राजनीति में एलजी-राज्यपाल, संविधान के सुप्रीम सवाल


संवैधानिक मामलों में तो लोकतांत्रिक व्यवहार इतना सटीक और सार्थक होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने का अवसर ही नहीं आए।


DeshGaon
अतिथि विचार Published On :
Supreme Court of India

सरयूसुत मिश्रा

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सियासत से जुड़े संवैधानिक सवालों पर दो अति महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। पहला फैसला केंद्रशासित दिल्ली सरकार को स्वायतत्ता और अधिकारों से जुड़ा हुआ है। दूसरा फैसला महाराष्ट्र में शिवसेना में फूट और सरकार के गठन से उत्पन्न संवैधानिक सवालों से जुड़ा हुआ है।

सरकारों के गठन और संचालन में राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों की व्याख्या है। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में शिवसेना की उद्धव सरकार के पतन, राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट के आदेश, विधायक दल द्वारा व्हिप निर्धारण और विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका सहित कई संवैधानिक सवालों पर फैसला किया है। राज्यपाल और उपराज्यपाल के संवैधानिक अधिकार और सियासत में दखल पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले में प्रकाश डाला गया है।

ऐसा माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार अस्थिर हो सकती है। शिंदे गुट के 16 विधायकों की अयोग्यता तय हो जाने पर सरकार की स्थिरता प्रभावित हो सकती है। सर्वोच्च अदालत के सामने विधायकों की अयोग्यता का प्रश्न तय करने के साथ ही राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट के लिए दिए गए आदेश की वैधानिकता भी सुनिश्चित की जानी थी। इसके साथ ही अयोग्यता के प्रश्न को निर्धारित करने के पहले विधानसभा के अंदर शिवसेना विधायक दल के व्हिप पर भी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की जानी थी।

जब शिवसेना में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विधायकों में फूट हुई थी तब विभाजित विधायक दल द्वारा नियुक्त किये व्हिप को विधानसभा अध्यक्ष ने मान्यता प्रदान कर दी थी। दूसरी तरफ ठाकरे के विधायक दल ने टूटे हुए विधायकों को अयोग्य ठहराने की याचिका तत्कालीन विधानसभा उपाध्यक्ष के सामने प्रस्तुत की थी। दूसरे गुट ने विधानसभा उपाध्यक्ष पर ही प्रश्न खड़े कर दिए थे।

इस सारे राजनीतिक विवाद में शिवसेना में विधायकों में टूट के आधार पर राज्यपाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सदन में फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया था। राजनीतिक अपरिपक्वता दिखाते हुए ठाकरे ने फ्लोर टेस्ट का सामना करने से पहले ही मुख्यमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गई थी।

सर्वोच्च अदालत के फैसले से एकनाथ शिंदे की सरकार अप्रभावित बनी हुई है लेकिन इस सरकार के गठन के लिए चली सारी राजनीति और राज्यपाल की संवैधानिक प्रक्रियाओं को सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी मानते हुए अपने फैसले में ऐसी बातें कहीं हैं जो भविष्य में राज्यपाल और उपराज्यपाल के लिए नजीर बन सकती हैं।

सबसे पहला सवाल कि क्या किसी राजनीतिक दल की अंदरूनी कलह के आधार पर राज्यपाल हस्तक्षेप कर फ्लोर टेस्ट के निर्देश दे सकते हैं? इस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि महाराष्ट्र में तत्कालीन राज्यपाल का फ्लोर टेस्ट का आदेश कानून सम्मत नहीं है। ऐसे तथ्य नहीं है जिनके आधार पर फ्लोर टेस्ट के आदेश देने की आवश्यकता थी। राजनीतिक दल के अंदरूनी मामलों की राजनीति में राज्यपाल को हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी।

आखिर लंबे समय से राज्यपालों की भूमिका पर राजनीतिक सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकारों के गठन और फ्लोर टेस्ट के लिए आदेश देने में राज्यपालों द्वारा संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग के अनेक उदाहरण भारतीय राजनीति में उपलब्ध हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुख्यमंत्री और सरकारों को बहाल तक किया गया है।

महाराष्ट्र के मामले में भी ऐसी संभावना बन सकती थी अगर उद्धव ठाकरे विधानसभा के अंदर फ्लोर टेस्ट में गए होते और वहां उनकी सरकार गिरी होती तो फिर स्टेटस को बनाये रखने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट फैसला देने पर विचार कर सकता था। चूँकि ठाकरे ने स्वेच्छा से इस्तीफ़ा दिया था इसलिए उनको किसी भी प्रकार से राहत देने की संभावना सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं थी।

राज्यपाल के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष के फैसले भी विवादों में आते रहे हैं। विधायिका को स्वतंत्र रूप से अधिकार हैं। विधानसभा की कार्यवाही पर न्यायिक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। विधानसभा अध्यक्ष के फैसलों पर जरूर न्यायिक विचार किया जा सकता है। महाराष्ट्र में 16 विधायकों की अयोग्यता के मामले में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सवाल किए गए हैं। यद्यपि विधायकों की योग्यता पर निर्णय लेने में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप नहीं किया। अयोग्यता के मामले में निर्णय लेने के लिए विधानसभा अध्यक्ष को ही अधिकार दिया है।

शिवसेना में दोनों गुटों के व्हिप के संबंध में जरूर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्णय दिया है। सर्वोच्च अदालत का कहना है कि विधानसभा में व्हिप राजनीतिक दल द्वारा तय किया जाएगा। इसका निर्धारण विधायक नहीं कर सकते। महाराष्ट्र के मामले में एकनाथ शिंदे गुट ने जिस विधायक को व्हिप नियुक्त कर दिया था उसे विधानसभा अध्यक्ष ने मान्यता प्रदान कर दी थी। इसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी करार दिया है। विधायकों की अयोग्यता पर निर्णय विधानसभा अध्यक्ष द्वारा ही किया जाना है। सुप्रीम कोर्ट ने कई संवैधानिक विषयों पर निर्णय के लिए मामला बड़ी संवैधानिक पीठ को भेज दिया है।

महाराष्ट्र में शिवसेना और महाराष्ट्र विकास अघाडी सरकार के पतन और एकनाथ शिंदे सरकार के गठन की सारी प्रक्रिया में संवैधानिक और नैतिक सवालों पर तो उद्धव ठाकरे को राहत महसूस हो सकती है लेकिन सत्ता के सवाल पर एकनाथ शिंदे और बीजेपी के लिए राहत मिली है। फ्लोर टेस्ट और व्हिप को मान्यता देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जहां निर्णय को गलत बताया है वही उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के बाद नई सरकार के गठन के लिए राज्यपाल की कार्यवाही को वैधानिक निरूपित किया है।

महाराष्ट्र में पिछले कई दिनों से सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निगाहें टिकी हुई थी। यहां तक कि एनसीपी में जो राजनीतिक घटनाक्रम हुआ है उसके पीछे इस फैसले की पृष्ठभूमि को देखा जा रहा था। ऐसा माना जा रहा था कि यह फैसला एकनाथ शिंदे के खिलाफ आएगा तो वर्तमान सरकार पर इसका प्रभाव पड़ेगा और अजित पवार के नेतृत्व में बीजेपी एक नए समीकरण के तहत सरकार का गठन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब ऐसी परिस्थितियां बनी है कि महाराष्ट्र की सरकार सुरक्षित लग रही है।

सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र सरकार के बीच अधिकारों को लेकर विवाद पर आया है। दिल्ली के उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच में टकराव देखा जा रहा था। दिल्ली सरकार को अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग के अधिकार भी नहीं दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले के बाद दिल्ली सरकार को इसकी स्वायत्तता मिली है। केंद्र शासित राज्य होने के बाद निर्वाचित सरकार को अपने कामकाज के लिए स्वायत्तता मिलनी ही चाहिए।

उपराज्यपाल लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अथॉरिटी नहीं होते। लोकतंत्र में सारे अधिकार निर्वाचित सरकार के पास ही होते हैं। राज्यपाल और उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह पर काम करना होता है। लंबे समय से दिल्ली की केजरीवाल सरकार इसके लिए संघर्ष कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आम आदमी पार्टी की सरकार को राहत मिली है। इससे दिल्ली में उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव रुकेगा वही दिल्ली के विकास के लिए लोकतांत्रिक ढंग से फैसले लेने में तेजी आएगी।

भारत का लोकतंत्र अमृत काल में पहुंच गया है। उम्मीद तो यह की जानी चाहिए कि लोकतांत्रिक अनुभव में परिपक्वता आएगी। शुरुआत में जो समस्याएं दिखी थी उनका समाधान निकलेगा लेकिन दुर्भाग्य की स्थिति देखी गई कि विभिन्न दलों की सरकारों के बीच टकराव बढ़ता ही गया। केंद्र और राज्य के बीच संघीय व्यवस्था का टकराव कम होने के बजाय बढ़ता हुआ ही दिखाई पड़ रहा है। राज्यपालों की भूमिका को लेकर तो केंद्र की सरकार और राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों के बीच तकरार सीमाएं तोड़ चुका है।

कई राज्यों में ऐसे विवाद सतह पर दिखाई पड़ते हैं। जहां निर्वाचित सरकार द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा लंबे समय तक लटकाए रखा जाता है। कई राज्यों द्वारा तो इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई कि राज्यपालों को समय सीमा में विधेयकों पर निर्णय लेने के निर्देश दिए जाएं। सहयोग, समन्वय और संवाद की बुनियाद पर खड़ा लोकतंत्र, असहयोग टकराव और विवाद का स्वरूप लेता जा रहा है।

संवैधानिक मामलों में तो लोकतांत्रिक व्यवहार इतना सटीक और सार्थक होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने का अवसर ही नहीं आए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लोकतंत्र से जुड़े संवैधानिक विषयों पर आने वाले फैसलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यह संख्या लोकतंत्र की परिपक्वता पर सवाल खड़े कर रही है। इन सवालों पर जनप्रतिनिधियों को सतर्कता के साथ आचरण करने की जरूरत है।

(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)





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