मेरे प्यारे गाँव तुम मेरी रूह में धंसी हुई कील हो…!


अभी आपने पढ़ा था गाँव की “प्रेम-पाती” के शक्ल में गाँव का मार्मिक सन्देश। अब पढ़िए गाँव की उसी चिट्ठी का जवाब सतना से दीपक गौतम की कलम से।


दीपक गौतम
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फोटो सौजन्यः दीपक गौतम

गाँव में तालाब किनारे ढलते हुए सूरज का एक दृश्य। इसे देखकर यूँ लग रहा है कि मानो तालाब में ही ओझल हो जाएगा। ये वही सूर्य है, जो अपनी सुुंदरता की आभा से मन का सारा तमस हर लेता है।


मेरे प्यारे गाँव, तुमने मुझे हाल ही में प्रेम में भीगी और आत्मा को झंकृत करने वाली पाती लिखी। मैं तुम्हारा इतना लाड़-प्यार पाकर अभिभूत हूँ। जिस शिद्दत से तुमने मुझे याद किया है, मेरा यकीन मानो मैं भी उतनी ही मोहब्बत से तुम्हें शहर के वीरानों में खोजता रहता हूँ। तुम्हारा प्रेम- पत्र पढ़कर मन बड़ा उदास हुआ। तुमने अपना जो हाल- समाचार मुझे लिखकर भेजा है, तुम्हारे दूर रहकर मेरा भी हाल ठीक वैसा ही है। मैं बिन तुम्हारे “जल बिन मछली” की तरह तड़पता रहता हूँ।

आगे समाचार यह है कि मैं एक दिन मैं लौट आऊंगा तुम्हारे पास। शायद तब सब कुछ पहले जैसा होगा। तुम्हारी थपकियों का दुलार मुझे फिर स्पर्श की लोरियों सा महसूस होगा। अगली सुबह की धूप सर पे गिरते ही मैं फिर किसी रत्न की तरह दमक उठूंगा। मेरे प्यारे, मैं खुद पर मलूँगा वही सुनहरी धूप जो तुम्हारी मुंडेरों पर इठलाती फिरती है। वो मंद-मंद बहती हवा के झोंके जो तेरी हर गली की सौंधी खुशबू मुझ तक पहुंचाते हैं। एक रोज़ फिर से मेरे नथुनों पर मेहरबानी करेंगे। मैं वो झोंके फिर से महसूस करना चाहता हूँ।

मेरे प्यारे, तुम मेरे अस्तित्व का भान हो। तुम्हारी गंध लपेटकर ही तो अब तक जीता रहा हूँ तुमसे यूँ दूर रहकर। मेरी आत्मा में तुम्हारी सौंधी मिट्टी की एक बारीक सी परत जम गई है। क्या कहूँ प्यारे, गजब की ठंडक है इसमें और एक अलहदा सुकून देने वाली तपिश। मेरा यकीन मानो जब से इसे ओढ़ रखा है कितने मौसम आए और गए मुझे किसी और लबादे की जरूरत ही नहीं पड़ी। कभी-कभी तो लगता है कि इसी परत के नीचे सारा संसार है और एक दिन इसी में ख़ाक हो जाना है। यहीं से धूल का एक धुएं से भरा गुबार सा उठेगा और फिर यहीं बैठ जाएगा। सब शांत हो जाएगा। एकदम शांत, वैसा ही जैसे उस पुराने शिवालय के कुंड का पानी शांत है।

मैं जानता हूँ मेरे प्यारे कि उस पुराने शिवालय का वो कुंड अब भी मध्यम-मध्यम झरता रहता है, उसी के जल से तो शिव का जलाभिषेक होता है। मुझे अब तक याद है कि उसी शिवालय की छांव में तो गुजरे हैं बचपन के सारे मेले। मेरे लिए तो तब बसंत का मतलब ही गाँव का मेला होता था। प्यारे, तुमसे दूर निर्जन में तुम्हारे ही एक कोने में धूनी रमाए चौमुखनाथ शिवलिंग के स्वरूप में बैठे अवघड़ भोला-भंडारी (जो झिन्नन वाले बाबा कहलाते हैं ) वहाँ बसंत पंचमी को जल चढ़ाना तो सिर्फ इसलिए भाता था कि नीचे जाकर कुंड से पानी लेना है। वहीं उस कुंड से रिसते पानी के बहाव से आकार ले चुकी छोटी से नदी को कौतुहल से देखना है।

मेरे प्यारे, मेरा विश्वास करो मुझे बहुत अद्भुत लगता था वो दृश्य देखना। यकीन नहीं होता था कि उस छोटे से कुंड से निकली वो पतली जलधारा एक छोटी सी नदी का रूप ले लेती है। अब भले ही वो नदी कोई बरसाती नाला हो गई हो। लेकिन जब गाँव के सयाने कहते थे कि कभी यहां इतना गहरा पानी था कि तीन हाथी डूब जाते थे, तो यकीन करना मुश्किल नहीं था। क्योंकि हमारा तो सारा बचपन वहीं डूबते-उतराते हुए बीता है। अब की पीढ़ियाँ तो शायद यकीन ही न कर पाएं कि आज दिखने वाला नाला अपनी जवानी में एक सुंदर नदी था, जिसके घाटों के नाम क्रमशः खजुरहा, बंधौआ, राजघाट, हाथीघाट, पितैइयाँ और रामघाट थे।
बचपन की जलक्रीड़ाओं के लिए उस पुराने शिवालय के पास का वो खजुरहा घाट अब भी मुझे डराता है, जैसे फिर न कहीं पैर फिसल जाए और जिंदा बचने की कहानी सुनाने पर अम्मा की वाजिब चिंता से उपजी लताड़ और मार पड़े।

मेरे प्यारे, मेरा यकीन करो अब उस सूख चुकी नदी के बरसाती नाले में बदल जाने के बाद भी उसके किनारे पर मेरी बचपन की यादें लगातार बहती रहती हैं। मैं वहीं बैठकर निहारता रहता हूँ वो याराने। मुझे रामघाट के दोनों ओर खड़े कहवे के वो दो विशाल वृक्ष और एक कोने पर खड़ा इमली का पेड़ अब भी याद है। गाँव में घुसते ही कच्ची सड़क के दोनों ओर खड़े वो विशाल पेड़ कुदरत का बनाया
प्राकृतिक द्वार थे, जो अब बस मेरी स्मृतियों में शेष है।

मेरे प्यारे, मुझे बहुत अफसोस है कि विकास की आंधी में कांक्रीट का बड़ा पुल बनाने के लिए वर्षों पुराना तुम्हारा वैभव हर लिया है। मैं इसके लिए तुमसे क्षमा चाहता हूँ। कभी रामघाट पर खड़े कहवे के वो दो दरख़्त सपने में मुुुझे रोते – बिलखते हुए अब भी साफ-साफ नज़र आते हैं। मैं अक्सर रातों को सोते हुए जाग जाता हूँ। मेरे प्यारे, उसी घाट के दूसरे छोड़ पर खड़ा वो इमली का पेड़ अब भी मेरे दांत खट्टे कर जाता है। राम-जानकी मंदिर के पीछे की वो खुफिया सुरंग का रहस्य अब भी रूह में सिहरन पैदा कर देता है। मैंने उसके अंदर जाने के उस दुःसाहस को वहीं रामजी के चरणों में रख दिया है।

मेरे प्यारे, गाँव की पुरानी गढ़ी के अंदर वाली बेरियों के बेरों का स्वाद अब भी मेरी जबान पर ताजा है। वहां उड़ते चमगादड़ों की दुर्गंध से
मेरा मन अब तक सना हुआ है। मंदिरों की भजन संध्या के बाद सयानों के होने वाले किस्से अभी तक कानों में घुले हैं। सच कहूँ तो मेरी स्मृतियों के संसार में इन सबका उजड़ना है ही नहीं, क्योंकि उसके पहले ही मैंने तुमसे विदा ले ली थी। दो दशक से ज्यादा हो गया तुम्हारे बाग-बगीचों की खुशबू में जीभर तर हुए। अमराई के वो बौराये से दिन, जब गर्मियों की कड़ी धूप के थपेड़े भी रोम-रोम में जिंदगी का रोमांच भर देते थे।

मेरे प्यारे, वो तालाब के किनारे की मेड़, हरी घास से लबालब वो मैदान, लहलहाते खेत, कई पुराने मंदिरों के बीच किसी नूर सी चमकती एक मस्जिद, उसके सामने का वो स्कूल और न जाने क्या-क्या…! उफ़ ! सब जस का तस है, एकदम ताजा। यूँ लगता है कि मैं एक पुरानी खिड़की के इस पार खड़ा हूँ और दो किंवड़ियाँ खोलते ही तुम्हारे अंदर दाखिल हो जाता हूँ।
मेरे प्यारे, बस इसीलिए लगता है कि गाँव इतना आसान नहीं है तुझे फिर पा लेना…!!

मेरे प्यारे, तुम मेरी रूह में धंसी वो कील हो, जिससे रूहानियत का लहू टपकता रहता है। मैं बस इसी से तरबतर रहना चाहता हूँ। मेरे प्यारे, मुझ पर भरोसा रखना मैं एक दिन तुम्हारे वैभव को लौटाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दूँगा। मैं तुम्हें सिर्फ स्मृतियों में नहीं यथार्थ के धरातल पर जीना चाहता हूँ। मैं एक दिन जरूर लौटूंगा, तुम मेरा इंतजार करना। मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारा ये इंतजार लम्बा नहीं होगा। अब लिखना बन्द कर रहा हूँ। अपना खयाल रखना। मुझे तुमसे तुम्हारी जितनी ही मोहब्बत है।

– सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा प्रेमी





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