कई दिन से लगातार दिमाग में यह बात चल रही थी कि गांधीजी पर कुछ लिखा जाए। जाहिर है तात्कालिक संदर्भ यही था कि एक खास किस्म के लोगों में गांधी जी के बारे में बुरा से बुरा बोलने की होड़ क्यों मची है? इसकी एक तात्कालिक वजह तो यह समझ में आती है कि लोगों को लगता है कि सत्ताधारी दल और उसकी विचारधारा की आंख का तारा बनने के लिए गांधी जी को गाली देना सबसे सरल और शॉर्टकट रास्ता है।
लेकिन बात इतनी भर नहीं है। बहुत से लोगों को दुष्प्रचार के कारण और बहुत से लोगों को संस्कार के कारण ऐसा लगता है कि गांधीजी अति महिमामंडित कर दिए गए हैं, जबकि उनकी भूमिका उतनी बड़ी नहीं थी। इस तरह के लोग पहले तो उनके अहिंसा के रास्ते से बहुत ज्यादा अरुचि रखते हैं और उसके बाद हिंदू मुस्लिम एकता की उनकी कोशिशों को पाकिस्तान के जन्म के तौर पर देखते हैं।
जाहिर है कि इसमें महात्मा गांधी के खिलाफ किए गए सुनियोजित व्यापक दुष्प्रचार का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन दुष्प्रचार का बीज भी आखिर उसी जमीन में पनप सकता है, जहां पहले से थोड़ी नमी हो। और ऐसा लगता है कि बहुत से दिमागों में पहले से नमी है, जहां इस बीज को बड़ी कुशलता और धूर्तता के साथ रोप दिया जाता है।
अगर सिर्फ भारतीय संदर्भ में बात करें तो हमारे दिमाग में अवतारों की एक ऐसी छवि बनी हुई है जिसमें किसी भी तरह के अन्याय का सामना हथियार उठाकर प्रत्यक्ष हिंसा के जरिए किया जाता है। दशावतार में इसी तरह की कहानियां भरी पड़ी है। इसके बाद अगर दुनिया के राजाओं और सेनापतियों की कहानियों पर आए तो लोग अंततः सिकंदर, जुलियस सीजर,चंगेज खान, बाबर, अकबर, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, नेपोलियन बोनापार्ट और बहुत सारे नाम आप जोड़ सकते हैं, उनसे प्रभावित होते हैं।
इनमें से ज्यादातर नायकों (किसी समुदाय के लिए खलनायकों) की बहादुरी को लेकर किसी के मन में कोई शंका नहीं है। इस तरह के योद्धाओं से हमारे मानस में नायक की छवि उस तरह के व्यक्ति की बन गई है जो अति मानवीय कार्य करने में सक्षम होता है और जो ताकत के बल पर पूरी दुनिया से अपनी बात मनवाता है।
हमारे देश में बनने वाली फिल्मों में भी शुरुआती दौर को छोड़ दें तो इसी तरह के नायक की प्रतिष्ठा हुई है। अमिताभ बच्चन का स्टारडम हो या सलमान खान का जलवा, उसमें नायक अपने बाहुबल से ही न्याय करता दिखता है। जो हाल हमारे यहां की फिल्मों का है, कुछ-कुछ वैसा ही हाल हॉलीवुड की फिल्मों का है। वहां का नायक भी कभी आतंकवादियों को तो कभी दूसरे ग्रह से आई हुई शक्तियों को एक साथ हजारों गोलियां मार के, पहाड़ों को लांघ के, अंतरिक्ष में छलांग लगाकर परास्त कर देता है।
ऐसे में अगर अवतारों से लेकर सेनापति और अभिनेताओं तक हमारे मन में हिंसा से न्याय प्राप्ति की भावना जड़ जमा ले, तो कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे दिमागों में महात्मा गांधी को उनकी मृत्यु के 70-75 साल बाद समझ पाना वैसे भी कठिन है। और जब ना समझने देने के लिए बाकायदा अभियान चल रहा हो तब तो कहना ही क्या?
लेकिन गौर से देखें तो यह जो वीर भाव हमारी चेतना में जड़ें जमा चुका है, उसके पीछे एक पुरानी दुनिया है। युद्धों की दुनिया। अवतारों और अभिनेताओं को छोड़ दें, क्योंकि वहां कल्पना की भरमार होती है तो सेनापतियों के मामले को लें जहां महिमामंडन सेनापति का होता है वह असल में उसकी अकेले की ताकत नहीं होती। उसके पीछे पूरा विज्ञान वैज्ञानिकों की टोली, रणनीतिकार, जासूस और जांबाज सिपाही होते हैं।
इसके अलावा परिस्थितियों और संसाधनों की उपलब्धता अपनी भूमिका अलग से निभाती है। लेकिन जब कोई कवि इन सेनापतियों का महिमामंडन करता है तो यह सारी चीजें उस एक अकेले आदमी के भीतर दिखाई देने लगती हैं, जिससे अंततः वह भी अवतार या अभिनेता की तरह एक काल्पनिक पात्र हो जाता है। बनाफर वीर आल्हा ऊदल इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
लेकिन इतनी सारी बातें गांधीजी पर लिखने से पहले क्यों कहीं जा रही हैं? इसलिए कही जा रही हैं कि अब तक हमने जिन लोगों का वर्णन किया वे सुपरमैन बिरादरी के लोग हैं। वे भगवान हो सकते हैं, राजा हो सकते हैं, नायक हो सकते हैं, लेकिन मसीहा नहीं है। मसीहा के यहां भौतिक विजय ही सब कुछ नहीं होती। हृदय पर राज करना और गहरी छाप छोड़ देना मसीहा का प्रमुख लक्षण है।
इतिहास में ऐसे भी पुरुष हुए हैं, जिन्होंने नितांत साधारण जीवन जिया, लेकिन त्याग और मानवता के ऐसे रास्ते पर भी चले कि आगे चलकर दुनिया उनके आगे झुक गई। भारतीय संदर्भ में कहें तो भगवान बुद्ध इस तरह के पहले व्यक्ति हैं। अगर भगवान बुद्ध का जीवन देखें तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा पराक्रम दिखाकर दुनिया को जीत नहीं लिया। उनकी मृत्यु देखें तो वह भी बिल्कुल साधारण मनुष्य की मृत्यु की तरह है। लेकिन आगे चलकर उनके विचार से करोड़ों लोग प्रभावित हुए और बौद्ध धर्म पूरी दुनिया में फैला। अगर सुपरमैन वाले कसौटी पर कसें तो भगवान बुद्ध कहीं नजर नहीं आएंगे।
ऐसा ही दूसरा उदाहरण ईसा मसीह का है। ईसा अपने शत्रुओं से भौतिक रूप से कहां जीत पाए। उन्हें तो बड़ी आसानी से सलीब पर चढ़ा कर मार डाला गया। अगर भौतिक पैमाने पर कसें तो शत्रुओं के हाथ से मारा जाना तो एक किस्म की हार ही हुई। लेकिन ईसा अपने विचार पर कायम रहे और उनकी शारीरिक मृत्यु के बाद भी वे मरी नहीं, बल्कि आज दुनिया का सबसे बड़ा धर्म उन्हीं के नाम और उन्हीं की शिक्षाओं पर चल रहा है।
ऐसा ही तीसरा नाम सुकरात का लिया जा सकता है। सुकरात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं की प्लेटो ने अपनी पुस्तक डेथ एंड डिफेंस ऑफ सोक्रेट्स में इस बात को बड़ी बारीकी से समझाया है। कथा तो आप सब को पता ही है कि सुकरात को उस जमाने की संसद ने जहर का प्याला देकर मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। सुकरात ने खुशी-खुशी वह सजा स्वीकार की और मृत्यु को प्राप्त हुए। इस तरह वे भी भौतिक रूप से अपने शत्रुओं से हार गए थे।
लेकिन हार या जीत के मर्म को प्लेटो ने ऊपर वर्णित किताब में बड़े सलीके से समझाया है। सुकरात उस संसद में कहते हैं कि मैं मरने के लिए जा रहा हूं और आप सब लोग जो यहां बैठे हैं, वे आगे का जीवन जीने के लिए जा रहे हैं। लेकिन यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि मेरी मृत्यु ज्यादा श्रेयस्कर है या आपका जीवन। सुकरात अपने मुकदमे में बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि ना तो जीवन बड़ी चीज है और ना मृत्यु बड़ी चीज है, बड़ी चीज है सत्य पर टिके रहना। मुझे जो सत्य लगता है मैं उस पर कायम रहूंगा और उस सत्य के प्रसार में जो भी बंदिश लगाई जाएगीं, उसे स्वीकार नहीं करूंगा। इन बंदिशों को स्वीकार कर जीते जी मर जाने से बेहतर है कि मैं मृत्युदंड स्वीकार करूं।
आज ढाई हजार साल बाद भी दुनिया के तमाम विद्वानों के लिए सुकरात की बातें सबसे ऊंची और आला बातें हैं। आज दुनिया के ज्ञानीजनों के बीच भगवान बुद्ध की शिक्षाएं मनुष्य द्वारा बताई गई सर्वश्रेष्ठ शिक्षाओं में से एक हैं। आज भी ईसाई समुदाय के लिए ईसा मसीह की वह सलीब जिस पर टांग कर उनकी हत्या कर दी गई थी एक धार्मिक प्रतीक है। यह किसी धर्मात्मा का ही असर है कि उसे मारने वाला हथियार भी उसके स्पर्श से पूज्य हो जाता है।
अब जरा महात्मा गांधी की बात करें। महात्मा गांधी ने भी अपना पूरा जीवन सत्य को समर्पित किया। गांधीजी बहुत स्पष्ट रूप से कहते थे कि सत्य का मतलब सिर्फ सत्य बोलना नहीं है। सत्य का मतलब है सत्य की रक्षा के लिए हर चुनौती झेल जाना, हर कुर्बानी देने को तैयार रहना। महात्मा गांधी भारतीय संदर्भों में सुकरात की शिक्षाओं को सत्य हरिश्चंद्र की शिक्षाओं से मिलाकर बताया करते थे। महात्मा गांधी के जीवन का सत्य था: भारत की आजादी।
आजादी भी कोई मामूली आजादी नहीं कि हमने विदेशी ताकत को हिंदुस्तान से निकाल दिया और गेहुंआ रंग के लोगों की सरकार बना ली। गांधीजी के लिए आजादी का मतलब था: एक एक व्यक्ति के मन से मानसिक गुलामी का खत्म हो जाना, आर्थिक और सामाजिक गुलामी का खत्म हो जाना। आदमी के मन से जाति और धर्म के नाम पर अलगाव का खत्म हो जाना। हर मनुष्य के भीतर संपूर्ण मनुष्यता का उदय महात्मा गांधी की परिभाषा के हिसाब से सच्ची आजादी थी। इसी आजादी को वे अपने लिए मोक्ष कहते थे और कहा करते थे कि मोक्ष प्राप्ति ही उनके जीवन का उद्देश्य है।
गांधीजी जिस रास्ते पर चल रहे थे, वह सुपरमैन वाला रास्ता नहीं था, मसीहा वाला रास्ता था। जिस रास्ते में सिर्फ त्याग समर्पण और चेतना के विस्तार की ही गुंजाइश होती है, किसी तरह के चमत्कार की गुंजाइश नहीं होती। लेकिन इस लोक को तो सुपरमैन की आदत है। इसलिए उसने महात्मा बुद्ध और ईसा मसीह के भीतर भी चमत्कारों का आरोपण कर दिया।
महात्मा गांधी के समय में उनके ऊपर भी चमत्कारी पुरुष होने का आरोपण कर दिया गया था। पश्चिमी दुनिया उन्हें ईसा मसीह के अवतार के तौर पर तो भारत की जनता उन्हें भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में देखने लगी थी। यहां तक कि भारत की संविधान सभा में भी उन्हें कल्कि अवतार तक कहा गया।
जब तक महात्मा गांधी के अनुयायियों का राज रहा, तब तक उनकी मूर्ति पूजा होती रही। अब जब दूसरे किस्म के लोगों के हाथ में सत्ता आई है तो उन्होंने वे तमाम चमत्कारी बातें गांधी जी से हटा दीं। ऐसे में बहुत से सामान्य लोग जो मसीहा की पूजा भी सुपरमैन की तरह करना चाहते हैं उनके लिए महात्मा गांधी एक बूढ़े, निरीह, लुंज पुंज, वृद्ध बन कर रह गए। अगर चमत्कारों को हटा दें तो इस तरह की आम जनता के लिए भगवान बुद्ध और ईसा मसीह भी बहुत सामान्य से व्यक्ति नजर आएंगे।
लेकिन मनुष्य अपने आपको सही से पहचानता कहां है। वह भरोसा तो सुपरमैन पर करता है, लेकिन असल में उसके जीवन पर असर कोई मसीहा ही डालता है। अगर ऐसा ना होता तो बुद्ध और ईसा जैसे दो ऐतिहासिक पुरुष ईश्वर की श्रेणी में ना चले गए होते। क्योंकि इस तरह के मनुष्य पूरी मनुष्य जाति को वह रास्ता दिखा देते हैं, जिस पर चलने में पूरी मनुष्य जाति का कल्याण होता है। इसीलिए बुद्ध ने कहा अपना दीपक खुद बनो और ईसा मसीह ने कहा हे ईश्वर मुझे अगले कदम के लिए प्रकाश दे।
मसीहा जब इस तरह के प्रकाश की कामना करता है तो इस रोशनी से उसके जमाने की प्रभु वर्क को बड़ी चोट पहुंचती है। सत्य की इस रोशनी में उसके गोरखधंधे उजागर हो जाते हैं। अपने निहित स्वार्थों पर हमले से परेशान इस तरह के लोग मसीहा की देह की हत्या कर देते हैं। लेकिन मसीहा ने जो जीवन ज्योति जलाई होती है, उसका प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और समाज मसीहा को पूजने लगता है और उसके हत्यारे को भूल जाता है।
ईसा मसीह और सुकरात की तरह महात्मा गांधी से भी उनके जीवन के अंतिम वर्षों में निहित स्वार्थों पर चोट होती देख कई लोग चिढ़ गए। उन्होंने संगठित षड्यंत्र करके महात्मा गांधी की हत्या कर दी। लेकिन जैसा कि इतिहास में होता आया है, इस तरह की हत्याएं व्यक्ति को और ज्यादा महान और अति मानवीय बना देती हैं। महात्मा गांधी के साथ भी यही हुआ।
महात्मा गांधी को इस संसार से गए हुए अभी 70 या 75 साल ही हुए हैं, ऐसे में हम एक मनुष्य के तौर पर उनके बारे में बहुत कुछ जानते हैं। लेकिन धीरे-धीरे जैसे समय आगे बढ़ेगा मनुष्य के रूप में उनके कार्य हमारी स्मृति से बाहर होते जाएंगे और सिर्फ उनके विचार और जीवन हमारे सामने रह जाएगा। जिसमें ऐसे अहिंसक महात्मा का चित्र होगा जिसने कभी किसी से नफरत नहीं की, जिसने अपने शत्रु पर हमला नहीं किया, जो कभी शत्रु के सामने झुका नहीं, जो कभी सत्य से टला नहीं, जिसने सत्य की कीमत पर जन भावनाओं के सामने घुटने नहीं टेके, जिसने सत्य की रक्षा के लिए प्राण निछावर कर दिए।
यह छवि समय के साथ उन्हें एक मुकम्मल देवता के तौर पर लोक चेतना में स्थापित कर देगी। तब वे किसी के राजनीतिक एजेंडे के लिए खतरा नहीं बचेंगे। जो उनके रास्ते पर नहीं चलेंगे वे भी उनकी तस्वीर टांग कर उन्हें नमन कर सकेंगे, क्योंकि उस समय महात्मा गांधी उनके राजनैतिक हितों के आड़े नहीं आ रहे होंगे।
हो सकता है पाठक को यह सब बातें कपोल कल्पित या हास्यास्पद लगें। लेकिन इसके लिए उन्हें थोड़ा अतीत में जाना चाहिए। इस देश ने वैष्णव और शैव का बहुत संग्राम देखा है इस देश ने आर्य, अनार्य, देव, दानव, राक्षस, असुर, नाग, किन्नर, शक, हूंण, कुशाण और न जाने कितनी नस्लों और जातियों का संघर्ष देखा है। इन सब आपस में झगड़ने वाली जातियों के प्रतिनिधि पुरुष आज हममें से बहुत से लोगों के पूजा घर में अलग-अलग देवता बनकर बैठे हैं।
इतिहास में भले ही वे आपस में लड़े हों, लेकिन अब उनकी वह लड़ाई हमारे भौतिक जीवन के सामने कोई चुनौती पैदा नहीं करती। इसलिए उनकी मूर्तियां एक ही सिंहासन में अगल-बगल बैठ जाती हैं। हम एक ही साथ विष्णु, शिव और देवी को पूज लेते हैं। भूल जाते हैं कि कभी इस देश में वैष्णव, शैव और शाक्त के बीच बड़ी स्पर्धा थी।
अगर हमें वीर पुरुषों को नायक बनाने की आदत है तो उससे बड़ी आदत हमारे भीतर त्यागी पुरुषों की पूजा करने की है। गांधी जी की आजादी के महानायक की छवि को हो सकता है कोई षड्यंत्र भंग कर भी दे, लेकिन एक त्यागी पुरुष और महात्मा की उनकी छवि पर कितने भी दुष्प्रचार कर लिए जाएं वह और निखरती ही जाएगी। क्योंकि मसीहा हमेशा से सुपरमैन से ऊंचे दर्जे की चीज माने गए हैं।
(आलेख जनपथ.कॉम से साभार)