राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ की नई पारी पुर-सुकून नजर आई। बंगाल के राज्यपाल के रूप में जो जगदीप धनखड़ भाजपा के एजेंट के रूप में काम करते दिखाई देते थे, वे ही जगदीप धनखड़ राज्यसभा के सभापति के रूप में एक अलग रंग में रंगे दिखे।
मैं संसद के दोनों सदनों की सजीव कार्यवाही गौर से देखता, सुनता आया हूं। जब टीवी नहीं था तब रेडियो पर देर रात संसद समीक्षा सुनता था। लोकसभा और राज्यसभा में किस सदस्य की क्या भूमिका है, इस कार्यवाही के कारण साफ दिखाई दे जाती है। ये सजीव कार्यवाही सदन के सभापति की विद्वता, पक्षपात और निजी स्वभाव की झलक भी दिखा देती है।
पिछले आठ साल में संसद की कार्यवाही का स्तर लगातार गिरा है। एक तो दोनों सदनों से अनुभवी सदस्य या तो रिटायर हो गए, या चुनकर नहीं आ पाए या फिर फोत हो गये। सत्तारूढ़ दल ने भी दोनों सदनों को ऐसे सभापति दिए जो सभापति के रूप में कम, पार्टी कार्यकर्ताओं के रूप में ज्यादा काम करते नजर आए। ऐसे निराशाजनक माहौल में जगदीप धनखड़ एक उम्मीद की किरण है।
सदन में उद्योगपति गौतम अदाणी के बारे में चल रहे हंगामे के दौरान धनखड़ ने माहौल को बोझिल होने से खूब बचाया। यहां उनका विनोदी स्वभाव और हाजिर जवाबी खूब काम आई। उन्होंने अपने बारे में विपक्षी नेताओं की टिप्पणियों को सत्तापक्ष के लिए औजार नहीं बनने दिया। खुद ही बढ़िया फील्डिंग की। यहां तक कि माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को खिलखिलाने पर विवश कर दिया।
सदन की गरिमा बनाए रखने और उसे बोझिल होने से बचाए रखना आसान काम नहीं है। अतीत में अनेक सभापति इस भूमिका में कामयाब भी हुए और बहुत से बदनाम भी। बहुतों पर पक्षपात के आरोप भी लगे। लेकिन राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने फिर से पुराने समय की याद दिला दी। जगदीप धनखड़ में मुझे डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा और लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष बलराम जाखड़ की झलक दिखाई दी।
मुमकिन है कि अदाणी कांड की वजह से देश का ध्यान अतीत में बदनाम जगदीप धनखड़ के नये किरदार पर न गया हो लेकिन मैंने इसे रेखांकित करना जरूरी समझा। सब जानते हैं कि सदन वैसे ही चलता है जैसा सभापति चलाना चाहे। सभापति सरकार को बचा भी सकता है और घिरवा भी सकता है। बदनामी भी कमा सकता है और सुयश भी कमा सकता है।
लोकसभा के मौजूदा अध्यक्ष ओम बिरला जी इस मामले में संतुलन बनाए रखने में नाकाम नजर आते हैं। वे अपनी पूर्ववर्ती श्रीमती सुषमा ताई का अनुकरण भी नहीं कर सके। बहरहाल ये उनका अपना स्वभाव है। उसे कोई बदल नहीं सकता।
धनखड़ विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री तथा राज्यपाल की भूमिका में भी रहे। वे मूलतः भाजपाई नहीं है। कांग्रेस में भी रहे और जनता पार्टी में भी। पेशे से वकील भी रहे। इसलिए उन्हें नयी भूमिका में अपने आपको स्थापित करने में ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ी।
राज्यसभा के सभापति के रूप में सर्वपल्ली राधाकृष्णन से लेकर जगदीप धनखड़ के बीच अनेक ऐसे नाम हैं जिन्हें बड़े आदर, सम्मान के साथ याद किया जाता है। डॉ. शंकर दयाल शर्मा, भैरैसिंह शेखावत ऐसे ही नाम रहे हैं। इस भूमिका में वैंकैया नायडू भी ज्यादा कामयाब नही रहे।
राज्यसभा का सभापति देश का पदेन उपराष्ट्रपति होता है। उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अतीत में ऐसे अनेक मौके आए जब सभापति सरकार को बचाने में नाकाम रहे। इस उच्च सदन में विधेयक पारित कराना भी टेढ़ी खीर माना जाता है। किंतु यदि सभापति निर्विवाद और निष्पक्ष है तो वो हिकमत अमली से टेढी खीर को भी सीधा करने की कूबत रखता है।
जगदीप धनखड़ देश के पंद्रहवें उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति हैं। ये पद राष्ट्रपति पद की अंतिम सीढ़ी भी है। अब तक आधे से ज्यादा उप राष्ट्रपति बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने। बहुत से बनते बनते रह गये। भाजपा ने कभी उप राष्ट्रपति को राष्ट्रपति नहीं बनाया। न अटल जी के समय और न मोदी जी के समय। इसलिए धनखड़ के लिए यही शीर्ष पद है जहां वे अपने आपको प्रमाणित कर अजर अमर हो सकते हैं।
शुरू में मै जगदीप धनखड़ को राजनीति का जगदीप मानता था। लेकिन वे विदूषक नहीं विद्वान हैं। और ये अच्छी बात है। विदूषक भी विद्वान होते रहे हैं और विद्वान भी विदूषक। राज्यसभा के सभापति से अधिक अनेक उपसभापति लोकप्रिय रहे हैं। नजमा हेपतुल्लाह ऐसा ही नाम है। सदन में सर्वप्रिय होना आसान नहीं होता, धनखड़ ने इस दिशा में पहल की है। वे कानूनविद तो हैं ही, नेता भी हैं। उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।
बंगाल के राज्यपाल के रूप में जगदीप धनखड़ ने भाजपा कार्यकर्ता की तरह काम किया। वे बदनाम भी हुए, लेकिन पीछे कभी नहीं हटे। इसका पारितोषिक भी उन्हें मिला। अब देखिए कि आने वाले दिनों में वे राज्यसभा को कितना सहज, रोचक और महत्वपूर्ण बना सकते हैं। फिलहाल धनखड़ जी को शुभकामनाएं और बधाई।
नोटः आलेख वेबसाइट मध्यमत.कॉम से साभार