ममता बनर्जी की ताज़ा राजनीतिक गतिविधियों और अन्य दलों में तोड़फोड़ ने अचानक से देश भर में उत्सुकता पैदा कर दी है।ऊपरी तौर पर तो ममता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ती हुई नज़र आ रहीं हैं पर असल में वे विध्वंस कांग्रेस का कर रही हैं।
कांग्रेस से नाराज़ होकर ही उन्होंने जनवरी 1998 में अपनी नई पार्टी (तृणमूल कांग्रेस) के ज़रिए पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों से लड़ाई शुरू की थी। हाल तक कांग्रेस सिर्फ़ भाजपा से ही डरी-सहमी रहती थी पर अब ममता भी उसके लिए खौफ का नया कारण बन रही हैं। उत्तर भारत के लोग नंदीग्राम के बाद ममता का कांग्रेस के ख़िलाफ़ चण्डी पाठ प्रारम्भ करने का सही कारण तलाशना चाह रहे हैं।
क्या ममता बनर्जी में स्वयं को प्रधानमंत्री के पद पर विराजित देखने की आकांक्षाएं उत्पन्न हो गईं हैं ? फिलहाल इस विषय पर बहस टाली जा सकती है कि पश्चिम बंगाल के बाहर शेष देश में प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी उस तरह स्वीकार्य हो सकेगी या नहीं जैसी कि मोदी की हो गई थी। साथ ही यह भी कि क्या देश किसी ऐसे अहिंदी-भाषी प्रधानमंत्री को स्वीकार कर पाएगा जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आज़ादी और विपक्ष के अस्तित्व को लेकर छवि मोदी से ज़्यादा भिन्न नहीं है।
जहां तक किसी बांग्ला भाषी के प्रधानमंत्री के पद पर क़ाबिज़ हो पाने की सम्भावनाओं का सम्बन्ध है, अपने समय के लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु की महत्वाकांक्षाओं को लेकर भी ऐसी ही चर्चाएँ अतीत में चल चुकीं हैं। देश जानता है कि तब उनकी ही पार्टी के ताकतवर नेताओं ने उनके इरादों में सेंध लगा दी थी।
1984 में इंदिरा गांधी के निधन के तत्काल बाद इस उच्च पद के लिए प्रणब मुखर्जी की दावेदारी मज़बूत मानी जा रही थी पर बाद में जो कुछ हुआ वह इतिहास और मुखर्जी की किताब में दर्ज है। उसके बाद से प्रणव मुखर्जी और गांधी परिवार के बीच सम्बन्ध कभी सामान्य नहीं हो पाए।
अतः अनुमान ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में कभी ममता की ऐसी किसी दावेदारी पर ‘गांधी परिवार’ का रुख़ क्या होगा ! ऐसा इसलिए कि गांधी परिवार में ही इस पद को लेकर अब दो सशक्त दावेदारों के चेहरे प्रकाश में हैं।
हाल ही में चार-दिनी यात्रा पर दिल्ली पहुँची ममता के कार्यक्रम में कीर्ति आज़ाद को कांग्रेस से तोड़कर तृणमूल में शामिल करने के अलावा सोनिया गांधी से मुलाक़ात करना भी कथित तौर पर शामिल था पर यह बहु-अपेक्षित भेंट अंततः नहीं हो पाई।
सोनिया गांधी अपनी व्यस्त दिनचर्या में ममता के लिए कोई ख़ाली समय नहीं निकाल पाई होंगी। बाद में ममता ने यही सफाई दी कि उन्होंने श्रीमती गाँधी से भेंट के लिए समय माँगा ही नहीं था।
लगता है कि भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष में उतरने से पहले ममता के लिए यह ज़रूरी हो गया है कि विपक्ष के नेतृत्व के दावेदारों की सूची से राहुल, प्रियंका, केजरीवाल आदि के नामों पर ताले पड़वाए जाएं।
बिहार के ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार किसी समय विपक्ष के नेता के तौर पर प्रकट हुए थे पर भाजपा के साथ एकाकार करके उन्होंने अपने को दिल्ली से दूर कर लिया है। पवन वर्मा की तृणमूल में भर्ती के बाद तो ममता के साथ उनका कोई सार्थक संवाद सम्भव भी नहीं।
यह मानने के पर्याप्त कारण गिनाए जा सकते हैं कि भले ही इस समय कांग्रेस का परिवारवाद प्रधानमंत्री के निशाने पर है, लेकिन, आगे चलकर उनके हमले तृणमूल कांग्रेस पर ही बढ़ने वाले हैं।
पश्चिम बंगाल की भाजपा और वहाँ के राज्यपाल के लिए थोड़े आश्चर्य की खबर रही होगी कि ममता से मुलाक़ात के दौरान मोदी ने अगले साल अप्रैल में कोलकाता में होने वाली ‘बिस्व बांग्ला ग्लोबल बिज़नेस समिट’ का उद्घाटन करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया।
उल्लेखनीय यह है कि इस समिट के होने तक उत्तर प्रदेश सहित पाँचों राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों के नतीजे आ चुके होंगे। प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश के पचहत्तर ज़िलों में पचास रैलियाँ करने वाले हैं तो इस बात के महत्व को समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों और फिर वहाँ के उप-चुनावों में भी करारी हार के बाद पहली बार कोलकाता की यात्रा पर जाने वाले मोदी ने ममता के आमंत्रण को क्या कुछ सोचकर स्वीकार किया होगा !
पहले स्वयं अपनी ओर से, फिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के जरिए गांधी परिवार के साथ बातचीत के बाद ममता शायद इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं कि साल 2024 में सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी नहीं बन सकती। दूसरे यह कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में तृणमूल की ज़मीन तैयार करने के लिए दूसरे दलों की ज़मीन पर ही दल-बदल का हल जोतना पड़ेगा।
इस सिलसिले में ममता को ज़्यादा सम्भावनाएँ कांग्रेस के असंतुष्टों में ही नज़र आती हैं। भाजपा द्वारा सफलतापूर्वक सेंध लगा लिए जाने के बाद अब ममता को भी लगता है कि तृणमूल के लिए भी नई भर्ती कांग्रेस से ही की जा सकती है।
ममता यह सावधानी अवश्य बरत रही हैं कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है या उसके सत्ता में आने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं वहाँ वे फ़िलहाल तोड़फोड़ नहीं कर रही हैं। ममता बहुत ही नियोजित तरीक़े से उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा(और कांग्रेस को भी ) चुनौती दे रही हैं। त्रिपुरा के बाद मेघालय का राजनीति घटनाक्रम इसका उदाहरण है।
ममता शायद अंतिम रूप से मान चुकी हैं कि गांधी परिवार भाजपा से सीधी टक्कर लेने का दम-खम नहीं रखता है। तृणमूल ने संसद में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का समन्वय करने से भी इनकार कर दिया है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब ममता के ही रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मानना है कि देश भर में दो सौ से ज़्यादा लोक सभा सीटें कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र की हैं तो वे एक बड़े राष्ट्रीय दल को अलग रखकर फ़िलहाल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित क्षेत्रीय दल तृणमूल को विपक्षी एकता की धुरी कैसे बना पाएँगी ?
साथ ही यह भी कि ममता के क्रिया-कलापों से अगर गांधी परिवार नाराज़ होता है और परिणामस्वरूप कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच एकता में दरार पड़ती है तो भाजपा के लिए खुश होने के पर्याप्त कारण बनते हैं। विपक्षी दलों के सामने निश्चित ही संकट उत्पन्न हो जाएगा कि वे कांग्रेस के एकता प्रयासों के साथ जाएँ कि ममता के!
तो क्या ममता कांग्रेस को तोड़ने में मोदी की मदद कर रहीं हैं ? जिस कांग्रेस पार्टी को 136 वर्षों से अखिल भारतीयता और राष्ट्रीय सहमति प्राप्त है उसे कमजोर करके कुछ ही सालों में तृणमूल को राष्ट्रीय स्वीकृति बनाने की कोशिशों में ममता शायद मोदी को ही और मज़बूत करने का जुआ खेल रहीं हैं।