मुंबई का बच्चा और इतना हो हल्ला 

इंदौर में एक लड़की के पहनावे पर मचे बवाल ने समाज की सोच और नैतिकता की सीमाओं पर बहस छेड़ दी है। क्या कपड़ों से किसी की संस्कृति और नैतिकता का मूल्यांकन करना सही है?

मशहूर होने की चाहत में एक झल्ली लड़की ज़रूरत से कुछ कम कपड़ों में घूमने निकलती है। नादान मीडिया उसके झांसे में आकर ज़रूरत से ज़्यादा हल्ला करता है। समाज और राजनीति के नेता बेवजह इस हल्की बहस में कूद पड़ते हैं, फिर भूख, बेरोजगारी, ट्रैफिक जाम और बदहाल सड़कों की चिंता छोड़ सारा शहर इस नैतिक पतन के शोक में डूब जाता है!

 

किसी लड़की के ब्लाउज की गहराई एक-दो इंच कम-ज्यादा होने पर जो शहर ऐसे बावला हो जाए, उसे मुंबई का बच्चा कहना ठीक नहीं। ऐसा अफगानिस्तान या ईरान में होता है। मुंबई में तो हर सड़क पर इतने (कम) कपड़ों में महिलाएं दिखती हैं और उन्हें कोई नहीं देखता।

 

पर इंदौर शहर की सारी नैतिकता एक लड़की के ब्लाउज के सहारे खड़ी थी, जो उसके नीचे खिसकने से भरभरा कर गिर पड़ी। व्हाट्सएप दुनिया के नागरिकों ने उसके वीडियो के साथ अपने शोक संदेश नत्थी किए और उसे वायरल कर अपने नैतिक होने की ज़िम्मेदारी निभाई। वे थोड़ी देर के लिए उन मादक और उत्तेजक तस्वीरों के खजाने को भूल गए जो उनके उसी मोबाइल में थे।

 

सोचना चाहिए, हमें स्त्री देह के खुले या बंधे रहने की इतनी चिंता क्यों और कब से होने लगी है? कौन क्या पहनेगा, कितना पहनेगा, ये तय करने वाले हम कौन हैं? महानगर होने का अरमान रखने वाले शहर को अपने रहवासियों को इतनी आज़ादी तो देनी ही चाहिए कि वे क्या पहनें।

 

जो लोग संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं, उन्हें कालिदास की नायिकाओं की वेशभूषा के बारे में पढ़ना चाहिए। न हो तो मृच्छकटिकम नाटक पर बनी फिल्म ‘उत्सव’ ही देख लें।

 

इस बवाल पर बात करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इस बहस का आखिरी सिरा उसी गंदी सोच तक पहुंचेगा, जहां कोई नेता बलात्कार के लिए लड़कियों के कम कपड़ों को ज़िम्मेदार ठहराने की हिमाकत करेगा।

 

इस बवाल को समझना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि शायद इससे हमें अपने आसपास हो रहे बलात्कार और यौन हिंसा के बारे में कोई सुराग मिल सकता है। लड़की के कपड़ों पर बवाल करना और फिर मौका मिलते ही किसी अधेड़ द्वारा अपनी पोती बराबर उम्र की बच्ची के साथ बलात्कार करना दरअसल एक ही समस्या के दो पहलू हैं। शायद स्त्री-पुरुष संबंध उलझ गए हैं, यौनिकता के बारे में हम असहज हो गए हैं, कुंठित हो गए हैं। यह पतन पिछले 30-40 सालों में ज़्यादा हुआ है। स्त्री-पुरुष के बीच संवाद खत्म होने की हद तक औपचारिक हो गया है। शायद हम अपनी बच्चियों और महिलाओं को बचाने के प्रयास में इतना दूर चले गए हैं कि लड़कियां अब लड़कों के लिए किसी दूसरे ग्रह की निवासी हैं। यह अपरिचय, यह उत्सुकता, ये दमित इच्छाएं कभी किसी लड़के से लड़कियों के बाथरूम में कैमरे लगवाती हैं, कभी कोई अपनी सहपाठी को कोल्ड ड्रिंक में नशा पिलाकर जबरदस्ती कर रहा है, कोई बस की कतार में खड़ी स्त्री को छूने की कोशिश कर रहा है और सबसे ज़्यादा, कोई एक सेवाभावी डॉक्टरनी का बलात्कार कर कत्ल कर रहा है।

 

नैतिकता के मायने समय और स्थान के साथ बदलते हैं। गांव में आज भी औरतें नदी-तालाब पर कपड़े बदल लेती हैं, कोई कुछ नहीं देखता। हमारे समय की नैतिकता क्या है, वह हमारा समाज तय करेगा। लेकिन जब मीडिया और राजनीति नैतिकता की परिभाषा कपड़ों से तय करेंगे, तो वे इसकी रक्षा के लिए किसी मासूम लड़की की नादानी पर इतना बवाल करेंगे कि वह आत्महत्या की बात करने लगे।

 

कोई शहर सिर्फ उसकी सड़क, शॉपिंग मॉल या खानपान के लिए ही नहीं जाना जाता। उसके रहवासियों की सोच शहर का असल आईना है, जिसमें इंदौर की शक्ल फिलहाल सुंदर तो नहीं ही दिख रही है।

 

First Published on: September 27, 2024 7:29 PM