एक जैविक इकाई के रूप में कोरोना महामारी की गिरफ्त में दुनिया के लगभग 70 करोड़ इंसान आ चुके हैं। लगभग 15-20 लाख ने उसके सामने समर्पण कर दिया है। अपने प्यारे देश के आंकड़े देखें तो जनसंख्या के अनुपात में हालांकि अब भी शुक्र किया जा सकता है, लेकिन जिस तेज़ी से यह फैल रही है उसे देखते हुए यह शुक्र, तसल्ली से ज़्यादा बहुत जल्दी अफसोस का सबब भी हो सकता है।
आज की तारीख तक कुल डेढ़ करोड़ लोग इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं और लगभग दो लाख लोग इसकी और इसकी वजह से या पहले से लचर रही स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से काल कवलित हो चुके हैं। आंकड़ों में भले ही अनुपात की दृष्टि से उतनी भयावहता न दिख रही हो, लेकिन चिकित्सा सुविधाओं और यहां तक कि अंतिम संस्कार के लिए उमड़ी लाशों के दृश्य डराते हैं। हिंदुस्तान में इस महामारी ने लोगों को अपना ग्रास बनाने से पहले पूरी व्यवस्था को ही अपनी मजबूत गिरफ्त में ले लिया और समय से पहले ही काल कवलित कर दिया है। व्यवस्था के लिए अनिवार्य शर्त ‘योजना’ को इस देश ने हालांकि 2015 में ही तिलांजलि दे दी थी जब योजना आयोग को नेस्तनाबूत किया गया था। मौजूदा निज़ाम का ‘योजना’ से अजीब किस्म का वैमनस्य रहा है, हालांकि तब भी हम हिन्दुस्तानी नागरिकों ने इसे ‘मास्टर स्ट्रोक’ मानते हुए इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
जब एक अगम-अगोचर, नग्न आँखों से न दिखलायी देने वाले वायरस ने दुनिया में दस्तक दी तब सबसे पहला भाव इससे चौंकने का था। इसके बाद अटकलें लगाने, इसके बारे में जानने-समझने के वैज्ञानिक तरीके अपनाए गए। विज्ञान जब अबूझ की शिनाख्त करने निकलता है तो उसमें कई तरह की अटकलों, अनुमानों, आकलनों और व्यावहारिक निदानों-निष्कर्षों के कई ऐसे पड़ाव आते हैं जो निर्णायक रूप से सही बताए जाने लगते हैं, हालांकि अनुसंधान चलते रहते हैं। ऐसा कहा और माना जा रहा है कि इस वायरस का कुल आयतन एक टी-स्पून यानी छोटी चम्मच में समा सकता है। इतनी सी मात्रा पूरी दुनिया को बीमार बनाने की ज़िद पर आमादा है और यह इतना शातिर है कि पूरी दुनिया की चरमरायी चिकित्सा व्यवस्थाओं को सबसे पहले अपना शिकार बना रहा है। इस एक साल में इस वायरस ने दुनिया की चिकित्सा व्यवस्था को अपना ग्रास बनाने से पहले उसकी बुनियादी खामियों को ही उजागर किया है।
महामारियों का इतिहास देखें तो एक बात बुनियादी रूप हमें दिखलायी देती है कि व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता जल्दी ही दम तोड़ देती है। वह कनफ्यूज़ हो जाता है। जो उसे बताया जाता है उस पर आँख मूंदकर भरोसा करने लगता है। कभी-कभी हालांकि वह उसके विपरीत भी सोचता है और उसे यह भी लगने लगता है कि जो दिखाया जा रहा है और जो हो रहा है उसमें संगति नहीं है, लेकिन अकेले पड़ जाने के ख्याल से वह अपने मन की आशंकाओं को बाहर नहीं ला पाता। इस लिहाज से देखें तो हिंदुस्तान में महामारी 2014 के बाद से ही जारी है।
जैसा कि महामारी करती है, लोगों की सोचने-समझने और खुद पर एतबार करने की क्षमता को सबसे पहले नुकसान पहुंचाती है। महामारी समाज को भीड़ में तब्दील करती है। यहां हिंदुस्तान में इस अवस्था में पहुंचाये जाने की तोहमत वायरस पर केवल नहीं है, बल्कि इसके तमाम स्ट्रेन पहले ही मौजूद थे जो लोगों की सोचने-समझने, तर्क-वितर्क करने, देखने-परखने, सूंघने और स्वाद से जान लेने की क्षमताओं को खा चुके थे।
इसलिए जब हिंदुस्तान में कोरोना वायरस का संक्रमण आया तब इसकी एक पूर्वपीठिका पहले से ही तैयार थी और वो थी लोगों की न्यूनतम वैज्ञानिक चेतना की अपहृत स्थिति। इसलिए यहां इस बीमारी की भयावहता बनी हुई है और और हालात बदतर होते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह काम चोरी-छुपे हुआ, बल्कि डंके की चोट पर सामूहिक स्वर में लोगों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के ऊपर श्मशान और कब्रिस्तान के इर्द-गिर्द रची गयी राजनीति को खुद पर शासन करने के लिए चुना। अफसोस कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी ज़रूरी चीजों को नकार कर चुने गए श्मशान और कब्रिस्तान भी अब कोरोना से मर रहे लोगों को मयस्सर नहीं हो रहे हैं।
जिस तरह के भयावह चित्र सामने आ रहे हैं, उससे अब वो आवाज़ें भी थोड़ा नरम और नगण्य होती जा रही हैं जो हमें आगाह कर रही थीं कि इस विकट दौर में भी दो बातों के बीच संगति तलाशने की ज़रूरत बनी रहती है और इस न्यूनतम वैज्ञानिक चेतना को जिंदा रखा जा सकता है।
महामारी की पैदाइश से लेकर आज की विभीषिका के इतिहास को जब लिखा जाएगा तो उनका भी नाम यहां आना चाहिए जो इसे लेकर आलोचनात्मक और तार्किक नज़रिये से बात करते आए। तब भी उन्हें संख्या बल के सामने हुज्जत झेलनी पड़ी, लेकिन गत एक सप्ताह के दौरान हम देख रहे हैं कि उन्हें लगभग बेइज्जती नसीब हो रही है। उन्हें लानतें भेजी जा रही हैं और उन्हें नामजद करते हुए सोशल मीडिया पर लगभग समाज और मानवता के सबसे बड़े गुनहगार के तौर पर बताया जा रहा है। उन्हें कई मौकों पर सफाई देनी पड़ रही है। यहां तक कि उनके अंदर यह डर भी पैदा हुआ है कि अगर उन्हें इस कदर मानवता के खिलाफ षडयंत्रकारी बतलाया जाता रहा, तो हिंदुस्तान में धर्म और तर्क के नाम पर आम हो चली लिंचिंग के लिए परिस्थितियां तैयार होती हैं जिसमें इन्हें लिंचिंग का सबसे आसान शिकार बनाया जा सकता है। डिजिटल लिंचिंग तो खैर उनकी हो ही रही है।
बात में नामों का ज़िक्र कई बार किया जाना इसलिए ज़रूरी है ताकि यह दर्ज रहे कि इस विभीषिका में अपने बीच ही ऐसे लोग रहे हैं जो लगातार इस महामारी के बारे में तार्किक प्रश्न करते रहे और हमें यह सोचने के लिए विवश करते रहे कि जो बतलाया जा रहा है केवल वही सही नहीं है, बल्कि जो नहीं बतलाया जा रहा है उसे भी समझने की ज़रूरत है। ये हमें बताते रहे कि ये महामारी अगर दुनिया भर की आबादी के लिए बीमारी है तो चंद पूँजीपतियों के लिए नयी विश्व व्यवस्था की तरफ ले जाने वाली सवारी भी है। उनकी नज़रें इस सवारी पर केन्द्रित रहीं। इन लोगों ने कभी ये नहीं कहा कि ये कोई बीमारी है ही नहीं। उन्होंने इस बीमारी को विश्व व्यवस्था के बदलने का जरिया बनाने के अभियानों का पर्दाफाश करने की कोशिश की।
ये बात बहुत मानवीय है कि जब आंकड़ों के बीच किसी अपने का चेहरा दिखलायी दे जाता है तब तर्क-वितर्क, अनुसंधान और साज़िशों के सिद्धान्त गौण हो जाते हैं, लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि जो आंकड़ों में बातें करते हैं उन्हें अपनों को खो देने का डर नहीं रहा होगा या उन्होंने बचाव के उपाय न अपनाने के लिए कहा होगा।
जिन कुछ लोगों की बात यहां हो रही है उनमें किसी ने भी कभी यह नहीं कहा कि आप मास्क न लगाएं या सुरक्षित दूरी का पालन न करें या बेवजह भीड़ बढ़ाते रहें या डॉक्टर के पास ज़रूरत पड़ने पर न जाएं, बल्कि उन्होंने केवल यह कहा कि ये सब करते हुए भी इस महामारी के वैश्विक परिदृश्य पर घट रही अन्य घटनाओं पर नज़र बनाए रखें और इसके साक्षी बनें- कि कैसे मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बनी महामारी को बहाना बनाकर पूंजी के खेल आयोजित किए जा सकते हैं।
जो बतलाया जा रहा है उस बतलाये जाने के पीछे बतलाने वाले के बड़े हित छिपे हैं। वो अपने हितों की परवाह कर रहे हैं। मानना ज़रूरी नहीं है, लेकिन क्या आप यह जान रहे हैं? इतने मासूम आग्रह को ‘साजिश के सिद्धांतों’ (कांसपेरेंसी थ्योरी) से संचालित केवल नहीं माना जा सकता। और ऐसा भी नहीं है कि इन कुछ तार्किकों ने जो बतलाया है अब तक वो सभी आशंकाएं निर्मूल साबित हुई हैं, बल्कि कई बार ठीक वही होते हुए दिखलायी दे रहा है जो इन्होंने कुछ समय पहले कहा था। इनके कहने का आधार हिमालय की बर्फ़ीली कंदराओं से प्राप्त हुआ इल्हाम नहीं रहा, बल्कि ठोस लौकिक जगत में उपलब्ध सूचनाओं को आधार बनाकर ही सब कुछ कहा गया। सारी जानकारियां/सूचनाएं सार्वजनिक हैं। ये किसी खुफिया संस्थान के मुलाज़िम नहीं हैं और न ही कोई बड़े वैश्विक खोजी पत्रकारों के दल का हिस्सा ही। इनके पास भी उतने ही संसाधन मौजूद हैं जो देश की बड़ी आबादी के पास एंड्रॉइड फोन के माध्यम उपलब्ध हैं। इन्होंने अपने एंड्रॉइड फोन, लैपटॉप और इन्टरनेट के जरिये इन सूचनाओं पर नज़र रखी, उनके बीच परस्पर संबंध तलाशे और उनसे आकार ले रही परिघटना को हमारे सामने खुले परिपथ के रूप में पेश किया।
आप अन्यतम जानकारियां देने के लिए स्वतंत्र थे और हैं, लेकिन उसकी शुरुआत इस कथन से नहीं हो सकती कि क्या आप विज्ञान पर भरोसा नहीं करते? या आप लोगों को गुमराह कर रहे हैं? संभव है कि गुमराह भी हों, लेकिन ये किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की सामान्य सी प्रक्रिया है। आप इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे? ये तो उसकी समीक्षा कर रहे थे।
नाम लेकर कहना इसलिए यहां मौजूं है क्योंकि इन्हें नामजद करके लानतें भेजे जाने की तीव्रता भी महामारी की विभीषिका से प्रतिस्पर्धा कर रही है। गिरीश मालवीय, मुनीश शर्मा, अरविंद शेष, विश्वरूप रॉय चौधरी, टिकेन्द्र वर्मा छत्तीसगढ़िया, अपूर्व भारद्वाज, कृष्णकांत, नवनीत चतुर्वेदी- ये कुछ ऐसे नाम हैं जो हिन्दी सोशल मीडिया पर हिन्दी में तर्क का दामन थामे रहे। इसके अलावा बहुत और नाम होंगे जिन तक अपनी पहुँच नहीं है।
देश की अन्य भाषाओं में कुछ लोग होंगे ज़रूर और दुनिया में तो इसे लेकर कई लोग सवाल उठाते रहे हैं। हालांकि हिन्दी वाले इन बौद्धिकों ने खुद को कभी कोन्स्पेरेंसी थ्योरी का वाहक और उससे संचालित नहीं कहा, लेकिन दुनिया में इस थ्योरी के स्थापित स्कूल्स हैं और इस धारा के लोगों ने कई बड़ी-बड़ी परिघटनाओं को अलग नज़रिये से देखने की सार्थक कोशिशें की हैं, जिनका महत्व बना हुआ है। निरंतर संसाधनों के अधिग्रहण के रास्ते यह दुनिया बहुत काम्प्लेक्स होती जा रही है। ऐसे में एकांगी ढंग से सोचने और जो बतलाया जा रहा उस पर यकीन करने के लिए अभिशप्त हो जाने से उन पर संदेह करने और संदेह को स्थापित करने की कोशिशों की ज़रूरत बढ़ ही रही है।
संदेह और संशय, गुलाम समाज में जरूर पाप के लक्षण हो सकते हैं लेकिन इतिहास साक्षी है कि इन्हीं दो गुणों-अवगुणों ने मानव सभ्यता को इस उन्नत अवस्था तक लाया है। विज्ञान के मूल में भी इन्हीं दो गुणों को अनिवार्य रूप से होना बतलाया गया है। यह संदेहवाद महज़ बीमारी पर नहीं बल्कि तमाम राजनैतिक घटनाओं पर बराबर से लागू होता है।
जब न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमला हुआ तब संयुक्त राज्य अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश किसी स्कूल में बच्चों के साथ अपना समय बिता रहे थे और वो ऐसा पहली दफा कर रहे थे। जब पुलवामा में देश के जवानों पर हमला हुआ तब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिम कॉर्बेट में क्रिस ग्रेल के साथ फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। इन बातों का उल्लेख मात्र एक समानांतर नज़रिया दे देता है। इन दोनों घटनाओं की सच्चाइयां ज़रूर इतिहास के किसी स्टोररूम में दबी रहें, लेकिन जब वो खुलती हैं तो इन बातों का उल्लेख सार्थक हो जाता है। जब बीमारी को भी राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति में इस्तेमाल होते देखा जा रहा हो तब उस पर संदेह करना महज़ बीमारी पर संदेह करना नहीं हो जाता। बहरहाल…
यह वबा है। वबा हवा की मानिंद अपने साथ बहुत कुछ लेकर चलती है। संदेह भी यकीन भी। गुस्सा भी, लालच भी, अवसर भी और आश्चर्य भी। ज़रूरत इन सभी को एक साथ लाकर देखने और समझने की है। जिनके नाम इस अफसाने में आए हैं उनका लिखा, कहा हर वाक्य अपने समय की साज़िशों को समझने के दस्तावेज़ हैं। विश्वास करना, भरोसा करना या न करना आपके ऊपर है जिस पर इनका कोई दुराग्रह नहीं है। सामाजिक और राजनैतिक जीवन में इन आवाज़ों का अपना महत्व है। सही गलत साबित करने का काम इतिहास का है जो वो बखूबी करता है।
(आलेख वेबसाइट जनपथ से साभार ली गई है)