तालियां बजती रहीं- 6, 7, 8 मिनट. उनका फ़ैसला हो चुका था. उनका निपटारा किया जा चुका था. अब वे रुक नहीं सकते थे जब तक कि दिल के दौरे के मारे गिर ही न पड़ें! हॉल के पीछे , जहां बहुत भीड़ थी, वहां ज़रूर वे कुछ बेईमानी कर सकते थे, कुछ कम ज़ोर से, कम तेज़ी से तालियां बजा सकते थे, उतने जोश के साथ नहीं, उतने उत्साह के साथ नहीं, … 9 मिनट! 10! पागलपन! आख़िरी आदमी तक! अपने चेहरों पर बनावटी उत्साह ओढ़े, एक दूसरे को हल्की उम्मीद के साथ देखते हुए, ज़िला स्तर के नेता यह करते जाने वाले थे, तालियां बजाते ही जाते जब तक कि वे जहां खड़े थे गिर न पड़ें, जबतक कि उन्हें स्ट्रेचर पर हॉल से बाहर न ले जाया जाए.’
यह किसी दूर देश की तक़रीबन 80 साल पुरानी घटना का वर्णन है, एक लेखक के द्वारा किया गया. पढ़ने-लिखने वाले कुछ पुराने लोग लेखक को जानते हैं और घटना का संदर्भ भी. लेखक हैं सोलझेनिस्तिन और जिसके लिए तालियां बजाई जा रही हैं, उसका नाम है स्टालिन.
यह वाक़या 11 मिनट की तालियों के नाम से मशहूर है. 1937 की सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की सभा. स्टालिन के भाषण के बाद तालियां जो बजना शुरू हुईं तो हॉल में किसी की हिम्मत न थी कि वह ताली बजाना बंद करने वाला पहला शख़्स हो, या ऐसा करने वाले पहले शख़्स के रूप में पहचाना जाए. कहा जाता है कि आख़िरकार तंग आकर एक ने यह कर ही डाला. पूरी सभा जैसे स्तब्ध ही गई. तालियां थम गईं. उस शख़्स का क्या हुआ होगा, आप इसका अनुमान कर सकते हैं.
यह वाक़या 30 अप्रैल, 2023 के इतवार को हिंदुस्तान में क्यों याद आना चाहिए? एक के बाद एक तस्वीरें आना शुरू हुईं: संघीय सरकार के मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री,सरकारी अधिकारी, टकटकी लगाकर कुछ, किसी तरफ़ देखते हुए. लेकिन वे क्या देख रहे थे? किसे देख रहे थे? उनमें से एक नेता की आंखें नींद से बोझल हुई जा रही थीं. बार-बार सिर कंधे पर ढुलक जाता था. ‘इसका किस्सा तमाम!’ किसी ने कहा. बस यह वीडियो ‘वहां’ पहुंच जाए!
यह इतवार का दिन था. लेकिन कई जगह स्कूलों की छुट्टियां रद्द कर दी गईं. अध्यापक और विद्यार्थियों को स्कूल आकर अमृत वचन का सामूहिक पान करना था. मध्य प्रदेश में सुना सरपंचों को हुक्म गया कि अगर पंचायत भवन में आकर यह न किया तो सरपंची छीन ली जाएगी.
विश्वविद्यालयों के कुलपति अपने अन्य अधिकारियों के साथ ध्यानपूर्वक कहीं, किसी दिशा में देखते नज़र आए. किसी ने टिप्पणी की: इसे कहते हैं, टकटकी लगाकर सुनना. हिंदी का मुहावरा बदल गया.
मालूम हुआ, यह ‘जनता’ आंखों से प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ का प्रसारण सुन रही थी. यह मामूली ‘मन की बात’ न थी. न मन मामूली, न उसकी बात!
हर महीने के आख़िरी इतवार को प्रधानमंत्री द्वारा अपनी प्यारी जनता को अपनी ‘मन की बात’ सुनाते हुए 100 महीने जो हो गए थे. यह एक विश्व रिकॉर्ड था. एक महान घटना, जिसका महत्त्व बतलाने फिल्म अभिनेता, उद्योगपति, भारतीय समाज के महाजन ,सब दिल्ली में इकट्ठा हुए. भारत के बाहर से उन्होंने, जिन्हें भारत में अभी धंधा करना है, इस मन की तारीफ़ में क़सीदे काढ़े जिसकी बात के लिए भारत की जनता कान लगाए रखती है.
इस महान उपलब्धि का जश्न मनाने के लिए 100 रुपये का ख़ास सिक्का जारी करने का ऐलान हुआ. सारे सामुदायिक रेडियो स्टेशनों को हुक्म जारी किया गया कि वे ‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी को अनिवार्य रूप से प्रसारित करें. निजी टेलीविज़न चैनलों को भी. भारत का बड़ी पूंजी का मीडिया यूं भी इस सरकार और नरेंद्र मोदी का भोंपू बन गया है और इसमें उसे कोई शर्म भी नहीं है.
इसका प्रमाण भी प्रस्तुत करना था कि यह प्रसारित किया गया और पूरा सुना गया. इसलिए शुरू के कुछ हिस्से और बाद के हिस्से के समय इसे सुनते हुए लोगों की तस्वीरें, वीडियो रिकॉर्ड करने का आदेश था. यह राज था उन तस्वीरों का जिसमें चारण मंत्री, नेता, अधिकारी, शून्य में ध्यान से ताकते देखे जा सकते हैं.
‘मन की बात’ उसी प्रकार की आत्मरति है जैसी स्टालिन या हिटलर को थी. कहा जाता है कि सोवियत यूनियन में आप स्टालिन की आवाज़ से बच नहीं सकते थे. सड़कों पर लाउडस्पीकरों से स्टालिन की आवाज़ आपका पीछा करती रहती थी. यही हाल अन्य कई साम्यवादी देशों का भी था. हिटलर ने आत्म प्रचार के लिए रेडियो का कैसा इस्तेमाल किया, यह जानी हुई बात है. भारत अब हिटलर और स्टालिन के रास्ते चल रहा है.
संतोष की बात यह है कि शायद भारत की एक चौथाई आबादी ने ही इस आत्म प्रचार और आत्मालाप में रुचि ली है. भारत की जनता ख़ुद इसे नहीं सुनती. सामुदायिक रेडियो चलाने वालों ने भी बतलाया कि महान नेता की आवाज़ में उनके श्रोताओं की रुचि नहीं है. और यहीं भारत के लिए उम्मीद है.
भारत के सारे अभिजन मिलकर जो तस्वीर भारत की बनाना चाहते हैं, वह भारत अभी भी नहीं बनाया जा सका है. भारत के लोगों के कान अभी भी उन्हीं के हैं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
उक्त लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने लिखा है जिसे हम द वायर से साभार ले रहे हैं। आप मूल लेख को यहां पढ़ सकते हैं।