जनजातीय गौरव दिवस की आड़ में सत्ता का दोहरा रवैया: विकास के नाम पर आदिवासियों का विस्थापन


जनजातीय गौरव दिवस के बहाने सत्ता बिरसा मुंडा का नाम लेती है, लेकिन विकास के नाम पर लाखों आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर रही है। वन संरक्षण नियम 2022 के तहत कानूनों में बदलाव आदिवासी अधिकारों पर खतरा बन रहे हैं। पेसा कानून भी केवल कागजों तक सीमित है।


राजकुमार सिन्हा राजकुमार सिन्हा
अतिथि विचार Published On :

आज सत्ता प्रतिष्ठान जनजातीय गौरव दिवस के रूप में बिरसा मुंडा का नाम तो लेते हैं, परन्तु यही सत्ता विकास के नाम पर लाखों आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल कर रही है। इस विस्थापन की त्रासदी ने आदिवासियों को शहर की झुग्गी-झोपड़ी में मजदूरी करने पर मजबूर कर दिया है। विकास की इस आंधी ने स्वाभिमानी आदिवासी किसानों को उद्योगों के लिए सस्ते मजदूरों में बदल दिया है। प्रशासनिक अमला लगातार वन अधिकार, ग्राम सभा के जल, जंगल और जमीन पर मालिकाना हक, संस्कृति और परम्परा पर हमले कर रहा है।

 

देश में आदिवासी समाज की समृद्ध संस्कृति, विरासत और उनके राष्ट्र निर्माण में योगदान को सम्मानित करने के लिए केंद्र सरकार ने 2021 में धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवम्बर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया था।

 

जनजातीय गौरव दिवस

इसी अवसर पर मध्यप्रदेश सरकार ने शहडोल में एक बड़े जनजातीय आयोजन के दौरान राष्ट्रपति, राज्यपाल और मुख्यमंत्री की उपस्थिति में पेसा कानून 1996 के तहत 2022 के नियम अधिसूचित करने की घोषणा की है। यह नियम 25 वर्षों के बाद लागू किया गया है।

 

पेसा कानून आदिवासी क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत, पहला अधिकार ग्राम सभा को गांव की सीमा के भीतर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और नियंत्रण का दिया गया है। दूसरा, विवादों का समाधान परम्परागत तरीकों से करने का अधिकार भी ग्राम सभा को दिया गया है, ताकि पुलिस हस्तक्षेप न कर सके। हालांकि, इन नियमों में प्रक्रिया की स्पष्टता का अभाव है।

 

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धरती आबा बिरसा मुंडा ने जल, जंगल और जमीन की लूट के खिलाफ संघर्ष करते हुए, आदिवासियों के अपने राज को स्थापित करने के लिए ‘उलगुलान’ आंदोलन चलाया और मात्र 25 वर्ष की आयु में शहीद हो गए। लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासी समाज उसी जल, जंगल और जमीन की लूट और शोषण का सामना कर रहा है, जिसके खिलाफ देशभर के आदिवासियों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।

 

नए वन संरक्षण नियम और आदिवासी अधिकारों पर खतरा

केन्द्र सरकार द्वारा वन संरक्षण नियम 2022 के अंतर्गत किए गए बदलाव से जंगलों की लूट और आसान हो गई है। पहले, किसी परियोजना को वन भूमि देने से पहले ग्राम सभा की अनुमति लेना अनिवार्य था, परन्तु नए नियमों में इस प्रावधान को हटा दिया गया है। पहले वन अधिकार कानून 2006 के तहत प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही किसी परियोजना को वन भूमि दी जा सकती थी, लेकिन अब बिना इस प्रक्रिया को पूरा किए ही परियोजनाओं और कंपनियों को वन भूमि सौंपने का रास्ता साफ कर दिया गया है।

 

इसका सीधा प्रभाव उन परिवारों पर पड़ेगा, जो 2005 के पहले से वन भूमि पर खेती कर रहे हैं। उन्हें अब अतिक्रमणकारी घोषित कर बेदखल किया जा सकता है, और सरकार को उन्हें न तो मुआवजा देना पड़ेगा और न ही पुनर्वास करना होगा।

वन संरक्षण अधिनियम 1980 के बाद से देशभर में 27,144 परियोजनाओं के लिए लगभग 15 लाख 10 हजार हेक्टेयर वन भूमि आवंटित की जा चुकी है, जो दिल्ली के क्षेत्रफल का दस गुना है।

मध्यप्रदेश में भी 1,163 विकास परियोजनाओं के लिए 2,84,131 हेक्टेयर वन भूमि का उपयोग किया गया है, जिसमें से 279 सिंचाई परियोजनाओं के लिए 83,842 हेक्टेयर वन भूमि आवंटित की गई है।