पक्ष या किसी एक दल के विपक्ष में खड़े होकर अपने राजनीतिक अस्तित्व को दांव पर लगाने से क्या फायदा है?
पिछले दिनों अपने भाषणों को लेकर अदालत से माफी के संबंध में राहुल गांधी ने यह कह दिया था कि ‘वे सावरकर नहीं जो माफी मांगेंगे’, राहुल गांधी के इस बयान की कांग्रेस की सहयोगी पार्टियों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। उस समय ऐसा कहा गया था कि राहुल गांधी ने सहयोगी दलों से यह वायदा किया है कि अब भविष्य में सावरकर के खिलाफ पार्टी द्वारा कोई बयान नहीं दिया जाएगा।
यह वाकया भी यही साबित करता है कि देश में राजनीतिक दल कोई भी हो राजनीति का एजेंडा हिंदुत्व ही रहेगा। संविधान की दृष्टि से सेकुलर राष्ट्र भारत अगर चुनावी राजनीति के एजेंडे के हिसाब से देखा जाए तो हिंदुत्व की धारा के राष्ट्र के रूप में खड़ा हो गया है। करनी में गड़बड़ियां और कथनी में अनुशासन, राजनीति की पहचान बन गया है। एजेंडे दिखते कुछ और हैं होते कुछ और हैं। राजनीति की धारा भी ऐसी ही सूखी धारा है जहां दिखता कुछ है होता कुछ है। कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है।
(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)