विशालकाय बरगद का अवसान, वृक्ष की मृत्यु का शोक-गीत


राजधानी भोपाल के हृदय स्थल में एक विशालकाय बरगद का अवसान हो गया। पता नहीं, सौ साल से पुराने इस पेड़ को अपने बुजुर्ग की तरह श्रद्धांजलि देने वाले लोग कितने होंगे।


DeshGaon
अतिथि विचार Published On :
bargad ka ped

शिवकुमार विवेक।

राजधानी भोपाल के हृदय स्थल में एक विशालकाय बरगद का अवसान हो गया। पता नहीं, सौ साल से पुराने इस पेड़ को अपने बुजुर्ग की तरह श्रद्धांजलि देने वाले लोग कितने होंगे। आखिर पेड़ ही तो है जिससे किसी का वंश नहीं चलता अथवा जिससे किसी की वंशावली पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

यह पेड़ किसी के आंगन में नहीं था। किसी के पारिवारिक जीवन का हिस्सा नहीं था। शहर का विकास उससे लगातार कीमत मांग रहा था। जीवनदान मांग रहा था। एक समाचार बताता है कि तत्कालीन स्थानीय शासन मंत्री ने उसे कटने से बचा लिया। बच तो गया किंतु विकास के सैकड़ों अनाम मसीहाओं ने सीमेंट-कांक्रीट से घेरकर उसकी प्राण वाहनियां बंद कर दीं।

हर शहर में पेड़ों का यही हाल है। इसलिए हमें अब पुराने वृक्ष देखने को नहीं मिलते। नए जंगल लग रहे हैं। जिनमें जल्दी पनपने वाली और फौरी लाभ देने वाली किस्में लहलहा रही हैं। भारत सहित 36 देशों में पिछले दो साल के बीच तेरह करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में जंगल बढ़ गए। लेकिन 10 करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में नए जंगल भी लगे।

सो क्या हुआ अगर जंगल कटे। वनक्षेत्र तो बढ़ा है। मेरीलैंड विवि और विश्व वनसंस्था की रिपोर्ट कहती है कि नए जंगल पुराने पेड़ों वाले वन की तरह कार्बन समृद्ध नहीं होते।

मध्यप्रदेश के सुप्रसिद्ध व्यंगकार शरद जोशी ने लिखा था-’घर का पेड़ हो, बाप ने बोया हो, तो भावुकता का अधिकार पुश्तैनी हो जाता है। धीरे-धीरे पूरा मिजाज आंचलिक हो जाने की संभावना बनी रहती है।’ वे एक अन्य लेख में लिखते हैं- ’सघन गहराइयों में न जाओ, अमान्य रूप से झरते तथ्यों को ही बीनो, तो भी आंगन का पेड़ बड़ा सहायक है। जब चाहे गुस्सा कम करने या आंखें नम करने में मदद करता है।’

किंतु विडंबना यह है कि यह पेड़ किसी घर का नहीं था। किसी आंचलिकता का हिस्सा भी नहीं था। ग्रामीण व पारंपरिक समाज तो कम से कम पेड़ों को सहेजता है। उसे विकास की ऐसी कोई कीमत भी अभी नहीं चुकानी है। उसे अब तक प्राणवायु की महत्ता पता है। इसलिए गांवों में बड़े-बड़े वृक्ष देखने को आज भी मिल जाते हैं। हम ही बचपन में नर्मदा के बरिया (बरगद) घाट पर गोट (पिकनिक) करने जाते थे जिस बरगद के नीचे एक पूरी बड़ी बारात ठहर सकती है।

कहा जाता है कि किसी साधु समूह ने इसे सौ साल पहले रोपा था। उसको सीमेंट-कांक्रीट से बांधा नहीं गया। स्वाभाविक विकास करता है। मनमर्जी का मालिक है। शहर में किसी की मर्जी नहीं। विकास में आम आदमी का कोई हस्तक्षेप नहीं। नगरपालिका की सड़कों, पेड़ों, पार्कों, भवनों से हमारा आत्मीय और जवाबदारी का रिश्ता नहीं। यह आम आदमी को केवल उसकी भौतिक जरूरतें बताता है। पर्यावरण सरोकारों से कहीं बड़ी जरूरतें। इसलिए हाल यह है कि गर्मियों में अपना वाहन खड़ा करने के लिए एक छायादार पेड़ ढूंढ़ते रहिए, नहीं मिलेगा।

लोग सभ्यता का मायना सीमेंट-कांक्रीट की अट्टालिका खड़ा करना मानने लगे हैं, उसमें एक पेड़ लगाना सभ्यता की निशानी नहीं बना। सभ्यता की अच्छी निशानियां हैं, मदनमोहन मालवीय की काशी हिंदू विश्वविद्यालय, गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की शांति निकेतन जैसी संस्थाएं जिनमें घुसते ही एक नहीं, सैकड़ों प्राचीन वृक्षों की कतारों के बीच अपने मन को किसी और सदी और किसी और दुनिया में विलगाहन करते पाइएगा। अथवा कोलकाता के वनस्पति उद्यान में 14 हजार वर्गमीटर में फैले वटवृक्ष को देखकर सामान्य ज्ञान बढ़ाइए।

मप्र की एक युवा टोली का एक समाचार सुकून देता है जो नगरीय क्षेत्र के उन पेड़ों की जड़ों तक पानी पहुंचने के लिए जगह बनाती है जिनके आसपास सीमेंट-कांक्रीट भरकर नगरीय निकाय भूल गए। ऐसे सैकड़ों पेड़ों को इस टोली ने जीवनदान दे दिया। (खेद है कि उसका नाम स्मरण नहीं रख सका।) एक चित्रकार की व्यथा का बखान करते हुए सागर सरहदी ने लिखा- यूनिवर्सिटी की सीनेट ने तय किया कि सौ साल पुराने दरख्त को काट दिया जाए और यूनिवर्सटी की बिल्डिंग का एक हिस्सा तैयार कर दिया जाए।

चित्रकार ने सुना तो आग बबूला हो गया। उसके लिए यह पेड़ ज्ञान का मंदिर था। पुरानी सभ्यता थी। छुपी हुई इंसानियत थी। पत्रकारों से बातचीत की, बड़े-बुजुर्गों से बात की। झगड़े किए-चेतावनी दी। कुछ रोज तो उस शहर में उस पेड़ के अलावा किसी और का जिक्र ही नहीं था। हर तब्सिरों में, रोजनामों में उस पेड़ का जिक्र होता। और उस अनथक मेहनत से वह पेड़ बचा रह गया था। लेकिन बदले में यूनिवर्सिटी ने उसके सामने ही बिल्डिंग के हिस्से की तामीर शुरू कर दी थी।

पेड़ के नीचे कैंटीन बन गई और उसके नीचे सीमेंट, रेती, पानी के टब और पत्थर पड़े रहते। पेड़ की टहनियों पर गीले कपड़े सूखते और गंदे कपड़े लटके रहते। चित्रकार ने यह दशा देखी तो रो पड़ा। वह बेबस होता जा रहा था। पेड़ की यह दशा नहीं देख पा रहा था और खून के आंसू बहा रहा था। फिर उसने रंगों का सहारा लिया।

जहां पेड़ दादाजी में परिवर्तित हो गया जो हाथ-पांव से लाचार थे। कहीं वह संगीतकार है और उसकी टहनियों से हवा संगीत छेड़ती है लेकिन वह दर्दनाक है। कहीं वह ऋषि-मुनि है और ज्ञान-ध्यान में मगन है। और कहीं वह बड़ी-बड़ी आंखों से आंसू बहा रहा था। चित्रकार कई सालों तक उस पेड़ के साथ जी रहा था, उसकी जिंदगी को अपना चुका था। उसे लगा कि वह पुराने पेड़ के साथ मरता जा रहा है।

हम किसी पेड़ से एकाकार नहीं हैं। इसलिए इनका कटना-ढहना शहर की एक सनसनीखेज खबर भर है।

आलेख मध्‍यमत.कॉम से साभार





Exit mobile version