बाबा आपका जाना हम सबका अनाथ हो जाना है। आप इस दुनिया में नहीं है इस खबर पर अब तक यकीन नहीं होता है। ईश्वर इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? उसने हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी छीन ली है। आपको ऐसे याद करना पड़ेगा कभी सोचा नहीं था। आपने हमसे विदा भी आपके सबसे पसंदीदा त्यौहार होली पर ली। हमारे लिए अब होली के रंग हमेशा फीके ही रहेंगे।
बाबा पर लिखने के लिए शब्द अक्सर कम पड़ जाते हैं, लेकिन आज न शब्द साथ दे रहे हैं और न ही आंखें। उनके जाने के सप्ताह भर बाद मैं कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पाया हूँ। क्योंकि लिखते हुए आंखें पसीज जाती हैं और शब्द धुंधले दिखाई देते हैं। यूं तो बाबा को किसी लिखावट या इबारत में पूरा पिरो पाना मेरे लिए संभव नहीं है। याद करता हूँ तो लगता है कि कल ही की बात है।
जब बाबा से विवि में पढ़ने-समझने के इतर मध्यप्रदेश माध्यम में उनके साथ रचनात्मक लेखन का काम करने का सौभाग्य मुझे मिला। लगभग डेढ़ साल उस भीषण दबाव और चुनौतियों से भरे लेखन कार्य का मैं हिस्सा रहा, जिसमें दिन-रात या काम के घण्टे कुछ भी सुनिश्चित नहीं थे। फिर भी बाबा के स्नेह और प्रेम की छांव तले वो काम हमेशा समय पर कब और कैसे पूरा हुआ ये पता ही नहीं चला।
ये बात और है कि बेहतर से बेहतर करने के जुनून में बाबा ने न दिन देखी और ना ही रात। वो खुद रात-रात भर हमारे साथ बैठकर ड्राफ्ट तैयार करवाते रहते। इस दिनचर्या ने निश्चित ही उनका स्वास्थ्य बिगड़ दिया और बाद के दिनों में उन्हें वहीं रहते हुए शुगर की शिकायत भी हो गई थी। यूं भी अब इन सब बातों का जिक्र कोई मायने नहीं रखता, लेकिन उनका काम के प्रति जुनून, सबके लिए 24×7 उपलब्ध रहना और खुद के प्रति बेपरवाह हो जाने का पता चलता है।
उन्होंने कभी ना नहीं कहा शायद इसीलिए इतना व्यस्त होते चले गए कि काम और सिर्फ काम ही उनका जीवन हो गया था। लोग थोड़ा वक्त खुद के लिए और परिवार के लिए निकलते हैं। दफ्तर के इतर अपना व्यक्तिगत जीवन जीते हैं, लेकिन बाबा ने सामाजिक जीवन ही जिया। वो हमेशा पब्लिक फिगर ही रहे। हम सबके लिए सबके बनकर तो रहे, खुद अपने न हो सके। मुझे ये टीस सदा रहेगी।
दादा जी के देहांत के बाद कुछ पारिवारिक कारणों से मुझे 2019 में भोपाल और और उस लेखन कार्य से विदा लेनी पड़ी। मैं सतना लौट आया। लेकिन जब भी बात होती तो बाबा हमेशा कहते कि लिखना मत छोड़ना और कोशिश करो कि लिखते रहो। जिस बहाने सही लिखो तुम अच्छा लिख सकते हो। मुझे भोपाल छोड़े हुए लगभग 3 वर्ष से अधिक हो गया।
इस बीच जब भी भोपाल आना हुआ बाबा से मुलाकात होती रही। मुझसे कहते कि तुमने बिजनेस जर्नलिज्म से बिजनेस पर छलांग लगाई है, वहां भी अच्छा करोगे। अपना जर्नलिज्म का तजुर्बा भी इस्तेमाल करना। अभी कुछ माह पहले ही मुलाकात हुई थी, तो बिटिया और नमिता को साथ लाने की ताकीद देकर उन्होंने आशीर्वाद दिया था।
मध्यप्रदेश माध्यम में बाबा के साथ काम करने की भी ढेरों यादें हैं। लेकिन बाबा को याद करना हो तो विवि में उनके साथ बीते पल ही जिंदगी की सबसे अमूल्य धरोहर हैं। बाबा अपने आप में एक चलती फिरती पाठशाला थे, जिन्होंने हजारों पत्रकार और बेहतर इंसान गढ़े। ये उनसे मिलने वाला निश्छल प्रेम ही था कि वो पुष्पेंद्र पाल सिंह या पीपी सर से कब हम सबके ‘बाबा’ हो गए पता ही नहीं चला। यकीनन उन्होंने दादा जी जितना स्नेह और प्रेम हर विद्यार्थी पर कुड़ेला है।
मुझे याद है कि मैं सबसे पहले बाबा से माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्विद्यालय (एमसीयू) के इंट्रेस एग्जाम का रिटेन क्लियर होने बाद मिला था, जब वे इंटरव्यू वाले लास्ट राउंड में पैनल के तौर पर सामने बैठे थे। उनके साथ में चौरे सर और राखी मैम सहित वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी भी पैनलिस्ट थे। सभी के सवाल होने के बाद बाबा ने ही इंटरव्यू का मुझसे आखिरी सवाल पूछा कि “पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो?”
मैंने कहा- “जी मुझे लिखने का शौक है, लगता है बस यही कर सकता हूँ। बस इसीलिए आना चाहता हूं।” वे बोले “अच्छा तो क्या लिखा है, कहाँ छपा है, दिखाओ। मैंने कहा “जी बस कविताएं लिखी हैं और स्कूल-कॉलेज के मंच पर सुनाई भी हैं, कुछ छपा तो नहीं है।” तो उन्हीने कहा- “कुछ अपना लिखा सुनाओ।” मैंने मुम्बई 2002-03 के बॉम्बे ब्लास्ट के समय व्यथित होकर लिखी गई अपनी एक पुरानी कविता ओजपूर्ण स्वर में सुना डाली। बाबा बोले – “बहुत अच्छा, अब आप बाहर जाइये और फाइनल लिस्ट का इंतजार करिये।”
ये मेरी बाबा से पहली मुलाकात थी, उसके बाद अगली मुलाकात तो विश्विद्यालय में ही हुई। मुझे नहीं पता सेलेक्शन का आधार वो कविता रही या कुछ और परन्तु मैं विश्विद्यालय में दाखिला पा चुका था। यहां बाबा को नजदीक से जानने समझने का मौका मिला। पहली बार ऐसा लगा जैसे किसी अभिभावक के रूप में कोई शिक्षक मिला हो। दाखिले के ठीक बाद बाबा की एक लंबी क्लास हुई करीब 2 से 3 घंटे की, जिसमें उन्होंने खाने की ताकीद से लेकर रहने तक और पत्रकारिता के पेशे की अन्य बारीकियों से रूबरू कराया।
हमें समझाया कि अब इस पेशे में आए हो तो इसकी चुनौतियों को सबसे पहले समझ लो। यहां डेट लाइन के प्रेशर के बीच सटीक और सही जानकारी परोसने का जो जोखिम है, उसमें कई बार खुद के लिए वक्त न के बराबर मिलता है। ऐसी तमाम समझाइशों का दौर बाद में लगातार कोर्स होने तक चलता रहता था।
हम लोगों के लिए यह एक बूस्टर डोज था, जब भी बाबा को लगता कि लाइब्रेरी, परीक्षा, लैब जनरल ‘विकल्प’ छापने, ‘संगोष्ठी’-परिचर्चा सहित सेमिनार या अन्य प्रायोगिक गतिविधियों में बच्चों का प्रदर्शन गड़बड़ा रहा है। वे 4 से 5 घंटे की एक लंबी क्लास लेते और सब बच्चे सही दिशा में आ जाते। उनके डांटने या समझाने का तरीका ही ऐसा होता रहा कि लगता जैसे पिता जी डांट-समझा रहे हैं।
और दूसरी कमाल की बात ये भी रही कि जब भी मस्ती का अवसर होता या कोई सांस्कृतिक आयोजन प्रतिभा आदि होती तो बाबा का एक अलग ही मित्रवत रूप देखने को मिलता, वे हमारे साथ हंसते, गाते और नाचते थे। उन्होंने विश्विद्यालय में ही विद्यार्थियों के लिए एक घर जैसा माहौल खड़ा कर दिया था, ताकि हमें कभी घर की कमी न खले। इसी का सुखद परिणाम रहा कि सीनियर्स और जूनियर्स के बीच भाईयों की तरह रिश्ते बने, जो आज तक कायम हैं।
मुझे याद है कि 2007-09 वाला शिक्षा सत्र जुलाई के बाद ही सही से शुरू हो पाया था। क्योंकि कुछ बच्चे तो एडमिशन लेकर चले गए और कक्षाओं में आना उन्होंने सितंबर में शुरू किया था। यह पहला साल था जब एमसीयू सात नम्बर की किराये की इमारत की जगह एमपीनगर की प्रेस कॉम्प्लेक्स वाली इमारत में आ गया था। हालांकि पहले सेमेस्टर तक हमें लाइब्रेरी के लिए वहीं 7 नम्बर में जाना पड़ता था, जहां बगल में जायका की चाय और कचौरी का लुत्फ उठाया जाता था।
मुझे याद है कि उस दौरान बाबा विद्यार्थियों की खाने, रहने, खुद को संभालने आदि से लेकर अन्य तरह की हर मुश्किलातों का हल निकालते रहते थे। मसलन यूनिवर्सिटी की नई इमारत के सारे माले शाम 7 तक अंधेरे में डूब जाते थे, लेकिन बाबा के दफ्तर की बत्तियां रात 11 बजे तक जलती दिखती थीं। वहां सब विद्यार्थी अपनी-अपनी समस्या लेकर बैठे रहते, फिर बाबा सबकी सुनते, सबको समझाते थे।
कभी-कभी तो हमारे पुराने सीनियर्स, विश्विद्यालय और पत्रकारिता से जुड़े किस्से शुरू हो जाते, तो कब शाम से रात 11 बज गए पता ही नहीं चलता था। मुझे याद है कि ये दौर लम्बा चलता और जब तक उनके नोकिया 1600 में घर से उनकी बेटी सानू का 3 से 4 बार फोन न आ जाता, सभा विसर्जित नहीं होती थी। घड़ी देखकर नौकरी करने वाले दौर में मैंने इतना समर्पण और खुलकर प्रेम, मार्गदर्शन देने वाला गुरु अब तक नहीं देखा।
अब भी 2007 की दीपावली और दशहरा मेरे जेहन में ताजा है, जो पहली बार गांव-घर से बाहर भोपाल में ही विश्विद्यालय में मना था। दशहरे वाले दिन हमें सीनियर्स की ओर से भोजपुर में फ्रेशर्स पार्टी मिली थी और हम वहीं से लौट रहे थे। उस रोज मैं जैसे ही थोड़ा असहज हुआ और मेरे आँसू निकल पड़े, तो बाबा ने सबकी नजरों से बचाते हुए मुझे दुलारा था। दीवाली वाले रोज भी पूजा और खाने का कार्यक्रम बाबा ने हम सबके साथ विश्विद्यालय में ही संपन्न किया। मुझे याद है कि लिट्टी-चोखा और चावल बनाया गया था। मिठाई बाजार से आई थी। हम सबने छककर खाया था।
बाबा यूँ ही हर साल आने वाले नए बैच के बच्चों के साथ होली से लेकर ईद और दीवाली तक हर त्यौहार पहले विभाग में ही मनाते थे। जो विद्यार्थी इन त्यौहारों पर घर नहीं जा पाते थे, उन्हें कभी घर की कमी महसूस नहीं होती थी। ईद और होली में तो बाबा के साथ पूरा भोपाल नाप लिया जाता था। उस दौरान भोपाल में मौजूद लगभग हर सीनियर्स के यहां मिठाई और खीर के दौर होते थे।
मैं लिखता चला जाऊंगा तो ये पोस्ट खत्म ही नहीं होगा शायद। क्योंकि बहुत सी बातें हैं, बहुत से किस्से हैं। 2007 से अब तक एक लंबा वक्त गुजरा है। अब जब बाबा हम सबके बीच नहीं है, तब एक निजी किस्सा जाहिर करना चाहता हूं, जो मेरे लिये भावनात्मक रूप से एक अलग अनुभव था।
यह पहले सेमेस्टर की बात है, जब इंटरनल एग्जाम शुरू होने वाले थे। तीन इंटरनल देने जरूरी होते थे। मैं एक दे चुका था कि उसके अगले ही दिन अचानक अम्मा के एक्सीडेंट की खबर गांव से आई थी। पता चला उन्हें जबलपुर में भर्ती कराया गया है, सिर पर गम्भीर चोट आई है। मैंने बाबा को फोन किया और पूरी बात बताई, तो उन्होंने कहा इंटरनल से तो अपन बाद में निपट लेंगे तुम अम्मा को देखो, तुरन्त ट्रेन पकड़कर जबलपुर निकलो। इस वक्त यही जरूरी है। किसी भी तरह की समस्या हो, तो फोन करना और चिंता मत करो सब ठीक होगा।
लगभग अगले 15 दिनों तक मैं डॉक्टर जौहरी के अस्पताल में रहा। पिता जी भी साथ थे। उस समय बाबा हर रोज रात में फोन करते और पूरा हालचाल लेते। सभी सहपाठियों और सीनियर्स के फोन भी भोपाल से आते रहते थे। मुझे उस दौरान भावनात्मक रूप से परिवार के इतर एक इमोशनल सपोर्ट की जरूरत थी, क्योंकि मेरे लिए जीवन में यह इस तरह की बड़ी और पहली विपदा थी। उस समय सगे सम्बंधियों के इतर विश्वविद्यालय के सीनियर्स और बाबा का इतना स्नेह और सहयोग मिला कि मैं उस मुश्किल वक्त से उबर पाया।
इसके बाद भी विश्वविद्यालय और वहां से निकलने के बाद जब भी कभी पेशागत या व्यक्तिगत परेशानियों से जूझता बाबा का इमोशनल सपोर्ट कभी कम नहीं हुआ। पढ़ाई-लिखाई, डांट-डपट के इतर ये जो प्रेम, अपनापन हमें मिला। इसने हमें व्यवहारिक और भावनात्मक तौर पर बेहतर होने में बहुत मदद की। आज विश्विद्यालय के पांच से छः पीढ़ी के सीनियर्स और बाबा के साथ बने रिश्ते ही जीवन की असली पूंजी हैं। इसीलिए एक शिक्षक को याद करने के लिए भोपाल जैसा शहर उनकी होर्डिंग्स और बैनर से पट गया। 14 मार्च को विवि के प्रांगण में उन्हें याद करने के लिए विद्यार्थियों का हुजूम इकट्ठा था।
मैं बाबा को जितना जान और समझ सका हूँ, उससे बस यही कह सकता हूँ कि अपने सगे सम्बंधियों और परिजनों के लिये तो सब जीते हैं। यूँ विद्यार्थियों और उनसे मिलने वाले हर आम-ओ-खास के लिये अपना पूरा जीवन होम कर देने वाले विरले ही होते हैं। मुझे तो इतना निश्छल प्रेम कहीं और नहीं मिला…। आप बहुत याद आएंगे। आपकी समृतियों का संसार हम सबको जीवनभर प्रेरणा देता रहेगा। आपसे विदा लेना सम्भव नहीं है। आपसे सुखद स्मृतियों में ही सही मिलना होता रहेगा। लव यू बाबा।