विरासत की वसीयतः सत्ता की सियासत या सत्तावाद में बिखरता परिवारवाद


जिस तरह के राजनीतिक हालात दिखाई पड़ रहे हैं उससे तो ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों की राजनीति तेज़ी से बिखरती जा रही है।


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अतिथि विचार Published On :
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सरयूसुत मिश्रा

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई राजनीतिक उठापटक की राजधानी बन गई है। बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटा तो फिर सत्ता के लिए नफरत को मोहब्बत और मोहब्बत को नफरत में बदलते गठबंधन का दौर इस राज्य ने देखा। यह दौर अभी खत्म नहीं हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में अभी दो साल का वक्त है। इन दो सालों में महाराष्ट्र कई दौर के राजनीतिक “लिव इन” देखेगा।

2019 में चुनाव के बाद अब तक महाराष्ट्र में तीन मुख्यमंत्री शपथ ले चुके हैं। तीनों मुख्यमंत्रियों के साथ उपमुख्यमंत्री के रूप में एनसीपी के अजित पवार शपथ लेते रहे हैं। राज्य में हुई हर टूट और बगावत को सिद्धांतों का मुलम्मा चढ़ाया गया। अजित पवार खेमा आज भी यही कह रहा है कि कांग्रेस और शिवसेना के साथ शरद पवार का जाना विधायकों को नागवार गुजरा। एनसीपी टूटी है कि नहीं टूटी है यह अभी तक साफ नहीं है।

दोनों खेमे यह दावा कर रहे हैं कि एनसीपी पर उनका कब्जा है। चर्चा यह भी है कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे सीनियर पवार की सहमति भी शामिल है। फ़िलहाल तो महाराष्ट्र की सियासत अस्थिरता के दौर से गुजर रही है। यह अस्थिरता आगे भी चलती रहने की संभावना है। अगले चुनाव में जनादेश के बाद ही राज्य को स्थाई सरकार मिलने की उम्मीद है।

शिवसेना में बगावत के समय एकनाथ शिंदे ने जो प्रयोग किया था, उसी आजमाए हुए फार्मूले पर अजित पवार भी आगे बढ़े हैं। बीजेपी पर एनसीपी तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है लेकिन कोई एकजुट हो तो उसको तोड़ा नहीं जा सकता। एनसीपी में विरासत और उत्तराधिकार की जंग भी इसके लिए जिम्मेदार है। शरद पवार ने जब से अपनी बेटी सुप्रिया सुले को एनसीपी की कमान सौंपने के लिए कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। तब से ही राजनीतिक हलकों में ऐसा माना जा रहा था कि पार्टी में बगावत कभी भी हो सकती है।

दूसरे कार्यकारी अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल भी अजित पवार के साथ चले गए। किस खेमे में किसके साथ कितने विधायक हैं यह सब आने वाले दिनों में तय हो जाएगा। इस राजनीतिक घटनाक्रम के संकेत स्पष्ट रूप से यह दिखाई पड़ रहे हैं कि जिस तरह से शरद पवार ने बगावत करके अपनी राजनीति स्थापित की थी अब इतिहास उसी को दोहरा रहा है और उनके खिलाफ बगावत कर उनके भतीजे ने अपने राजनीतिक भविष्य का रास्ता चुना है।

भारत में क्षेत्रीय दलों की राजनीति परिवारवाद पर टिकी हुई है। परिवारवाद में विरासत की जंग से कोई भी दल अछूता नहीं रहा है। महाराष्ट्र में ही शिवसेना पहले उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के पारिवारिक जंग में फंसी रही। उसके बाद विचारधारा के विपरीत महाविकास अघाड़ी करने पर आक्रोशित विधायकों ने बगावत कर शिवसेना को दो फाड़ कर दिया। असली शिवसेना बगावत करने वाले लोगों के पास चली गई। बाला साहब ठाकरे के वारिस उद्धव ठाकरे शिवसेना के गुट पर ही कायम रह सके हैं।

अब विरासत की यही जंग एनसीपी में शुरू हो गई है। ये जंग चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना भी तय है। शरद पवार निश्चित रूप से एनसीपी के जनक हैं। एनसीपी की पहचान उन्हीं से है लेकिन अजित पवार को उन्होंने महाराष्ट्र में काम करने का मौका दिया। जहां तक उनकी बेटी का सवाल है सुप्रिया सुले राजनीति में अपना कोई प्रभाव अब तक स्थापित नहीं कर सकी हैं। उनका यही प्रभाव है कि वह शरद पवार की बेटी हैं। राजनीति के दिग्गज उम्र के आखिरी पड़ाव पर भाई-भतीजों से ज्यादा अपने खून के रिश्ते को ही अहमियत देते रहे हैं।

उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी में भी जब विरासत की जंग हुई थी तब मुलायम सिंह यादव ने भाई शिवपाल यादव और बेटे अखिलेश यादव में बेटे को ही प्राथमिकता दी थी। विरासत की जंग से ही समाजवादी पार्टी के जनाधार को गहरा झटका लगा है। तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके में भी विरासत की जंग देखी गई है। लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल में भी उनके दोनों बेटों में विरासत की जंग देखने को समय-समय पर मिलती रहती है।

सियासत आज केवल सत्ता का खेल रह गई है, ना कोई विचारधारा रह गई है ना कोई सिद्धांत रह गए हैं। जिस तरह से गठबंधन और तालमेल होते हुए दिखाई पड़ते हैं उससे तो राजनीति में सत्ता की राह ही सबसे बड़ी विचारधारा रह गई है। जिस पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीतकर विधानसभा में आए हैं जिनके खिलाफ जीत कर आए हैं उनके साथ ही सरकार में बैठकर जनादेश को चिढ़ाने के अलावा राजनेता क्या कर रहे हैं? मोदी विरोधी विपक्षी गठबंधन की पटना में बैठक के बाद महाराष्ट्र में हुए घटनाक्रम के राजनीतिक संकेत विपक्षी एकता पर भी निश्चित रूप से प्रभाव डालेगा। जो शरद पवार अभी तक ताकत के साथ विपक्षी गठबंधन में भूमिका निभा रहे थे उन पर अब गठबंधन कितना यकीन करेगा?

पटना में भी महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम के झटके महसूस किए जा सकते हैं। वहां भी आरजेडी और जेडीयू की साथ चल रही सरकार राजनीतिक दुश्मनों में अचानक आई मोहब्बत पर ही कायम है। जेडीयू ने बीजेपी के साथ पिछला विधानसभा चुनाव लड़ा था। जेडीयू के जितने भी विधायक जीत कर आए हैं वह सब आरजेडी के खिलाफ ही जीत कर आए हैं। अब उन्हीं के साथ सरकार में काम कर रहे हैं जिन लोगों को सत्ता में हिस्सेदारी मिल रही है उन्हें तो इस विरोधाभास से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जो लोग पार्टी में सत्ता की हिस्सेदारी में हाशिये पर हैं उनमें आक्रोश होना स्वाभाविक है।

बीजेपी का जहां तक सवाल है वह भी सत्ता की सियासत ही कर रही है। सत्ता के लिए जिनको भी गले लगाना उपयुक्त लगता है उनको गले लगा लिया जाता है। भले ही ऐसे लोगों के गले में बेईमानी, भ्रष्टाचार और अक्षमता का कंठहार ही डला हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हाल ही में भ्रष्टाचार पर कड़े एक्शन लिए जाने की बात कही थी। पीएम मोदी ने एनसीपी के भ्रष्टाचार पर भी तीखा हमला किया था। अब इस घटनाक्रम को विपक्ष ने केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का नतीज़ा बताना शुरू कर दिया है।

क्षेत्रीय दलों पर काबिज परिवारवाद की राजनीति में जितना भी बिखराव आएगा उसका लाभ राष्ट्रीय दलों बीजेपी और कांग्रेस को ही मिलेगा। यद्यपि कांग्रेस को भी बीजेपी परिवारवाद की श्रेणी में ही रखती है। राजनीतिक दलों में सत्ता की सियासत इस स्तर पर हावी हो गई है कि पार्टियों के बड़े-बड़े नेता जो मुख्यमंत्री और मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं वह भी टिकट नहीं मिलने या स्वार्थ पूर्ति नहीं होने पर पार्टियां छोड़कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेते हैं। कर्नाटक में बीजेपी को चुनाव के समय कई पुराने नेताओं ने इसी आधार पर अलविदा कहा था।

सियासत से सेवा की भावना केवल सिद्धांतों के लिए ही शेष रह गई है। अब सत्ता ही सेवा का माध्यम बची है। महाराष्ट्र में शिवसेना की बगावत के बाद संपूर्ण मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पालन में एकनाथ शिंदे सहित 16 बागी विधायकों के बारे में विधानसभा अध्यक्ष को निर्णय लेना है। इस निर्णय के पहले ही नए बागी विधायकों की याचिका अध्यक्ष के सामने पहुंच चुकी है।

जिस तरह के राजनीतिक हालात दिखाई पड़ रहे हैं उससे तो ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों की राजनीति तेज़ी से बिखरती जा रही है। अब वहां भविष्य की राजनीति बीजेपी और कांग्रेस के बीच सिमटने की संभावना है। क्षेत्रीय दलों के नेता अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से राष्ट्रीय दलों के साथ अपना भविष्य तलाशने का प्रयास करेंगे। राजनीति में विश्वास का संकट अपने चरम बिंदु पर पहुंच रहा है।

राजनीति पर किसी कवि ने बहुत सही कहा है –

सत्य रहेगा अंदर, ऊपर से सोने का ढक्कन होगा!
चांदी की तकली होगी, तो मुंह में असली मक्खन होगा!!
करनी में गड़बड़ियां होंगीं, कथनी में अनुशासन होगा!
हाथों में बंदूकें होंगी, कंधों पर सिंहासन होगा!!

(आलेख लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)





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