ओल्ड पेंशन स्कीमः मिले सत्ता का स्वाद, भले ही राज्य हो बर्बाद


बीजेपी के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करना आसान नहीं मालूम पड़ रहा है और कांग्रेस इस हथियार को चुनावी लाभ के लिए उपयोग करने में कोई भी कमी नहीं छोड़ना चाहती.


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अतिथि विचार Published On :
kamalnath and shivraj singh chauhan

सरयूसुत मिश्रा

ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) बीजेपी शासित राज्यों में चुनावी गले की हड्डी बनती जा रही है. हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के हारने के कारणों में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने की कांग्रेस की घोषणा भी महत्वपूर्ण कारण मानी जा रही है. ओल्ड पेंशन स्कीम का फॉर्मूला कांग्रेस के लिए राज्यों में सत्ता का फार्मूला बन गया है.

कांग्रेस शासित राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ओपीएस लागू की जा चुकी है. जिन राज्यों में इस साल चुनाव होने वाले हैं वहां कांग्रेस ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने की घोषणाएं लगातार कर रही है. मध्यप्रदेश में विधानसभा के एक प्रश्न के उत्तर में आज सरकार की ओर से वित्त मंत्री द्वारा यह जवाब दिया गया कि ओल्ड पेंशन स्कीम का कोई प्रस्ताव सरकार में विचाराधीन नहीं है. सरकार के इस वक्तव्य का पूरा राजनीतिक लाभ उठाते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने कांग्रेस की सरकार बनने पर प्रदेश में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने का ऐलान कर दिया है. यह ऐलान कांग्रेस की चुनावी जान मानी जा रही है. बीजेपी और राज्य सरकार को ओल्ड पेंशन स्कीम की कांग्रेसी चाल की काट के रूप में निश्चित रूप से कदम उठाने पड़ेंगे.

केवल मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि चुनाव वाले दूसरे राज्यों में भी बीजेपी के सामने ओपीएस का संकट बना हुआ है. बीजेपी किसी एक राज्य में ओल्ड पेंशन स्कीम पर फैसला नहीं ले सकती. इसके लिए बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्धारित करनी पड़ेगी. जिन लक्ष्यों और उद्देश्यों के साथ ओल्ड पेंशन स्कीम बंद कर न्यू पेंशन स्कीम लागू की गई थी उन परिस्थितियों में और भी गिरावट आई है. सरकारों के अनुत्पादक खर्चों से राज्यों की वित्तीय स्थिति चिंताजनक ढंग से खराब होती जा रही है. कई राज्य दिवालियेपन की कगार तक पहुंच गए हैं. कर्जों के नजरिए से देखा जाए तो देश का कोई भी राज्य बेहतर स्थिति में नहीं कहा जा सकता. आंकड़ों के हिसाब से किसी भी तरह से परिस्थितियों को अपने अनुरूप बताया जाए लेकिन वास्तविकता तो सर्वविदित है.

न्यू पेंशन स्कीम 2005 में शुरू की गई थी. सामान्य रूप से किसी भी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के लिए सेवा की औसत अवधि 30 वर्ष मानी जा सकती है. इससे स्पष्ट है कि 2035 के आसपास न्यू पेंशन स्कीम में शामिल कर्मचारी रिटायरमेंट के स्टेज पर आयेंगे. ओल्ड पेंशन स्कीम लागू होने पर उसका वास्तविक भार उसी समय से प्रारंभ होगा. वर्तमान में तो केवल राजनीतिक घोषणा की जाना है. सरकार द्वारा आदेश जारी किया जाना है. उसके वास्तविक दुष्प्रभाव तो 10 सालों बाद भविष्य की पीढ़ी को और उस समय की सरकार को भुगतने पड़ेंगे.

देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए उदारवाद और नवाचार करने के लिए अग्रणी माने जाने वाली कांग्रेस आज सत्ता के लिए राज्यों को नए आर्थिक संकट में डालने का काम कर रही है. चुनावी राजनीति में मुफ्तखोरी के आज जो दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं उसमें कोई भी दल पीछे नहीं है. सभी दलों द्वारा अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए जन-धन को लुटाना आम बात माना जा सकता है. ओल्ड पेंशन स्कीम मुफ्तखोरी की योजनाओं से भी खतरनाक है. इन योजनाओं में तो वन टाइम लायबिलिटी शामिल होती है लेकिन ओल्ड पेंशन स्कीम से तो सरकार पर नियमित लायबिलिटी बढ़ जाएगी.

कमलनाथ राजनीतिक रूप से अनुभवी और चतुर राजनेता माने जाते हैं. 2018 का चुनाव भी उन्होंने किसानों की कर्ज माफी के नाम पर जीतने में सफलता हासिल की थी. उस समय भी बीजेपी ने भावांतर योजना और किसान सम्मान निधि के नाम पर किसानों को लाभान्वित करने का व्यापक अभियान चलाया था लेकिन कर्ज माफी की घोषणा ज्यादा कारगर रही. कांग्रेस को इसका चुनावी लाभ मिला. कमोबेश ऐसी ही स्थिति ओल्ड पेंशन स्कीम में भी दिखाई पड़ रही है. बीजेपी के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करना आसान नहीं मालूम पड़ रहा है और कांग्रेस इस हथियार को चुनावी लाभ के लिए उपयोग करने में कोई भी कमी नहीं छोड़ना चाहती.

कर्मचारी वर्ग किसी भी चुनाव में राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. कर्मचारियों का समूह और वर्ग निजी हितों को प्राथमिकता देते हुए आगे बढ़ेगा, इसमें किसी को कोई संशय नहीं है. ऐसा माना जाता है कि मध्यप्रदेश में 2003 में कांग्रेस की सरकार के पतन के पीछे भी कर्मचारियों का आक्रोश ही रहा था. उस समय भी कर्मचारियों के जायज हितों का ध्यान नहीं रखा गया था उसके बाद मध्यप्रदेश में हुए चुनाव में कर्मचारियों का रुख सरकार विरोधी नहीं देखा गया था.

इस साल होने वाले चुनाव में पहली बार कर्मचारियों के विषय चुनावी मुद्दा बनते हुए दिखाई पड़ रहे हैं. खास कर ओल्ड पेंशन स्कीम उन कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो 2005 के बाद नई पेंशन स्कीम में शामिल हैं. लगभग 4 लाख कर्मचारी मध्यप्रदेश में इस श्रेणी में शामिल बताए जाते हैं. न्यू पेंशन स्कीम और पुरानी पेंशन स्कीम में बुनियादी अंतर है. न्यू पेंशन स्कीम कंट्रीब्यूटरी होती है. कर्मचारी और नियोक्ता का योगदान म्यूच्यूअल फंड या अन्य फंडों में नियोजित किया जाता है और रिटायरमेंट के समय उस पर जो लाभ मिलता है उसके हिसाब से कर्मचारी को पेंशन दी जाती है. पेंशन की राशि इन्वेस्टमेंट के रिटर्न के आधार पर निर्धारित होती है.

इसके विपरीत ओल्ड पेंशन स्कीम में रिटायरमेंट के महीने में कर्मचारी को मिल रहे वेतन का 50% पेंशन निर्धारित हो जाती है. महंगाई भत्ता इसके अतिरिक्त होता है. सातवें वेतन आयोग के बाद कर्मचारियों को मिलने वाली पेंशन परिवार के बेहतर जीवन जीने के लिए समुचित कही जा सकती है. इसीलिए एनपीएस में शामिल कर्मचारी ओल्ड पेंशन स्कीम के लिए जीवन मरण के स्तर पर जाकर संघर्ष करने के लिए तैयार हैं. इसी भावना को देखते हुए कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन स्कीम पर यह चुनावी दांव चला है. यह दांव नुकसान का तो है ही नहीं, जो भी होगा लाभ ही होगा.

बीजेपी के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम बड़ी चुनौती है. चुनावों से पहले बीजेपी को इस पर नीतिगत निर्णय अवश्य लेना पड़ेगा. इसमें किसी प्रकार की गफलत राजनीतिक नुकसान पहुंचा सकती है. यह बात अलग है कि स्थितियों को देखते हुए ओल्ड पेंशन स्कीम पर आगे बढ़ना राजनीतिक दल की तो जीत हो सकती है लेकिन इससे मध्यप्रदेश नहीं जीतेगा. मध्यप्रदेश का विकास इससे प्रभावित होगा. कुछ भी हो लेकिन चुनाव जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगाया जाता है और यही सोच ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने के पीछे भी काम कर रही है.

(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)





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