सरयूसुत मिश्रा।
सुख-दुख, सत्य-असत्य, कर्म-अकर्म, के द्वन्द में मनुष्य स्वर्ग-नरक की काल्पनिक भूख से भयभीत होकर संपूर्ण जीवन वास्तविक आनंद के बिना ही गुजार देता है। सुख की आकांक्षा में दुख का चुनाव मनुष्य स्वयं करता है। पूरा अस्तित्व द्वन्द पर टिका हुआ है। अंधकार है तो प्रकाश है। विफलता के भय के बिना सफलता के लिए मनोकामना कैसे हो सकती है?
संसार में सभी देश और राज्य व्यवस्था संचालन के लिए शासन का चयन करते हैं। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। कई जगह अभी भी राजशाही है। लोकतंत्र को शरीरतंत्र भी कहा जा सकता है, जिसके साथ भी शरीर बहुमत में होंगे वही व्यवस्था पर काबिज हो जाएगा।
शरीर को साथ रखने के लिए शरीर के सुख और आनंद के लिए राजनीतिक दल वायदों का राजनीतिक संसार निर्मित करते हैं। चुनाव आए नहीं कि राजनीतिक स्वर्ग बनाने का वायदा राजनेता करने लगते हैं। जनता स्वयं राजनीतिक वायदे पर भ्रमित होकर अपने लिए स्वर्गवासी होने का फंदा तैयार करती है।
राजनीतिक सुख के नाम पर राजनीतिक दुख का चुनाव हम ही करते हैं। चुनावी वायदे सत्ता में आने के बाद भी वैसे ही बने रहते हैं, कुछ पाने की होड़ में जनता मुफ्तखोरी की योजनाओं से प्रभावित हो जाती है और खुद अपने लिए तबाही का इंतजाम करती है। मुफ्तखोरी की योजनाओं को रोकने और चुनाव में काले धन के उपयोग को कम करने के लिए चुनाव सुधार की बात शुरू हुई है।
हर चुनाव के अनुभव के बाद अगले चुनाव से पहले सुधार के कानून बनने चाहिए लेकिन शायद दशकों बाद अब चुनाव सुधार की बात शुरु हुई है। चुनाव आयोग की यह सही और सार्थक पहल है। जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन हर चुनाव के बाद किए जाने चाहिए। ऐसी आशा की जा रही है कि सुधार के लिए समर्पित भारत सरकार शायद चुनाव सुधारों को अंजाम तक पहुंचा सके।
क्षमता से अधिक खर्च करने पर भारत में बहुत प्रचलित कहावत है कि ‘घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने’। राजनीतिक जगत में तो आजकल यह कहावत सफलता का पैमाना बनी है। फ्री बिजली, फ्री राशन, ना मालूम किन-किन चीजों की घोषणाएं चुनावी वायदों का आधार बन गई है। किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव के समय यह एहसास नहीं होता कि जो भी वादा वे कर रहे हैं उसे पूरा करने के लिए संसाधन कहां से आएंगे?
सर्वोच्च न्यायालय में जब इस विषय की याचिका पर सुनवाई शुरू हुई तो चुनाव आयोग को कहना पड़ा कि उनके पास मुफ्तखोरी की घोषणाओं को रोकने के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। कई राजनीतिक दलों ने मुफ्तखोरी को जनता के अधिकार के रूप में भी प्रचारित करने का प्रयास किया।
चुनाव के समय करोड़ों रुपये नगद पकड़े जाते हैं। चुनाव में काले धन के उपयोग के लिए सभी चुनी गई व्यवस्थाएं पूरे पांच साल काला धन जुटाने में लगी रहती है। ऐसा नहीं है कि किसी भी संवैधानिक संस्था को काले धन के उपयोग के बारे में सूचना नहीं है लेकिन सब कुछ जानते हुए आँखें मूंदे रहने का इससे बड़ा उदाहरण कुछ नहीं हो सकता।
भारत में चुनावी चंदा भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहा जा सकता है। अभी तक भी भारत में राजनीतिक दलों को चुनावी फंडिंग के लिए कोई पारदर्शी व्यवस्था स्थापित नहीं हो पाई है। चुनावी बांड्स भी पारदर्शी प्रक्रिया को बढ़ावा नहीं देते। नगद रूप में चुनावी चंदे तो काले धन को खपाने का माध्यम बन गए हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत अभी ₹20000 तक नगद चंदे का सोर्स बताने की राजनीतिक दलों को जरूरत नहीं है।
भारत में कई राजनीतिक दल हैं, जो अरबों रुपए का चंदा प्राप्त करते हैं लेकिन यह चंदा 20000 रुपये की सीमा के अंतर्गत ही होता है। यह भरोसे योग्य बात नहीं है कि ऐसे दलों को कोई चेक से या अन्य पारदर्शी माध्यम से चंदा नहीं देता बल्कि यह सारा पैसा काले धन को एडजस्ट करने के लिए उपयोग आता है। कई बार तो इस तरह के प्रकरण भी सामने आए हैं राजनीतिक दलों का उद्देश्य ही काला धन कमाने के लिए होता है।
चुनाव आयोग द्वारा सभी राजनीतिक दलों को पत्र भेजकर यह सुझाव मांगे गए हैं कि चुनावी घोषणाओं को वित्तीय प्रबंधन से जोड़ा जाए। इसका आशय है कि जो भी राजनीतिक दल कोई भी चुनावी वायदा कर रहा है तो उसे यह बताना होगा कि इसको पूरा करने के लिए वित्तीय प्रबंधन अतिरिक्त संसाधन के रूप में कैसे जनरेट किए जाएंगे?
अभी तक तो ऐसा हो रहा था कि वायदा कर लिया गया और सरकार बनने पर उसके विपरीत व्यवहार कर जनता के साथ धोखाधड़ी की गई। चुनावी घोषणा पत्रों का कोई कानूनी स्वरूप नहीं होता है। घोषणा पत्रों के लिए राजनीतिक दलों की जवाबदेही निर्धारित होने की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं है। वायदों का स्वप्नलोक दिखाकर सत्ता तो हासिल कर ली जाती है लेकिन या तो वायदों पर अमल नहीं होता और यदि अमल होता है तो मुक्तखोरी के वादों को पूरा करने के लिए विकास के वास्तविक काम रोके जाते हैं।
आज किसी भी राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर नहीं है। सभी सरकारें कर्जों के जाल में फंसी हुई हैं। सभी सरकारें वेतन-भत्तों और पेंशन के स्थाई खर्च की पूर्ति भी अपनी आय से करने में सक्षम नहीं रह गई हैं। श्रीलंका में मुफ्तखोरी और गैर जवाबदेही के कारण जो आर्थिक संकट खड़ा हुआ उसके बाद सब देशों और राज्यों की सरकारों के कान खड़े हुए।
मुफ्तखोरी की योजनाओं पर राजनीतिक विमर्श प्रारंभ हुआ। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया और चुनाव आयोग भी सक्रिय हुआ व चुनाव सुधार की पहल शुरू हुई है। इसका परिणाम क्या होगा यह तो समय पर ही पता लगेगा लेकिन अगर देश को बचाना है तो कुछ करना ही पड़ेगा। अब सोचने का समय नहीं है, करने का समय है।
भारत सरकार की ओर से भी चुनाव सुधार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण दिखाई पड़ रहा है। लोकतंत्र की ज्योति को जलाए रखना है तो सुधारों की तरफ आगे बढ़ना ही पड़ेगा। इस दिशा में और अधिक विलंब किया गया तो अपने भार से ही यह तंत्र भरभरा कर जमीन पर गिर जाएगा। जनता को राजनीतिक स्वर्ग का वायदा करने की जरूरत नहीं है। मुक्तखोरी को बढ़ावा मनुष्यता को ही बर्बाद कर रहा है। कर्म के बदले अकर्म को प्रोत्साहित करना देश का बहुत बड़ा नुकसान करना है।
जो लोग और जो व्यवस्था नैतिक-अनैतिक साधनों से सत्ता का संधान करना चाहती है, उनमें क्या स्वयं के समाप्त होने का भय नहीं है? ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नष्ट होने का भय तो सबसे बड़ा भय है और शायद राजनेताओं में यह सबसे ज्यादा होता है। इंसान तो मृत्यु के समय नष्ट होगा लेकिन राजनीति और राजनेता तो हर पांच साल में विनष्ट होने के डर से ग्रसित होते हैं। यही भय मुफ्तखोरी और नैतिक-अनैतिक घोषणाओं का कारण होता है।
कुर्सी तो जानी है उसको हमेशा बचाए नहीं रखा जा सकता, तो कम से कम व्यक्तित्व को तो बचाया जा सकता है। हमारी संस्कृति ऐसा कहती है कि जाने के बाद कोई जिस बात के लिए याद किया जाता है उस पर ही उसकी सफलता-विफलता को देखा जाता है। कुर्सी के लिए समाज को दांव पर लगाना बहुत महंगा सौदा होता है। राजनीति यह सौदा करती ही रहती है।
चुनाव में सुधार की पहल अगर अंजाम तक पहुंचती है तो शायद किसी सुधार की कामना की जा सकती है। वैसे यह सुधार राजनीति के लिए बहुत कष्टकारी हो सकते हैं तो शायद सही स्वरूप में लागू नहीं हो सकेंगे क्योंकि सुधार के लिए कानून में संशोधन का काम राजनीति के द्वारा ही किया जाता है। वक्त सुधार का है और वक्त सबसे बड़ा सबक होता है। राजनीति इससे सबक लेगी ऐसा विश्वास ही किया जा सकता है।
(आलेख सोशल मीडिया से साभार)